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जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश का चुनाव नजदीक आता जा रहा है। वैसे-वैसे सभी राजनीतिक पार्टीयाँ अपने-अपने पत्ते फेंटना और चाल चलना शुरु कर चुकी हैं। शुरु-शुरु में इनमें से सबसे पहले दिलचस्प बातें कांग्रेस पार्टी में देखने को मिली क्योंकि राजनीतिक हलकों में-कंसल्टेंट के रूप में खुद को स्थापित कर चुके प्रशंत किशोर ने प्रियंका गाँधी को डत्तर प्रदेश की राजनीति मे आने की सलाह दे डाली। मौजूदा दौर में कांग्रेस पर्टी प्रदेश में नीश्चित रूप से चैथे नंम्बर पर खड़ी दिखई देने के साथ ही साथ उसे एक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी प्राप्त है। वर्तमान समय में कांग्रेस पर्टी ने अपने उत्तर प्रदेश के चुनाव में उतरने से पहले अपने चुनावी चेहरों पर से पर्दा हटाते हुए अपने एक बुजुर्ग नेता शीला दीक्षित’ को उत्तर प्रदेश की भावी मुख्यमंत्री के रूप मे लाकर सब लोगों को चैंका अवश्य दिया है जहाँ एक बार ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस पार्टी प्रियंका गाँधी को आगे लाने का मन बना रही है लेकिन ऐसा हुआ नही ऐसा आभास होता है कि प्रियंका गाँधी को आने वाले अन्य अवसरो के लिए बचाकर रखा गया है। यह तो आने वाला भविष्य ही तय करेगा कि वह अवसर आएगा भी या नही। कांग्रेस पार्टी की ओर से सीएम उम्मीदवार बनाए जाने के बाद शीला दीक्षित ने बताया कि उत्तर प्रदेश में बहुत बड़ी चुनौती है। उन्होंने ऐसा विश्वास जताया कि आने वाले दिनो में इस फैसले का अच्छा परिणाम सबके सामने आएगा। कांग्रेस पार्टी अपने अंदूरूनी गुटबाजी के दौर से गुजर रही है महीने भर की मशक्कत के बाद आखिरकार कांग्रेस ने यूपी में मुख्यमंत्री पद के लिए एक नया चेहरा तलाश कर ही लिया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जर्नादन द्विवेदी और गुलाम नबी आजाद ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इसकी औपचारिक घोषणा भी की। जहाँ संजय सिंह को उत्तर प्रदेश में प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया, वहीं आरपीएन सिंह को उपाध्यक्ष बनाया गया। उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव होने है। इस हाल मे उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी उनको कितना स्वीकार कर पाते हैं। यह लगभग स्पष्ट है, हालाँकि जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी बनाया गया है। इस बात पर दोराय नहीं है कि कांग्रेस मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरण को भरपूर साधने की कोशिश की है। लेकिन क्या वास्तव में उत्तर प्रदेश के ब्रह्मण शीला दीक्षित को अपना चेहरा मानने को तैयार होगें। भारत का पारंपरिक वोट बैंक ब्राह्मण समुदाय मंदिर-मंडल की राजनीति के बाद भाजपा की ओर खिसक गया था ऐसे मे पार्टी के कुछ-एक लोगों का ऐसा भी मानना है कि उसे इस समुदाय का समर्थन दोबारा हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए। ब्राह्मण मतों का एक बड़ा हिस्सा पूर्व में बसपा के मायावती के पास चला गया था। राजनीतिक फायदा हो या नही यह एक अलग मुद्दा है। लेकिन जैसा की राजनीति सलाहकार ने शीला दीक्षित को यूपी के लिए सटीक उम्मीदवार माना है। इन सबके अलावा दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में उनका तजुर्बा उत्तर प्रदेश के लोगों को भी लाभान्वित कर सकता है, जो अपने राज्य के पिछड़पन से दुःखी हैं। शीला दीक्षित का उत्तर प्रदेश से पुराना नाता है, वह कांग्रेस के एक बड़े नेता उमाशंकर दीक्षित की बहु होने के साथ ही साथ कन्नौज जिले से वर्ष 1984 में सांाद भी रह चुकी हैं। शीला दीक्षित 15 वर्षो लगातार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं और राजीव गांधी की सरकार में भी उन्होंने संसदीय राज्य मंत्री और पीएमओ में राज्य मंत्री का जिम्मा संभाला। उन्हें राजनीतिक तालमेल का पूरा अनुभव जरूर है लेकिन भ्रष्टाचार के प्रति दिल्ली के लोगों के रोष का फायदा उठाते हुए एक नयी इनी आम आदमी पार्टी ने दिल्ली से शीला दीक्षित का पत्ता साफ कर दिया। उस छवि से उत्तर प्रदेश में विरोधी दल के लोग कांग्रेस को घेरने की कोशिश अवश्य करेंगे इन सब के अलावा इतने लंम्बे समय के बाद वह कांग्रेस के सबसे बुरे समय मे उनके आने से शायद ही पुरानी विश्वसनियता हासलि करने में कामियाव हों।
ऐसे मे यूपी की राजनीति में शीला की राहों मे रोड़े कम नही है वल्कि उनके सामने सपा की तरफ से वर्तमान सीएम एक बहुत बड़े पत्थर हैं अखिलेश यादव के रूप मे मजबूत और युवा चेहरा हैं तो दूसरी तरफ बसपा की तरफ से मायावती जैसी मजबूत जनाधार और धुरंधर पूर्व मुख्यमंत्री सामने होगीं। उत्तर प्रदेश के चुनाव में बराबर की दखल रखने वाली बीजेपी भी आगामी वर्ष 2017 में होने वाले चुनाव को ध्यान में रखकर हर दावं इस्तेमाल कर रही है। कहीं हो न हो अपनी हार से शशंकित उन्हें ‘बलि के बकरे’ के रूप में उनका इस्तेमाल किया गया है। वहीं राजबब्बर राजनीतिक हलकों में इतने चतुर और पारंगत नही हैं, हालांकि वह विपक्षियों का फ्रंटफुट पर आकर विरोध अवश्य करते हैं। राजबब्बर कांग्रेस मे आने से पहले सपा से दो बार सांसद जरूर रह चुके हैं, लेकिन भाजपा और संघ का मजबूत कैडर शायद ही कांग्रेस को लाभ उठाने का मौका दें।
हालाँकि भाजपा वर्तमान समय इस मुद्दे पर बचती नजर आ रही है। लेकिन वह अन्दर ही अन्दर अपनी तैयारी मे जुटी हुई है। इसी क्रम में वह अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल को अपने मंत्रिमंडल में स्थान देकर केंद्रीय माहौल को गर्मा दिया है चूंकि अपना दल में, अब दो फाड़ हो जाने से जहाँ एकतरफ अनुप्रिया पटेल है तो दूसरी तरफ उनकी माँ कृष्णा पटेल हैं। दूसरी तरफ बिहार के नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक छवि को राष्ट्रीय नेता के रूप में बनाने मे लगे हुए हैं इस परिदृष्य मे बिहार के चुनाव में नीतीश को मिली सफलता को शायद ही उत्तर प्रदेश मे भुना पाएं। चूंकि वे उत्तर प्रदेश में अकेले ही पड़ते नजर आ रहे हैं, क्योंकि उनकी एक सहयोगी पार्टी कांग्रेस ने पहले ही घोषण कर चुकि है कि वह उत्तर प्रदेश में अकेले ही दमपर चुनाव मे उतरेगी। जहाँ तक लालू यादव की बात है वे उत्तर प्रदेश के चुनाव मे कोई दिलचस्पी नही दिखा रहें हैं इसमे इस बातका अनुमान लगाया जा रहा हैं कि शायद मुलायम के घर अपनी बेटी की व्याह करने के कारण लालू हिचकिचाहट में पड़ गये हैं। इन उबके अतिरिक्त अजीत सिंह की पार्टी का जदयू में विलय को टालने की बजह से नीतीश जोरदार झटका अवश्य लगा होगा। जहाँतक बात पीसपार्टी की करें तो वह नीतीश के साथ है और गुजरात के नये उभरते युवा नेता हार्दिक पटेल के द्वारा इस पार्टी के प्रचार की खबर है लेकिन यह सब ‘वोट की राजनीति से ज्यादा राजनीतिक चर्चा प्रतीत हो रही है इसके उलट यदि हम उत्तर प्रदेश में चुनावी समीकरणों की बात करें बसपा की सम्भावनाएं अधिक अच्छी नज़र आ रही है। पार्टी अपने दमखम से आने वाले चुनाव की तैयारी में लगी हुई है। भले ही मौजूदा दौर में इस पार्टी से कुछ एक कदवार नेताओं के पार्टी छोड़ चले जाने से पार्टी दबाव मे निश्चित रूप से हैं, लेकिन मायावती के आगे उनका वोटर दूसरे कीसी को पहचानता भी नही है। इसके उलट यह बात भी उतना ही सच है कि उत्तर प्रदेश की सरकार की कुछएक नाकामी का लाभ सीधे बासपा को जरूर मिलेगा इस बात में दोराय नही है कि दूसरे नंम्बर पर अखिलेश यादव अपनी सरकार के काम काज का वौयरा आये दिन समाचार पत्रो के माध्यम से लोगों के सामने लाने का प्रयास कर रही है यदि हम सच्चे अर्थो मे ईमानदारी के साथ कहें तो कानून व्यवस्था के मोर्चे को छोड़ कर अवशेष सभी तरह के मोर्चे पर अखिलेश सरकार बेहतर काम किया है।
यदि उत्तर प्रदेश मे गुलाम नबी आजाद किसी भी तरह से 50 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल कर लेते हैं तो ऐसे में कांग्रेस एक बार ‘किंगमेकर की भूमिका में जरूर नजर आ सकती हैं अब जहाँ तक भाजपा का सवाल है तो इसमे हम कहसकते हैं कि पिछले एक वर्ष से मुख्यमंत्री पद के लिए इनके नेता आपस मे ही मारामारी कर रहें हैं। और अब इसे लेकर भाजपा उहापोह की स्थिति मे खड़ी नजर आ रही है। अब यह देखना ज्यादा दिलचस्प होगा कि सपा0 बासपा0 कांग्रेस के बाद अब भाजपा अपने पत्ते कब खोलती भी है या सिधे चुनाव मे ही उतर जाती है अभी यह आगे देखने को मिलेगा।
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