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रास्ता….निर्मला सिंह गौर

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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रास्ता पैर के छालों से लिपट कर रोया
सुबह का तारा उजालों से लिपट कर रोया
एक मुद्दत के बाद आया जो मै आपमे शहर
तो अपने चाहने बालों से लिपट कर रोया।
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अश्क इतने बहे कि सारा ज़हन भीग गया
मेरे अपनों का,परायों का भी मन भीग गया
कैसे बतलाऊं मुहब्बत कि नहीं थी गिनती
एक से क्या मै हज़ारों से लिपट कर रोया ।
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मेरे दुश्मन भी मुझे इतने भले लगने लगे
भूल कर शिकवे गिले मेरे गले लगने लगे
आग पानी से खैरियत का हाल पूछती थी
और तूफ़ान किनारों से लिपट कर रोया ।
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घर की दहलीज़ मिली मुझसे बलैयां लेकर
मेरे बचपन की शरारत का हवाला देकर
हाय । पत्थर की इमारत भी कितनी प्यारी लगी
मैं अपने घर की दीवारों से लिपट कर रोया ।
.
उम्र तो उम्र है कट जाती है चलते चलते
रास्ते नक्शे क़दम याद कहाँ रखते हैं
पर मेरे घर का रास्ता मुझे पहचान गया
वो मेरे पैर के छालों से लिपट कर रोया।
वो मेरे पैर के छालों से लिपट कर रोया ।।
निर्मल।

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