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घातक-मनोरंजन

social issue
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घातक-मनोरंजन
एक पुरुष प्रधान समाज होने के बाबजूद हमारे समाज में नारी की भूमिका की महत्व को अस्वीकार नहीं किय
किया जा सकता है |
किसी भी राष्ट्र की सामाजिक, संस्कृतिक एवं आर्थिक ढ़ाचे की अवस्था का आकलन उस राष्ट्र में नारी समाज की स्थिति को देखकर सहज ही लगाया जा सकता है और इसके अलावा उस समाज की भविष्य की`कल्पना भी इसी के द्वारा संभव है क्योकि एक बालक जो कि कल का होने वाला देश का नागरिक है उस पर सबसे ज्यादा (स्त्री का) एक माँ के रूप मे सर्वाधिक असर पड़ता है ये बात महात्मा गाँधी शिवाजी, शकराचार्य जैसे अनेको महान पुरषों के चरित्र निर्माण में माँ की भूमिका से सिद्ध है क्योंकि एक बच्चा सबसे पहले माँ से भावनात्मक रूप से जुड़ता है और माँ को ही अपने प्रथम शिक्षक के रूप मे पाता है इन सब तथ्यो से ये बात स्पष्ट है की एक नारी किस प्रकार से हमारे समाज के बोधात्मक रचनात्मक,विकास मे सहायक है परन्तु आजकल चलचित्रों व अन्य मनोरंजनो के साधन जैसे केबलडिश जिस प्रकार से महिलाओ की छवि को सीरीज नाटकों की मदद से प्रस्तुत कर रहे है
उसे ये लगता है की किस प्रकार से कुछ स्वार्थी लोग अपने निजी स्वार्थ को भारतीय संस्कृति के प्रचार का जामा पहनाकर उसमे महंगे सेटो और आकर्षक परिधान का मसाला डालकर एक स्वादिष्ट डिश की तरह मार्केट मे बेच रहे है और मुनाफा कमा रहे है और बेशर्मी से खुद को भारतीय संस्कृति का प्रचारक होने का दम भर रहे है |
अगर इन श्रखला कार्यक्रमों के चरित्रों पर नज़र डालें तो हम पायेंगे की ये चरित्र ना सिर्फ हमारी ज़िन्दगी की सच्चाई से दूर है बल्कि व्यावहारिक द्रष्टि से भी बड़े अवज्ञानिक है आदर्शो,मूल्यों,चरित्र,संस्कार, जैसे शब्दों का प्रयोग करने वाले इन चरित्रों का स्वयं का ही कोई
चरित्र नहीं होता है और धारावाहिक निर्माणकर्ता इन चरित्रों की सहायता से भारतीय संस्कृति और परंपराओं को प्रचारित करने की बात करते है अगर इन कार्यकर्मो के दूरगामी व दीर्घकालीक प्रभावो को देखे तो परिणाम बहुत ही भयावह दिखाई देते है,यहाँ दीर्घकालीन शब्द
का प्रयोग का करना इसलिये जरूरी है क्योंकि ये कार्यक्रम निर्वात में गति करते पिंड की अनन्त काल तक चलने वाली गति की तरह है जिसका कोई अंत नज़र नहीं आता क्योंकि हमारे समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस नाटक रूपी धीमें ज़हर का आदी हो चुका है अगर इनके प्रभाव की चर्चा करे तो इसके साथ जुड़े एक और गंभीर विषय कि ओर ध्यान देना होगा चलचित्र व सिनेमा हमारे समाज के ऊपर प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता चाहे वो कपड़े पहनने का सलीका हो या चलने का तरीका कहीं ना कहीं हर वर्ग हर उम्र के लोगों पर इसका प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है यही प्रभाव इन कार्यक्रमों का पड़ना भी स्वाभाविक है वैसे भी आदर्शो के अभाव से गुजर रहे
समकालीन समाज जहाँ ना तो अब महात्मागाँधी , भगतसिंह जैसे आदर्श है जो समाज को सही दिशा मे निर्देशित कर सके खासतौर से युवा वर्ग इन भ्रमित करने वाले धारावाहिको की मदद से समाज के स्वरूप व प्रकर्ति को समझने का प्रयत्न करता है आप इस बात का अंदाज़ा इस उदाहरण के द्वारा ही लगा सकते है कि जब कोई 8 से14 साल का बच्चा जो ना तो अभी समाज के नैतिक व व्यक्तिक नियमों से परिचित है अभी उसका कोमल मन अपने अनुभवों द्वारा ये सब धीरे धीरे समझने कि कोशिश कर रहा होता है और वो अपने परिवार के साथ इस धारावाहिक रुपी बीमारी से ग्रस्त है तब कल्पना कीजिये इन सब कुचक्रों का उसके कोमल मन पर क्या प्रभाव पड़ता
होगा वो इन सब पर दिखाये गए तड़क भड़क व सामाजिक घटनाक्रमों को ही वासत्विक समाज का हिस्सा समझने लगता है और ये कई मनोवैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा सिद्ध है कि बाल्यअवस्था मे होने वाली धटनाओ व अनुभवों हमारे चरित्र के निर्माण मे एक महत्वपूर्ण रोल अदा करती है अब आप स्वयं ही कल्पना कर सकते है कि किस प्रकार ये धारावाहिक आपके व आपके बच्चो के बोद्धिक व रचनात्मक
विकास में बाधक है |

(v.k.azad)

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