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सफ़र—निर्मला सिंह गौर

भोर की प्रतीक्षा में ...
भोर की प्रतीक्षा में ...
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तिनका तिनका ज़र्रा ज़र्रा चप्पा चप्पा दरबदर
लम्हा लम्हा वक्त गुज़रा तनहा तनहा इक सफ़र
क़तरा क़तरा अश्क ढुलके शाम की तन्हाई में
रफ़्ता रफ़्ता हाथ से फिसली लड़कपन की उमर |
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चार दूनी आठ होते हैं यही बस याद था
उम्र की बछिया ने मारी चौकड़ी दर लाँघ कर
ज़िंदगी कुछ और भी है जोड़ बाक़ी के सिवा
हम बहुत आगे निकल आये जो देखा घूम कर |
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कनपटी के बाल कब उज़ले हुए मालूम नहीं
जब सफ़र पर मै चला था बाल न थे गाल पर
गांव की पगडंडियाँ थीं अजनवी की शक्ल में
बाद मुद्द्त के जो लौटा देखने मै अपना घर |
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राह न भटकें क़दम और मंज़िलों पर हो नज़र
माँ की नरमी या पिता के सख्त रूख़ का था असर
अपनी ज़िद पर अड़ सकें इतना कहाँ साहस रहा
भाई, काका ,ताऊ ,दादा और बाबूजी का डर |
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अपनी अपनी ज़िंदगी है अपने अपने फैसले
अपने अपने शौक़ हैं ,अपना है इक ज़ौक़े नज़र
देखते हैं जश्न ,जलवे ,दिल्लगी ,फरमाइशें
पर शिकायत कुछ नहीं, इक दर्द आता है उभर |
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है तज़ुरवा बूढ़े बरगद को बदलते वक्त का
आसमा से ज़मीं तक जुङने का आता है हुनर
ज़र्द पत्ते हैं हमें ले जायगी इक दिन हवा
सब्ज़ पत्तो तुम चढ़ाओ यूँ न तूफानों को सर ||
………………………………………………………
निर्मल
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