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अपने स्त्रियत्व के दाइत्व निभाए उम्र भर
आस्था की भूमि पर परमार्थ बोये उम्र भर
भोर से संध्या तलक दुःख दर्द सबके बांट कर
तूने माँ आँचल के सब कोने भिगोये उम्र भर |
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अपने पैरों की बिवाई की तुझे परवाह नहीं
अपने हाथों की कलाई की तुझे परवाह नहीं
पेड़, पक्षी, ढोर, याचक कोई प्यासा ना रहे
सबकी चिंता में घड़े भर भर उठाये उम्र भर |
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भूंख के अहसास को चेहरे से पढ़ कर भांपना
ठण्ड लगने से ज़रा पहले ही कम्बल ढांपना
माँ तुझे ईश्वर कहूँ या दूत ईश्वर का कहूँ
दर्द मेरे, तूने क्यों आंसू बहाए उम्र भर |
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चाँद, सूरज, पेड़, पर्बत सबकी करके अर्चना
निर्जला उपवास कर तुलसी के बिरवे सींचना
राहू , शनि, मंगल सभी के गर्म तेबर साध कर
घर की खुशियों के लिए दीपक जलाये उम्र भर |
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घाव को सबसे छुपा कर, वेदना को भूल कर
मान मर्यादा की खातिर स्वार्थ का परित्याग कर
सिर्फ देना और ग्रहण के नाम पर बस टालना
माँ तेरे ये खेल तो ना समझ आये उम्र भर |
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परिजनों का हित सदा करती थी तेरी अर्चना
सृजन में सौ फीसदी शामिल थी तेरी बेदना
हम सदा याचक रहे तेरे करों के दान के
तूने माँ मातृत्व के मोती लुटाये उम्र भर ||
निर्मला सिंह गौर
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