जनरल डब्बा
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कल शाम की आंधी में
उड़े थे बहुत कुछ बेतरतीब,
उसी आंधी में उड़ी थी
मेरी एक कविता भी,
मैंने अफ़सोस नहीं किया
सोंचा और अपने आप को कोंचा
कि कही इसी कविता से
आंधी में बही मानवता
वापस आ जाए,
चारों ओर खुशहाली छा जाए,
दिवाली और ईद
हम साथ-साथ मनाए,
आंधी की शुरुआत करने वालों
का दिल बदल जाए….
सुना है
कविता ने कई धाराओं को
मोड़ दिया,
हैवानियत की कमर को
तोड़ दिया,
सो, उम्मीद है
हम एक दूसरा
मुज़फ्फरनगर न दुहराए.
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– सौरभ के.स्वतंत्र
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