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जन प्रतिनिधि व शिक्षा का सबंध
शिक्षा अति अनिवार्य है। संविधान बनाते समय भी शिक्षा व स्वास्थ्य को अध्याय चार में राज्य के लिए दिशा निर्देश सिद्धान्तों में रखा गया था। उस समय संसाधनों की कमी के कारण कहा गया कि इन्हें जनता के नि:शुल्क मौलिक अधिकारों में रखा जाय तथा भविष्य में यह नीति निर्धारण के अनिवार्य सूत्र बनेंगे।
परन्तु संविधान में उल्लखित निर्देशों के अनुपालन में सरकार चाहे किसी भी कारण से, असफल रही अन्यथा राष्ट्र की शीर्ष अदालत को इस पर टिप्पणी नहीं करनी पड़ती।
इसके विपरित स्वतन्त्रता प्राप्ती से अब तक शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र मे निजी संस्थान मजबूत हुए। गरीबी की मजबूरी या गांवों में निजी सेवा मुहैया न होने के कारण सरकारी सेवा का जैसा भी है, जनता लाभ ले रही है। उत्तर प्रदेश में अवश्य मुफत पढ़ाई, मुफत दवाई अभियान पर कार्य हो रहा है। जहां कार्य हो रहा है, हमें ईमानदारी से स्वीकार कर लेना चाहिए।
दस वर्ष पूर्व सूचना के अधिकार के अन्तर्गत मैंने भारत के सभी प्रधानमंत्रीयों की शैक्षणिक योग्यता की सूचना मांगी थी। प्र.म.क. {प्रधानमंत्री कार्यालय} ने उत्तर शायद यह सोच कर नहीं दिया कि भारत के विलक्षण व प्रतिष्ठित प्रधानमंत्रीयों में गैर स्नातक भी रहे हैं। यद्यपि उत्तर मेरे पास था फिर भी प्रमाणिकता से अपनी बात रखने के लिए मैं प्र.म.क. से पत्र चाहता था। मेरा अभिप्राय मजाक उड़ाना नहीं वरन् यह सार्वजनिक करना था कि बहुत मजबूत व अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के हमारे प्रधानमंत्रीयों में गैर स्नातक रहे हैं। शिक्षा अपनी जगह है तथा ज्ञान व अनुभव अपनी जगह है। व्यवहारिक तौर-तरीकों में ज्ञानी होना शिक्षा से बहुत ऊपर है। एक स्थान पर आकर शिक्षा गौण हो जाती है। हमने पढ़ाई आरम्भ करने के समय से ही कबीरदास को सदैव अध्याय संख्या एक पर ही पढ़ा। वर्तमान राजनीति में भी हम अनेकों ऐसे नेताओं व सांसदों को जानते है जिनकी परम्परागत शिक्षण काल बहुत छोटा रहा परन्तु राष्ट्रीय मंच पर उनकी अनदेखी नहीं हो सकती। एक भारतीय को ही एशिया के सबसे बड़े मजदूर नेता का सम्मान प्राप्त है। ये स्नातक नहीं हैं। स्व. के. कामराज व सरदार हरीकिशन सिंह सुरजीत की स्कूलिंग पूरी न करने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति, राष्ट्र विकास व अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर बड़ा स्थान रहा है। स्व. श्री मधु लिमये की हिंदी, अग्रेंजी व मराठी भाषा में लिखी पुस्तकों से प्राप्त ज्ञान पर अनुसंधान कर अंधेरे में गुम हो रही राजनीति दिशा को खोजा जा सकता है जबकि श्री मधु लिमये की पढ़ाई स्कूलिंग के बाद राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने के कारण छूट चुकी थी।
कांग्रेस के नेता मणिशंकर अययर का कथन तर्कपूर्ण है कि राज्य की विधान मंडलों के सदस्य, संसद के सदस्य, मंत्री बिना शैक्षणिक योग्यता के बनाए जा सकते हैं तो ग्राम प्रधान के लिए न्यूनतम शिक्षा का विधान क्यों रखा जाय?
एक स्नातक सिपाही होता है दूसरा आई.पी.एस., शैक्षाणिक योग्यता में समकक्ष होने के उपरान्त भी दोनों के सामान्य ज्ञान में अन्तर हो सकता है। एक सरकारी संस्थान के अध्यक्ष से जब मैं मिलने गया तो उस समय वहां चपरासीयों के लिए साक्षात्कार चल रहा था। उन्होंने बैठा लिया मुझे बताया गया कि साक्षात्कार के लिए परास्नातक व शोध छात्र भी उम्मीदवार हैं।
संस्था के अध्यक्ष उनसे राज्य का भूगोल व राष्ट्र गति के विषय में प्रश्नन कर रहे थे। अधिकांश प्रत्याशी निरूत्तर थे। मैंने क्षमायाचना के साथ संस्थान अध्यक्ष से कहा कि अभ्यार्थीयों को जिस कार्य के लिए रखा जा रहा है उस कार्य को करने की क्षमता देखी जाय तो बेहतर है। उनसे भूगोल जानकर क्या करेंगे? यदि सामान्य ज्ञान ही अच्छा होता तो वे बड़ी सेवा की प्रतियोगिता में बैठते। दूसरी बात यह है कि कुछ वर्ष बाद अनुभव के आधार पर स्कूल न जा पाया चपरासी भी अपने नये बॉस को कार्य की बारीक तकनीकीयां बता देता है।
राजनीति, दर्शन, प्रशासन किसी भी व्यक्ति के सामान्य ज्ञान व हौसले का गुणांक होता है उसे परम्परागत शिक्षा से जोड़ कर हम पुन हजारों वर्षों की अपनी अंहकारी कुंठा को दोहरा देंगे जिसमें शासन का अधिकार सीमित लोगों, विशेषकर नौकरशाहों की पत्नियों के हाथों संरक्षित होकर रह जायेगा।
वर्तमान में पंचायत प्रत्याशीयों की शोक्षणिक योग्यता निर्धारित करने के बजाय सरकारों को शिक्षा की अनिवार्यता की ओर बढ़ना चाहिए। जो भूल 68 वर्ष चली उसे सुधार कर आगामी दस वर्षो में सभी को कम से कम बेसिक शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था सरकारें करा दें। यह बात सही है कि ग्राम प्रधान के अशिक्षित होने पर ग्राम सचिव का उत्तरदायित्व निभाने वाले अधिकारी अभिलेखों में ग्राम प्रधान को गुमराह करने का प्रयास करते हैं परन्तु इस पर नियन्त्रण लगना कठिन कार्य नहीं है।
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