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चुनाव वर्ष 2017 एक चुनावी चेहरा

हमारा समाज (OUR SOCIETY)
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चुनाव वर्ष 2017 एक चुनावी चेहरा
जैसे-जैसे उत्तर प्रदेश में चुनावी वर्ष 2017 नजदिक आता जा रहा है, वैसे-वैसे चुनावी सरगर्मीयां तेज होना शुरू हो चुकी है। जैसा की कुछ राजनीतिक पंडितों ने चुनावी हवाओं का पूर्वानुमान कर पहले से यह दावा करने या पूर्वानुमानो को धारदार बनाने में लग गए हैं, कि इस बार पुराने इतिहास को दोहराते हुए पुनः एक बार फिर मायावती सत्ता में वापसी कर सकती हैं। इन बदली हुई परिस्थितियों में भाजपा से लेकर बासपा तक की दिग्गज पार्टीयां अपने-अपने चुनावी जोड़-घटाव में लग गए हैं। वास्तव में कहा जाये तो कुछ ही दिनो पहले यह भविष्यवाणी नही की जा सकती है, और न ही अभी भी की जा सकती है कि बीएसपी पुनः सत्ता में एक बार वापस लौटेगी भी या नही, लेकिन अभी-अभी हाल ही में भाजपा के एक मंत्री दयाशंकर के द्वारा मायावती पर किये गए अभद्र टिप्पणी को लेकर उत्तर प्रदेश मे एक बार फिर से राजनीतिक माहौल गरमा जाने और फिर मायावती के पक्ष में कई एक पार्टीयों के लोगों द्वारा भर्त्सना किये जाने के बाद कई विपक्षी नेताओं ने इसकी खुल कर विरोध भी किया जिस कारण वर्तमान राजनिती मे एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगने-लगाने दौर शुरु जरुर हुआ लेकिन वर्तमान समय में किन्हीं कारणो से कुछ सुस्त अवश्य हुआ है।
यदि हम अभी तक के सभी चुनावी पंडितो के आकंलनो एवं अनुमानो से अलग हट कर इस राज्य की जमीनी हकीकत को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाता है कि इस बार के चुनावी लड़ाई में बिल्कुल खुली चुनौती होगी। यहाँ एक बात मुख्यतः अवश्य स्पष्ट हो चुका है कि स्वामी प्रसाद मौर्य और आर.के.चौधरी जैसे बासपा के दिग्गज नेताओ द्वारा पार्टी छोड़ने के बाद से ऐसा कहीं से भी नजर नहीं आरहा है कि बीएसपी की लड़ाई किसी भी तरह से कमजोर हुई है। वल्कि इसके उलट यह अभी तक यह जरुर कहा जा सकता है कि मायावती मौजूदा चुनावी लड़ाई में पहले से भी कहीं और ज्यादा मजबूती के साथ खड़ी दिखाई दे रही हैं, लेकिन वहीं पर समाजवादी पार्टी और बीजेपी भी अपनी पूरी ताकत से इस चुनावी मैदान में डटे रहने के प्रयास में लगे हुए हैं। जो राजनीतिक पंडित पहले से ही बीएसपी को जिताते नजर आ रहे थे वे अब स्वामी प्रसाद मौर्य व आर.के.चौधरी के पार्टी छोड़ कर चले जाने और फिर भाजपा में शामील हो जाने के बाद बीएसपी को खारिज करते हुए नजर आ रहे हैं। लेकिन ऐसे लोगों को पूर्व के इतिहास के साथ ही साथ इस राज्य की जमीनी हकीकत को भी बहुत गौर से देखना और समझना पड़ेगा।
बहुजन समाज पार्टी को इस तरह के संकटो से मुकाबला करने का कोई पहली बार तजुर्बा नही हो रहा है। वल्कि इस पार्टी से पहले भी कई एक बड़े-बड़े नेताओं ने पार्टी से नाता तोड़ते हुए चले जाना और पार्टी में टूट-फूट उसके स्वभाव व चरित्र में रमा-बसा है। इससे पहले भी इस पार्टी से रामलखन वर्मा, दीनानाथ भाष्कर, राजबहादुर, चौधरी नरेन्द्र सिंह, बाबूसिंह कुशवाहा और दददू प्रसाद जैसे नेताओं ने बगावत कर पार्टी से नाता अवश्य तोड़ चुके हैं, लेकिन इनमें से कई एक नेताओं ने अपने-अपने दल एवं मंच भी खड़े कर लिए हैं, लेकिन ऐसे नेताओं के पार्टी छोड़ कर चले जाने के बाद अभी तक बीएसपी पार्टी की सेहत पर कोई प्रभाव पड़ता हुआ नजर नही आ रहा है। यहाँ यह बात जरुर है कि पार्टी से अलग हुए नेताओं ने अपनी पहचान बनाये रखने की जगह धिरे-धिरे अपना पहचान खोते हुए विराने में जरुर चले गये हैं। यदि हम इस पार्टी के विगत गुजरे हुए दिनो को देखें तो हमे यह पाता चलेगा कि बीएसपी पार्टी में जब-जब टूट-फूट हुई तब-तब पार्टी पहले से कहीं और ज्यादा ताकतवर बनकर उभरी है।
वर्तमान समय मे इस पार्टी के जिन नेताओं द्वारा इसे छोड़ कर भाजपा में शामील हुए हैं यह कहाँ तक उनके लिए उचित एवं लाभकारी रहेगा, यह तो आगे वक्त ही बताएगा लेकिन वास्तव में स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेतागण जो आज भाजपा में शामील हो कर अपने को बहुत खुशहाल समझ रहे हैं ऐसे नेताओं का भविष्य राजनीतिक मर्मज्ञों को बारीकि से समझने वाले लोग इसे अपने पैरो पर ही कुलाड़ी चलाने जैसी बाते मान रहें हैं, लेकिन यह अलग बात है कि इसके विपरीत भी कुछ ऐसे समीकरण हैं जिसकी बजह से यह कहाना उचित नही लगता है कि बीएसपी कहीं न कहीं कमजोर हुई है। लेकिन बीएसपी पार्टी में केवल मायावती एक ही व्यक्तित्व खुख्य पर्दे पर सामने रहने के कारण इससे पहले वर्ष 2007 में बीएसपी सुप्रीमो मायावती दलितों, हरिजनो के अलावा अपने ही लोगों के बीच यह कहते हुए दिखई पड़ती थीं कि वह दलितों व पिछड़ों का पूरी तरह विकास इसलिए नहीं कर पायीं थी, क्योंकि उन्हें हर बार बीजेपी के सहयोग से ही सरकार चलानी पड़ी जबकि यह पार्टी इन वर्गों के लोगों की कट्टर दुश्मन हैं। जिस भी दिन उनकी पार्टी अपनी पूर्ण बहुमत की सरकार बनानायेगी, उसी दिन वह इन वर्गो के लोगों का कायाकल्प कर देंगी। जबकी उनके समर्थकों ने इससे पूर्व में यह देखा अवश्य था कि इस दौरान सत्ता एवं धन का खुलकर दुरपयोग करने का ऐसा खेल चला कि थानों पर शिकायत करने आए कमजोर वर्ग के ही लोगों को वहाँ से खदेड़ दिया जाता था और वे लोग जो इससे पहले इस वर्ग के लोगों को सताते रहें ऐसे ही लोग पैसे के बल पर और ज्यादा मान सम्मान पाने लगे। इन सब के अतीरिक्त सरकारी भर्तियों में भी धन का बेहिसाब खुला खेल चला। गाँवो में सफाई कर्मचारीयों की भर्ती कि गई, लेकिन उसमें उन वर्ग के लोगों को ही कम जगह दि गई जो कई सदियों से दूसरों के मैला ढोने के लिए मजबूर थे। इस खेल में बहुत सारे सवर्ण जाती और पिछड़े वर्ग के लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हुए सफाई कर्मचारी बन गए। इन सबो के अलावा बहनजी 2012 में लोगों को यह बताने में भी असफल रहीं कि दलितों एवं पिछड़ों के उत्थान के लिए उन्होने जमीनी स्तर पर कौन-कौन से काम किए जिससे गरीब तबके के लोगों का भला हुआ।
वर्ष 2012 के बाद बीएसपी पूरे देश में कहीं एक जगह पर भी अपने सफलता के झंडे न गाढ़ सकी। जबकि वर्ष 2014 में हुए लोकसभा का चुनाव होने से पहले से ही स्वामी प्रसाद मौर्य और आर.के.चौधरी जैसे नेताओं ने पार्टी में होने के बावजूद पार्टी को एक भी सीट पर सफलता क्यों नहीं मिल पाई? मध्य प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, हरियाणा और दिल्ली के विधानसभा चुनावों में उसका तो खाता तक नही खुला पाया? यहाँ यह प्रश्न उठना लाजमि है कि बीएसपी को ऐसी दुर्दशा का मुंह क्यों देखना पड़ा? जबकि स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे दिग्गज नेता लोग सभी इन राज्यों में पार्टी को जितवाने में लगे हुए थे वास्तव में यदि जनता के सपने टूटते हैं तो सत्ता के बड़े-बड़े महल भी ताश के पत्तों की तरह विखर जाते हैं। मायावती के साथ भी यही हुआ कि वर्ष 2007 से लेकर वर्ष 2012 तक के मायावती का शासन काल खुद उनके लिए अभिशाप बन गया। लेकिन वर्तमान समय बदली हुई परिस्थीतियों मे यह देखना लाजमी होगा कि जनता उनके वादे पर कितना विश्वास कर पाती है। अगर इस बार बीएसपी सत्ता मे आने से चूक जाती है, तब यही कहना पड़ेगा कि पिछली सरकार में उनके द्वारा किए गए उनके काम ही इसके लिए पुरी तरह जिम्मेदार हैं न की स्वामी प्रसाद मौर्य और आर.के.चौधरी जैसे लोग, जो हवाओं का रुख मोड़ देने के दावे करने से नहीं चूकते थे।

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