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क्यों करूं श्रंगार प्रतिदिन …निर्मला सिंह गौर (अं.रा .महिला दिवस पर )

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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क्यों करूं श्रंगार प्रतिदिन

तुमको इस सौन्दर्य से

बढ़ कर

मेरे व्यक्तित्व से भी

प्यार होना चाहिए

है अगर सम्पूर्ण मन

मेरा तो मेरा

ये असुन्दर रूप भी

स्वीकार होना चाहिए |

.

वर्ष भर ये वसुंधरा

रहती नहीं

हरियाली ओढ़े

क्या बिना मख़मल के कोई

पग धरा पर

रखना छोड़े

एक क्षण यह सोच लेना

कैसे सहती

शीतलहरी

ज्येष्ठ रवि के

तीक्ष्ण शोले

भीगती सावन में

निसदिन

आसमा बरसाये ओले

क्या नहीं सहती धरा

फिर भी अधर

कुछ भी न बोले|

.

है तभी तारीफ़ जब तुम

सूखते पौधे के अंतर दर्द से

संतृप्त होकर,

जल नहीं उपलब्ध हो तो

अश्रु जल से

सींच डालो

और गले उसको लगालो

ये समझलो कि

तुम्हारा भी

किसी असहाय पर

उपकार होना चाहिए

है अगर सम्पूर्ण मन मेरा

तो मेरा

ये असुन्दर रूप भी

स्वीकार होना चाहिए |

.

सिर्फ़ ऊपर की चमक

करती है

आकर्षित उसी को

जो न मन के चक्षु खोले,

और न देखे ,

आंतरिक सौन्दर्य

मन मन्दिर का

क्या है

नयन क्यों भीगे

किसी के

क्या उसे अंतर व्यथा है

.

है तुम्हारी

द्रष्टि पैनी

तो परख लो

आंतरिक सौन्दर्य

महिला और

मही  का

नारी धरती की तरह

ममतामयी है

नारी के जीवन की पीड़ा

बाँट लो

उसको समझ लो

प्रेम कर लो

देखो फिर कैसा लुभाएगा

बिना श्रंगार के भी

रूप यौवन

ज्यों सुगन्धित

शुद्ध चन्दन

जैसे शीतल

श्वेत हिम कण

फिर तुम्हारे कर्म

आभूषण

नयन

दर्पण बनेगे

तब मुझे

महसूस होगा

कि इन्हीं आभूषणों से

अब मेरा

श्रंगार होना चाहिए|

क्यों करूं

श्रंगार प्रतिदिन

तुमको

इस सौन्दर्य से बढ़ कर

मेरे व्यक्तित्व से भी

प्यार होना चाहिए

है अगर सम्पूर्ण मन मेरा

तो मेरा

ये असुन्दर रूप भी स्वीकार होना चाहिए ||

……………………………………………निर्मला सिंह गौर

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