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——-खाक-ए-वतन ——

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तेरा तुझ को सौप कर एक दिन तुझमे ही समा जाऊंगा
यथार्थ कल्पना की सीमा रेखा न कल्पित कर
तम प्रकाश के द्वंध से जब खुद को अविकल पाउँगा
तेरा तुझ को सोप कर एक दिन तुझ में ही समा जाऊंगा
प्रीत बैर मोह पाश के बंधन तोड़ सारे
इंद्र धनुष सा एक दिन अम्बर में खो जाऊंगा
तेरा तुझ को सौप के …………..
आसक्त असंतोषी व्यथित चेतनाओ के सागर में
अमृत बूंद बन मैं विसरित हो जाऊंगा
तेरा तुझ को सौप के………..
अनन्त गति से गतिमय होता सूक्ष्म विशाल में परिणित होता
अज्ञानता के अंधेरो में ज्ञानदीप बन जाऊंगा
तेरा तुझ को सौप के एक दिन ……..
इस जग में द्धेष बहुत है ,अभी कार्य शेष बहुत है
असख्य तृष्णाओ की तृप्ति करता एक नया बुद्ध बन जाऊंगा
तेरा तुझ को सौप कर एक दिन तुझ में ही समा जाऊंगा

(v. k azad)

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