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(पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में 4 मार्च 1921 में जन्मे फणीश्वर नाथ रेणु ने 11 अप्रैल 1977 को पटना के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली थी। आज उनकी पुण्यतिथि है.)
“कहानी का हर पात्र उसी सड़क पर मेरा इंतजार कर रहा था। भले ही सड़कें धूल उड़ा रही थी लेकिन उस धूल में भी मेरा मन फूल खोज रहा था। औराही, तुम अब भी मेरे दिल के इकलौते राजा हो..तुम ही हो, जिससे मैं कुछ नहीं छुपाता। ये बताओ कि क्या अब भी डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र हर शाम मेरे घर के बरामदे पर आता है…”
नींद टूटती है, मैं कानपुर में अपने कमरे में खुद को पाता हूं। सुबह के तीन बज रहे हैं, तारीख 11 अप्रैल, दिन सोमवार। जोगो (योगो) काका की बात याद आई कि “भोरका सपना सच्च होए छै” (सुबह का सपना सच साबित होता है)। कथा की दुनिया रचते हुए औराही से पूर्णिया, भागलपुर, पटना, बनारस और बंबई के चक्कर लगाने के बाद, बीमार होने के बावजूद भी आत्मीयता और शब्द से रिश्ता निभाने वाले फणीश्वर नाथ रेणु आज सपने में आए। घुंघराले-लंबे बाल की चमक बरकरार थी, मोटे फ्रेम का चश्मा आज भी उनपर फिट बैठ रहा था।
आज साथ में लतिका जी भी थीं। उन्होंने मेरे घर के सभी कमरे को गौर से देखा फिर कहा- “मैं तो तुम्हारे जन्म से छह साल पहिले ही उस ‘लोक’ चला गया था, फिर तुम्हें बार-बार मेरी याद क्यों आती है ? ” लतिका जी मुस्कुरा रही थीं। कुर्ता और धोती की सफेदी देखकर मैं उनके मन में गांव की तस्वीर देखने लगा।
वे सन 60 के पूर्णिया का जिक्र करने लगे, पूर्णिया तो बस मुझे बहाना लगा, मैं उनकी बातों में हिंदुस्तान देख रहा था। लतिका जी ने रेणु को टोका, “ अरे क्या हो गया आपको, मुल्क बदल गया है। जिसके घर आए हैं, यह नई पीढि है, आपनेर जानि न कि…तुमीं बोका-मानुष…। आप बार-बार विषयांतर हो रहे हैं…।” लेकिन रेणु चुप नहीं हो रहे थे। रेणु ने लतिका जी को पुचकारते हुए कहा- “अब चुप भी रहो, लतिका। अब तो तुम भी आ गई हो मेरे पास। मैं अब तुम्हें ज्यादा वक्त दूंगा। लेकिन आज थोड़ा इससे बात करने दो…अपने जिले का है, देखते नहीं हर कमरे से माटी की गंध आ रही है। “
वे मुझे कविता- कहानियों से ऊपर ले जा रहे थे, मानो एक शहर, एक गांव, एक कस्बा, एक टोला सबकुछ एक मोहल्ला बनकर मेरे घर में आ गया हो। मुझे पता था कि उन्हें लपचू चाय (दार्जलिंग की चाय) पसंद है और लंबी बातचीत के दौरान उन्हें यही चाय चाहिए, लेकिन कल सुबह ही वह चायपत्ती खत्म हो गई थी। लपचू के सब्सट्यूट के रूप में मेरे पास लिप्टन का ग्रीन लेवल था, मैंने अपने हाथों से फटाफट चाय बनाई। चाय पीते हुए मैं रेणु का चेहरा देख रहा था। उन्होंने आखें मूंदकर चाय की चुस्की ली और उनकी जुबां से बरबरस निकल पड़ा- इस्ससस…। वे मुझे चाय के अलग-अलग किस्मों के बारे में बताने लगे। उन्होंने बताया कि एक बार मुंबई में उन्होंने लोटे में चाय बनाई थी और राजकपूर को भी पिलाया था।
रेणु आज मेरे लिए कथादेश रच रहे थे। मैंने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए पूछा- “ आज धोती-कुर्ता तो धक-धक-चक-चक सफेद लग रहा है,” तो उन्होंने लतिका जी की ओर इशारा कर दिया। उन्होंने कहा, ये मेरी ‘अहिंसा लॉउंड्री’ हैं। हंसते हुए वे ये टिप्पणी कस रहे थे। मुझे उनकी एक कविता याद आ रही थी-
‘ सुना है जाँच होगी मामले की?’ -पूछते हैं सब
ज़रा गम्भीर होकर, मुँह बनाकर बुदबुदाता हूँ!
मुझे मालूम हैं कुछ गुर निराले दाग धोने के,
‘अंहिसा लाउंड्री’ में रोज़ मैं कपड़े धुलाता हूँ।
चाय को वे अमृत कह रहे थे। लतिका जी ने कहा कि उनकी कुछ बड़ी कमजोरी में एक नाम चाय का भी है। मैंने छेड़ने के अंदाज में पूछा और कौन सी कमजोरी है रेणु की, तो उन्होंने कहा- इसपे भी वे कहानी लिख सकते हैं, तुमी रेणु के जानि पारबो न। मैंने कहा-अब तो आप उनके साथ उस ‘लोक’ में पहुंच गई हैं, गुजारिश कीजिएगा तो वे लिख देंगे।
तभी रेणु ने चाय की प्याली टेबल पे रखते हुए कहा- क्या बोले, मैं कमजोर कहानी लिखूंगा…। फिर हम सब चहचहाकर हंस पड़े। उन्होंने मुझे जार्ज बनार्ड शॉ के बारे में बताया। रेणु उन्हें जीबीएस कह रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस तरह तुम लोग ब्लॉग पर अपने बारे में लिखते हो न, वैसी मेरी भी इच्छा है लेकिन “अपने बारे में जब कभी कुछ लिखना चाहा- जीबीएस की मूर्ति उभरकर सामने खड़ी हो जाती, आंखों में व्यंग्य और दाढ़ी में एक भेदभरी मुस्कुराहट लेकर, और कलम रूक जाती। अपने बारे में सही-सही कुछ भी लिखना संभव नहीं। कोई भी लिख भी नहीं सकता। तुमलोग अपने प्रोफाइल में खुद से कैसे लिखते हो ? ”
आज रेणु को डॉक्टर प्रशांत और जितेंद्र सबसे अधिक याद आ रहे थे और मुझे कोसी। इसी बीच सोफे के दूसरे कोने में लतिका जी मेरी पत्नी को दुनियादारी समझाने में जुट गई थीं। वे संबंधों की प्रगाढता पर बातें कर रही थीं। रेणु की ओर चेहरा घुमाते हुए लतिका जी ने कहा- ‘’अब सोचती हूँ तो लगता है, अब से 33 वर्ष पहले मृत्यु के कगार पर खड़े इसी मरीज को मैंने देखा था। उसकी सेवा की थी। सेवा करते-करते यह मरीज कब मेरा डॉक्टर बन गया, मुझे पता भी नहीं चला। हमने कभी अपने बीच स्पेस को जगह नहीं दी। दूरियां भी हमारे लिए जगह बनाती चली गई।
रेणु ने खिड़की के बाहर देखा, आसमान में अंतिम तारा सुबह के लिए व्याकुल हुए जा रहा था। चिड़ियों की हल्की चहचहाट सुनाई देने लगी थी। लतिका जी को उन्होंने कहा, “ चलना है कि नहीं।“ विदा होने की बात सुनकर मेरी आंखें गिली हो गई थी। रेणु ने डपटते हुए कहा- “ क्या यार तुम भी.. वैसे अबकी बार जब प्राणपुर जाना तो जितन से पूछना कि क्या सचमुच सुराज आ गया है वहां..? विदापत नाच का ठिठर मंडल के घर चुल्हा जलता है कि नहीं..”?
मैं टकटकी लगाए ‘लतिका-रेणु’ को देखने लगा। मेरा जुलाहा मेरे घर आया था। मैं अपने शबद-योगी को देख रहा था। जिस तरह मैला आंचल में डॉक्टर प्रशांत ममता की ओर देखता है न, ठीक वही हाल मेरा था। मैं भी एकटक अपने ‘ममता’ को देख रहा था, – विशाल मैदान!… वंध्या धरती!… यही है वह मशहूर मैदान – नेपाल से शुरु होकर गंगा किनारे तक – वीरान, धूमिल अंचल. मैदान की सूखी हुई दूबों में चरवाहों ने आग लगा दी है – पंक्तिबद्ध दीपों – जैसी लगती है दूर से. तड़बन्ना के ताड़ों की फुगनी पर डूबते सूरज की लाली क्रमश: मटमैली हो रही है…यह सबकुछ मुझे रेणु के ललाट पर दिख रहा था।
हमने रेणु को अलविदा कहा, पत्नी बुज़ुर्गों को आदर देने के आदतन उनके पांव की ओर बढ़ी। रेणु ने उसे झुकने से पहले ही रोक लिया, जेब में हाथ डालकर कुछ नोट निकाले और उसके हाथ में थमा दिया। लगा मानो वे मौद्रिक आशीर्वाद की परंपरा निबाह रहे हैं…. और फिर दोनों निकल पड़े उस ‘लोक’.. और मैं इस लोक में…
( 11 अप्रैल 1977, रात साढ़े नौ बजे, रेणु उस ‘लोक’ चले गए, अब लतिका जी भी वहीं रहती हैं )
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