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राजनीति का स्तर और कितना गिरेगा?

Shishir Ghatpande Blogs
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कभी देश के प्रधानमन्त्री को फेंकू, जुमलेबाज़, चोर यहाँ तक कि नीच कह जाता है. कभी देश के प्रधानमन्त्री के ऊपर उनकी माता-पत्नी-परिवारजन को लेकर ताने कसे जाते हैं.

कभी कोई रामज़ादे-हरामज़ादे की राजनीति करता है, कभी कोई महिला को सौ टंच माल कहता है, कभी कोई महिला को पुरानी बीवी कहता है, तो कभी कोई महिला के अंतर्वस्त्रों के रंगों तक पहुँच जाता है.
कभी कोई देश की सबसे पुरानी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को पप्पू, मन्दबुद्धि, अविकसित, पागल तक कह देता है तो कभी देश के स्वर्गीय पूर्व प्रधानमन्त्री के ऊपर तक छींटाकशी कर देता है.

कभी कोई किसी को नाचनेवाला, कभी कोई किसी को ठुमके लगाने वाली, कभी कोई किसी को नचनिया तक कह देता है तो कभी कोई किसी के नाम को बिगाड़ कर “घुँघरू सेठ, कंजड़वाल, केजड़ीवाल” इत्यादि कर देता है.
कभी चाटुकारिता की सारी सीमाएँ लाँघकर कोई ये तक कह जाता है कि आज लोग _ _ का मूत्र पीने को तैयार हैं तो कभी कोई ये कह जाता है कि पानी नहीं आ रहा तो “पेशाब” कर दूँ क्या?

कभी कोई कहता है कि “रेप तो होते ही रहते हैं”, कभी कोई कहता है कि “लड़कों से ग़लती हो जाती है” तो कभी कोई ये तक कह जाता है कि “९०% बलात्कार तो लड़की की मर्ज़ी से होते हैं”.

कभी कोई देश के प्रधानमन्त्री के “बाप” तक पहुँच जाता है तो कभी देश के प्रधानमन्त्री किसी के पूर्व प्रधानमन्त्री पिता तक.

कभी कोई किसी के समर्थकों को “भक्त” और यहाँ तक कि “वफ़ादार कुत्ते” कह जाता है तो कोई किसी के समर्थकों को “चमचे-चाटुकार-दरबारी”.

कभी कोई किसी के जाति-धर्म तक पहुँच जाता है तो कभी कोई सेना, सेना प्रमुख को बलात्कारी-सड़कछाप गुण्डा तक बोल जाता है.

ये सभी कुछ कोई और नहीं बल्कि हमारे ही द्वारा चुने गए, हमारे ही देश के जनप्रतिनिधि करते हैं. वो जनप्रतिनिधित जिनसे हम सज्जनता, सह्रदयता, कर्मठता-कर्मशीलता, सदाचार, दयालुता, ईमानदारी, विनम्रता, दूसरे के प्रति प्रेम और आदर भाव की अपेक्षा करते हैं और उन अपेक्षाओं के पूर्ण होने का अटूट विश्वास भी. लेकिन अफ़सोस कि हमारी सारी अपेक्षाओं पर कुठाराघात होता है और हमारे विश्वास के साथ विश्वासघात. और हम चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते.

ऐसा लगता है मानों लोकतन्त्र और राजनीति की गरिमा अटलजी-नरसिम्हारावजी-आडवाणीजी की राजनीति से निवृत्ति साथ ही जाती रही. अब राजनीति के मायने ईमानदारी से किये गए कार्यों और उनके आधार पर समर्थन की विनती करने से बदलकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने, कमियाँ-नाक़ामियाँ गिनाने, कोसने-भला-बुरा कहने, अभद्र-अमर्यादित भाषा और शब्दावली का प्रयोग करने इत्यादि हो गए हैं. अपने राजनैतिक आकाओं की नज़रों में आने-छाने के लिये विरोधी पक्ष और नेताओं को अधिकाधिक और अभद्रता की सारी सीमाएँ लाँघती भाषा-शब्दावली एक अहम् “योग्यता” हो चली है. यहाँ तक कि कई बार राजनैतिक आका भी इसमें कूदकर मानों प्रोत्साहन देने का “पावन” और “अनुकरणीय” कार्य करते हैं.

वाकई समझ से परे है कि राजनीति का स्तर गिर गया है या गिरे हुए स्तर के या स्तरहीन लोगों राजनीति में पदार्पण बढ़ गया है. साथ ही ये अनुमान लगाना भी मुश्किल होता जा रहा है कि इस गिरते हुए स्तर की कोई सीमा, कोई छोर, कोई अन्त है भी अथवा नहीं..

शिशिर घाटपाण्डे

मुम्बई

०९९२०४ ००११४, ०९९८७७ ७००८०

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