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झुलसा अंतस(भाग 2)

social issue
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……………..धीरे धीरे दिन गुजरने लगे पर सरोज अभी भी पिछली दुनिया में ही खोयी रहती थी “त्रस्त-पस्त वर्तमान का ले देके भूतकाल ही सहारा बचता है” जगह नयी थी पर जानकी सरोज से घुल मिल गयी थी वो उसके साथ खेलती ,उसके साथ ही खाना खाती ,कभी उसे अपने खिलौने दिखलाती ,दोनों में काफी घनिष्टता हो गयी | एक दिन शाम को सूर्य अस्ताचल में डूबता हुआ क्षितिज को किसी कैनवास की तरह नारंगी रंग में रंगा हुआ था ,साफ़ आकाश में छोटी बदलीयां हवा में तैर रही थी,मिलों के छुट्टी के हूटर की आवाज़ दूर तक हवाओं को भेद रही थी, मंदिरों में शाम की आरती के घंटे बज रहे थे, मस्जिद के स्पीकर से निकले मगरिब की अज़ान के तारसप्तक स्वर वातावरण में दूर तक बिखरे हुए थे, कर्मचारियों के झुण्ड सड़को पर गले में पहचान पत्र लटकाए अपने अपने घरों को लौट रहे थे ,परिंदे भी चहचहाते हुए घरोंदे में आना शुरू हो गए थे, गायत्री सरोज छत पर बैठे चाय पी रहे थे जानकी छत पर खेल रही थी शून्य को निहारते निहारते अकस्मात सरोज फफक फफक के रो पड़ी ,उसे अपनी माँ ,खेत खलिहान की याद आने लगी ,गायत्री देवी ने उसे उठाकर गले लगाते हुए कहा “देखो बेटी कई साल पहले भी मेरा परिवार एक प्लेन दुर्घटना में ख़त्म हो गया था पर मैंने जीवन से हार नहीं मानी ,बेटा हम में से प्रत्येक को विधि ने एक विशेष काम के लिए यहाँ भेजा है अगर तुम अब तक जीवित हो तो निश्चित ही ईश्वर ने तुम्हारे लिए कुछ विशेष सोचा है | अपना खाली समय आश्रम व लाइब्रेरी में गुजारा करो बेटी तुम जल्द ही ठीक हो जाओगी , होसला रखो |
यूँ तो गायत्री देवी के साथ और कई लोग भी अनेको बार सरोज को ये उपदेश दे चुके थे पर आज गायत्री देवी द्वारा कही गयी बात सरोज को गहरी लग गयी थी, अमूमन उपदेशो की महत्ता ,प्रभाव उसके शाब्दिक या वाक्य विन्यास से नहीं बल्कि सुनने वाले की मानसिक अवस्था द्वारा निर्धारित होती है | उस शाम उन शब्दों ने सरोज के अंतस को बुरी तरह हिला दिया था अब सरोज का अधिकाधिक समय लाइब्रेरी में किताबो की दुनिया में बीतने लगा , ये पड़ाई अंको व शब्दों के प्रपंचो की पढाई नहीं थी ,जिसमे केवल सूचनाओ का केन्द्रण किया जाता है अब किताबो में जीवन का यथार्थ दर्शन था इसमें कही बुद्ध का ज्ञान था ,महावीर का त्याग था ,तो कही मदर टेरसा की सेवा भावना थी तो कही नेल्सन मंडेला का जीवन संघर्ष था | सरोज के कष्टों से भरे अनुभवों और इस ज्ञान के मिलन ने उसमे अलग ही आध्यात्मिक ,परमार्थ से भरी चेतना उत्पन्न कर दी थी अब उसके जीवन में स्वत्व के रुदन विलाप की जगह भविष्य के प्रति उमंग उत्साह था जीवन में निजता की समाप्ति हो रही थी | अब सरोज में एक नयी उर्जा थी वह अब गायत्री देवी के साथ आश्रम के कामो में हाथ बटाने लगी, वह आश्रम के परमार्थ के कार्यो को नए स्तर पर ले जाने का प्रयत्न करने लगी उसने आश्रम के लिए मासिक पत्रिका का संपादन भी शुरू कर दिया |
गायत्री देवी भी उसकी लगन और योग्यता से हतप्रभ थी ,गायत्री देवी की उम्र भी बढ़ने लगी थी, आश्रम के कार्यो के अधिकतर निर्णय अब सरोज ही लेने लगी थी ,उधर जानकी से भी सरोज की प्रीत बढ़ने लगी थी, उस बच्ची में सरोज को अपना बचपन दिखाई देता था कुछ दिनों से गायत्री देवी अक्सर बीमार रहने लगी थी ,उम्र अपना असर दिखाने लगी थी जीवन के लक्षण की मन्दन की ओर यत्नरत थे एक रात गायत्री देवी ने सरोज को अपने कमरे में बुलाया कहा बेटी ! लगता है मुझे जो आश्रम के लिए करना था मैं कर चुकी अब तुम इसकी वारिस हो मुझे पूरा यकीन है अब ये आश्रम तुम्हारे योग्य हाथो में सुरक्षित है ,जानकी की जिम्मेदारी भी अब तुम पर है, मैं इसे एक बाल-आश्रम से लेकर आयी थी, ये मेरी बेटी की तरह दिखती है, सरोज ने बीच में रोकते हुए कहा “मैं आपके बिना अधूरी हू आपको कुछ नहीं होगा” गायत्री को समझा कर सरोज अपने कमरे में चली गयी | सुबह होते होते प्राणों का पखेरू पिंजड़ा तोड़ उड़ चूका था अब गायत्री देवी केवल स्मृतियों और तस्वीरों में ही शेष बची थी.
उनके स्वर्गवास के बाद सरोज का जीवन अब आश्रम और जानकी तक सीमित रह गया था , उसके पुरुषार्थो से आश्रम अब राष्टीय स्तर पर कार्य करने लगा था | सरोज की ख्याति विस्तार के नए आयाम छूने लगी थी, कई राष्टीय ,राजकीय पुरस्कार उसके नाम से जुड़ चुके थे | समय की परीमिति निरंतर अनंत की ओर उन्मुख थी ,दिन जुड़ते जुड़ते महीने ,महीने जुड़ते जुड़ते साल बन चुके थे गायत्री देवी की मृत्यु को कई वर्ष बीत चुके थे | सरोज अब समाज सेवा के क्षेत्र में एक जाना पहचाना नाम बन चुकी थी | जानकी भी अब बड़ी हो गयी थी सरोज उसे अपनी छोटी बहन की तरह प्यार करती थी उसकी पढाई, उसकी हर छोटी- छोटी चीज़ का सरोज एक माँ की तरह ध्यान रखती ,एक दिन जानकी को तेज बुखार चढ़ गया ,दवाईया दी गयी पर रात्रि में ही बुखार अपने चरम पर पहुँच गया ,आनन फानन में डॉक्टर बुलाया गया ,डॉक्टर की सलाह पर जानकी को अस्पताल में भर्ती कर दिया गया पर संक्रमण भयानक रूप ले चुका था , डॉक्टरो के लाख प्रयत्न के बाद भी जानकी के दोनों गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया, सरोज जानकी को दिल्ली ले जाना चाहती थी पर डायलेसिस पर रखे शरीर को कही ले जाना डॉक्टर्स की सलाह के विपरीत था |
सरोज दुर्भाग्य के इस वार से पूरी तरह टूट चुकी थी, सरोज के जीवन का एक मात्र सहारा भी आज पूरी तरह मशीनों के सहारे का मोहताज था,दवाइयां,इलाज़ केवल औपचारिकता मात्र रह गयी थीं,सुधार का कोई लक्षण नहीं था,ऐसे में किसी की किडनी द्वारा ही जान बच सकती थी,सरोज ने बिना समय गवाए अपनी किडनी देने की पेशकश कर दी,पर डॉक्टरों कि जांच में पाया गया कि सरोज की केवल एक ही किडनी स्वस्थ थी,दूसरी किडनी देने लायक अवस्था में नहीं थी,स्वस्थ किडनी ट्रांसप्लांट तो हो सकती थी,पर दूसरी अस्वस्थ किडनी के साथ सरोज की जान का जोखिम था,डॉक्टरों ने इस ट्रांसप्लांट के लिए अनुमति नहीं दी,पर सरोज अड़ चुकी थी,डॉक्टर साहब सरोज की बहुत इज्ज़त करते थे,उनके केबिन में सरोज उनसे ट्रांसप्लांट की अनुमति के लिए बहस कर रही थी,डॉक्टर साहब ने साफ़ कहा-देखिये सरोज जी,ये एक प्रकार की आत्महत्या है,ट्रांसप्लांट के बाद उस अस्वस्थ किडनी के साथ आप कितने दिन जीवित रहेंगी या जीवित भी रहेंगी,ये कहना बहुत मुश्किल है,चिकित्सा विज्ञान के नियमों के अनुसार मैं इस प्रत्यारोपण की अनुमति नहीं दे सकता,सरोज ने सजल नेत्रों से कहा-डॉक्टर साहब मैं आपके चिकित्सा विज्ञान को तो नहीं जानती पर इतना जरूर जानती हूँ कि ये शरीर मुझे पिछले दस सालों से मिल रहा है,तिल-तिल रोजाना मैं हर शाम एक मौत मरती हूँ व सुबह एक बार फिर जीवित होती हूँ,तन-मन में एक जलन, एक टीस हर पल कसकती रहती है ,अगर मैं इस कार्य के लिए शरीर मुक्त हो भी जाऊ तो भी मैं गायत्री देवी का अहसान न चुका पाऊँगी | डॉक्टर साहब न चाहते हुए भी प्रत्यारोपण फॉर्म पर हस्ताक्षर कर चुप चाप केबिन से बहार निकल गए | जीवन के बने रहने की प्रायिकता न्यून थी पर सरोज निर्णय से विचलित नहीं हुई | ट्रांसप्लांट से एक दिन पहले जानकी ने सरोज को बुलाया, भरे मन से कहा ” दीदी अब मैं न बचूंगी लगता है मेरी माँ मुझे बुला रही है | सरोज ने सुबकते हुए उसे चुप रहने को कहा,”दीदी आश्रम की आया मेरा पुराने घर का पता जानती है उसे भेजकर मेरे घरवालो को बुला लेना मैं आखिरी बार उनसे मिलना चाहती हूँ” | सरोज हामी भर उसे समझा कर वहां से चली गयी |
आज प्रतिदिन की तरह सरोज प्रातः ही आश्रम के दफ्तर में पहुच गयी थी , शाम को ऑपरेशन के कारण वो आश्रम के सभी काम निपटाना चाहती थी संभवत वो जान गयी थी कि हो सकता है कि ये आश्रम में उसका आखिरी दिन हो, तभी कमरे में आश्रम की आया प्रवेश करती है ” मैडम जानकी के घर से कोई आया है जानकी से मिलना चाहता है” उसे अंदर भेज दो, सरोज ने कहा | सामने एक झुके हुए कंधे , बढ़ी हुई दाढ़ी, चढ़ी हुई आंखे जैसे रात की उतरी ना हो, एक आदमी जो गंदे कपडे पहने हुए था ,अपनी उम्र से ज्यादा का दिख रहा था ,सरोज उसको देख कर भोचक्का रह गयी थी, ये पंकज था वो पंकज जिसने सरोज पर तेज़ाब फेका था | सरोज उसको देख कर आग बबूला हो गयी थी पर पंकज अब शराबी जुआरी भर रह गया था जो कच्ची शराब बेचकर जैसे तैसे अपना गुजारा चलाता था उसकी शराब जुए की लत ने उसे बरबाद कर दिया था ,आज वो जिंदगी से हारा हुआ ,थका हुआ एक असफल इंसान था जिसकी बेटी अस्पताल में जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रही थी | वो सरोज को देखकर घबरा गया घुटनों के बल जमीन पर बैठकर सर जमींन पर धर दहाड़े मार -मार कर रोने लगा | आज सरोज का जला कुचला बीभत्स चेहरा भी सूर्य के समान चमक रहा था ,उसकी आँखों से अश्रु धारा फूट पड़ी ,वो पंकज से कुछ नहीं बोली ” निस्तभता ही आज मौन माध्यम से भावनाओ का सम्प्रेषण कर रही थी ,तभी सरोज उठकर अलमारी से नोटों की गड्डी निकालती है और पंकज की तरफ फेककर रोती हुई कमरे से चली जाती है | ये वही नोट थे जिन पर कभी पंकज ने सरोज का नाम लिखा था | पंकज उन्हें उठाकर सर झुकाए बिलखता हुआ कमरे से चल देता है | शाम को ट्रांसप्लांट का ऑपरेशन हो जाता है | जानकी बच जाती है सुबह होते होते सरोज के जीवन का दीप अनेको की दुनिया रोशन कर सदा के लिए काल के अनंत अंधकार में विलीन हो जाता है ,सरोज महापरिनिर्वाण को प्राप्त हो जाती है आज शरीर रूपी पुतले की समस्त चल अचल गतियां अंतिम विराम को प्राप्त हो जाती है | सरोज के त्याग की खबरे हर अखबार के लिए प्रथम पृष्ठ की सामग्री बन जाती है, वो मरकर भी पंकज को तिल तिल हरा हुआ छोड़ जाती है उसके शव की मुट्टी में एक नोट था जिस पर ” पंकज मैं भी जनकी की तरह किसी की बेटी थी ” लिखा था |

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