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उदर विकार पर चेहरे की सर्जरी

gopal agarwal
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उदर विकार पर चेहरे की सर्जरी
“लोकतन्त्र” कोई एक वैज्ञानिक की खोज का परिणाम नहीं है वरन् हजारों वर्षों में अनगिनत विद्वानों के विचार मंथन से विकसित सुशासन व्यवस्था की प्रक्रिया है। समय गति के साथ लोकतन्त्र में भी निरन्तर सुधारों की समय के अनुसार गुंजाइस बनती रहेगी। पृथ्वी पर जब तक जीवन है परिवर्तन की मांग निरंतर चलती रहेगी।
दुर्भाग्य से वर्तमान में लोकतन्त्र को व्यस्क मताधिकार की राजनीति मात्र समझ कर इसमे विकास की प्रक्रिया को जड़ कर दिया गया है। व्यवस्था केवल चुनाव नहीं वरन् भूमण्डल के प्रत्येक जीव-निर्जीव के कण-कण को सुव्यवस्था के सूत्र में पिरोने का नाम राजनीति है।
व्यवस्था को परिभाषित करने में देश काल की घटनाओं को नहीं जोड़ेगे तो सभ्यता के विकास से विनाश की ओर अग्रसरित होगें।
ताजा घटना मेरठ की है। पहले अवैध निर्माण हुआ जिसकी बन्दरबांट के सबसे बड़ा हिस्सा भारत सरकार के सैन्य मंत्रालय के अन्तर्गत आने वाले सम्पति के रखवालों को मिला। घटना के समय केन्द्र में किसकी सरकार थी उनके जुमले या दावे क्या है? इस पर अभी चर्चा करना मामले में उबासी भर देगा परन्तु भवनों के निर्माणधीन काल में भारत के प्रत्येक राजनीतिक दल ने केबीनेट में पृथक-पृथक सामूहिक उतरदायित्व की भूमिका निभायी थी। पुलिस का सीधा विषय नहीं है परन्तु उनके सहयोग के बिना निर्माणधीन भवन में रखे तसले-फावड़े जब्त हो जायेंगे। हमारे जागरूक भाई भी बहती नदी {गंगा धोने के लिए नहीं है} में हाथ धोने में बुराई नहीं समझते। फिर विज्ञापन प्रकाशित होते और कक्षों की बुकिंग हो जाती है। खरीददार को मालूम है कि प्रश्नगत भवन अवैध है फिर भी देश में कोई भवन इसलिए बिकने से नहीं रूका कि वह अवैध निर्माण है।
गिराने के आदेश पर कोई विवेचना उचित नहीं है परन्तु गिराते समय जिस विभाग की नाक के तले वह भवन है उसको शासित करने वाली सरकार उन अधिकारीयों की सूची अवश्य मंगा ले जिनकी तैनाती के समय अवैध निर्माण हुआ।
यदि हमारी व्यवस्था भ्रष्ट व्यक्तियों को सहारा देती है तो लोकतन्त्र में कमी है। हम समान अधिकार के सिद्धान्त की अवेहलना कर रहे हैं जहाँ उसी लोकतन्त्रीय व्यवस्था द्वारा बनाए गये नियमों की धज्जियाँ चिदड़ी-चिदड़ी कर व्यवस्थापालक अधिकारी हवा में उड़ा रहे हैं।
अदालत के आदेश के हथौड़े की आवाज जब शासन के गलियारे में गूँजी तो माननीयों से लेकर साहबों तक की निद्रा में उचाट हुआ। एैसा लगा कि बहुमंजलि इमारत रातों-रात किसी दानव ने खड़ी कर दी है और प्रात: अवैध निर्माण दृष्टिगोचर होते ही “गिरवायो-गिरवायो” का शोर गूँजने लगा।
भवन गिरवाते वक्त वही अधिकारी खड़े होकर गिराने का निर्देश दे रहे थे जिन्होंने बनवाने की सुपारी ली हुई थी। एैसा घिनौना अत्याचार जैसे पिता अपनी अवैध संतान की ओर स्वंम तर्जनी कर रहा हो। हमारी नियामवली इतनी खोखली कि निर्माण के समय तैनात अधिकारीयों की सम्पति से हर्जाना न वसूल सके और हमारी पंचायत इतनी दब्बू कि जो जन्म ले गया उसे आँखों के सामने मरते देखे। क्यों नहीं सबसे बड़ी पंचायत में जाकर कह देते कि जो हो गया सो हो गया आगे एक ईंट या एक चुटकी सीमेंट भी अवैध ढंग से लगे तो निगरानी के लिए तैनात अधिकारी जेल में होगें।
भाषणों में दिल शेर है पर इच्छा शक्ति में कमी है। इसलिए अवैध निर्माण का सिलसिला भारत के प्रत्येक भाग पर निरन्तर दशकों से चला आ रहा है।
10 अप्रैल 2006 को घटित विक्टोरिया पार्क अग्निकांड अच्छी तरह याद है। पुनर्वृति न हो इसलिए दो-दो आयोग बैठाये गये। जस्टिस ओ.पी. गर्ग आयोग का मुझे ध्यान है। बड़े आयोजन के लिए सटीक व्यवस्था की गाइड लाइनें सुझाई गयी थीं परन्तु चर्चा के बिन्दु अधिकारीयों को सजा देने या न देने तक सिमट गये।
अतिक्रमण या अवैध निर्माण कोई विमान हादसा या बिजली गिरने की घटना नहीं जो मानव नियन्त्रण के बाहर की शक्ति के कारण घटित हुई परन्तु अवैध निर्माण के समय हम उदर में हो रहे विकार की खट्टी डकारों की तरह अनुभव कर रहे होते हैं। यह अवैध निर्माण कोख में छिप कर पल-बढ़ रहा नहीं होता वरन् खुले आकाश और चलती सड़क पर रोज लाखों आँखों में किरमिई की तरह चुमता रहता है। समाजिक व्यवस्था के पेरोकार तो तब बुलडोजर लेकर दौड़ते हैं जब कानून के हाथ किसी के चेहरे पर पहुँच कर खरोंचे बना देते हैं।
यह सवाल उठता रहेगा कि यह कब तक चलता रहेगा? हमारी कानून बनाने वाली पंचायतें लोकतन्त्र के उदर में उठ रहे नाना प्रकार के विकारों को समझने में अंजान है या ध्यान नहीं देना चाहतीं। यदि संसद व विधान सभाएँ उदर पर कान लगा कर अन्दर की गुड़गुड़ाहट को सुन सकती होती तो कानून को चेहरे की तरफ ऊँगली उठाने की आवश्यकता ही न पड़ती।

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