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असफलता से सफलता की ओर
स्वतन्त्रता संग्राम के अधिकतर योद्धा युवा वर्ग के ही थे। 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन व “करो या मरो” के नारे को साकार रूप देने वाले सभी युवा थे। उस समय युवाओं के सम्मुख लक्ष्य भारत को आजाद कराकर उसमें अपनी भविष्य की रेखाएँ ग़ढ़ने का था।
वर्तमान युवाओं के सम्मुख रोजगार चुनौती बनकर खड़ा हुआ है। बड़े होते नए नौजवानों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। बेरोजगारों के इस महासमुद्र में एक ओर जहाँ विभिन्न विषयों पर विभिन्न संस्थानों से डिग्रियाँ लेकर चार करोड़ नौजवान नौकरी की राह खौज रहे हैं वहीं औद्योगिककरण में नवीनतम तकनीकियों के समावेश से छँटनी होकर आ रहे लोग भी मिल रहे हैं। हताशा के इस दौर का समाधान रोजगार की नई सम्भावनाओं, शिक्षण संस्थाओं की पद्धति में यू-टर्न जैसा बदलाव तथा युवाओं के मन में नौकरी की होड़ के स्थान पर स्वरोजगार की भावना जागृत करने से निकलेगा।
सबसे पहले शिक्षण संस्थाओं की बात लें। हमारे साथीयों के हाथ में डिग्रीयाँ आने के बाद भी क्या ये नौकरी में मायने रखती हैं? दरअसल डिग्रीयाँ मूल पात्रता को घोषित करती हैं। सरकारी नौकरी पाने के लिए पुन: स्पर्धा परीक्षा में बैठेना पड़ता है। बहुत कम विद्यार्थी हाईस्कूल या इंटर के दौरान स्पष्ट कर पाते हैं कि उनका लक्ष्य कहाँ है? अधिकतर के मन में इतनी चाहत भर है कि स्नातक होने के बाद कोई सरकारी नौकरी देखेंगे।
युवा पहले आत्ममंथन करें कि क्या वह महज बाबू बनने के लिए पैदा हुए हैं? परिवार की पृष्ठभूमि को दोष न दें। अधिक संख्या में सफल वे है जो गरीब या अति गरीब परिवार से हैं। एैसे युवक या युवतियों के मन में संकल्प अवश्य रहा कि वे इस दरिद्रता से स्वंम व अपने परिवार को मुक्त करेंगे। उनका लक्ष्य मात्र नौकरी नहीं होगा वरन् उस कुर्सी तक पहुँचने के लिए कठिन परिश्रम रहेगा जहाँ राष्ट्र की नीतियों का निर्धारण होता है। आखिर क्यों बड़ी संख्या में युवा मन में यह भ्रम पाल कर चलते हैं कि गुजारे को कोई भर्ती मिले क्योंकि उनका मुकद्दर दरिद्रता से बंधा है। सबसे पहला इस भ्रम को चकनाचूर कर दें कि हमें केवल कहीं भर्ती होना है। पथ्थर तोड़ने वाले साधारण अध्यापक व छोटे मोटे कारोबारीयों के बच्चे भी शीर्ष प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए हैं। जब लक्ष्य सामने हो तो मंजिल दिखाई देती है अर्थात् पूरे मन व परिश्रम से अपनी जगह अवश्य ही बनानी है। दो-तीन सौ सफल उम्मीदवारों के चारों ओर लाखो असफल भी खड़े होते हैं। तो क्या वे किसी लायक नहीं? एैसी नालायकी का भाव मन में कभी न आये। सभी रेलें केवल एक दिशा में नहीं चलतीं। वे पृथक-पृथक दिशा में चलकर अपने गतंव्य पर पहुँचती हैं। असफल होने पर विकल्प पर विचार कर वहाँ सफलता खोजनी है। सफल असफल होने वाले सभी उम्मीदवारों की मूल पात्रता एक ही है वे उसे पास कर आए है। कुछ ने सीढ़ी पर चढ़ने का कठिन अभ्यास किया व उच्च सेवा में स्थान पा गये बाकी अन्य क्षेत्रों में विचार करें। निजी कारपोरेट क्षेत्र में भी कम आकर्षण नहीं है। वर्तमान के दो-तीन सैकड़ा धनाड्य परिवारों को छोड़ दे तो उद्योगपतियों में दस लाख एैसे मिलगे जो दो दशक पूर्व तक वहीं थे जहाँ आप खड़े हैं। फर्क इतना है कि उन्होंने अपनी कल्पना का चित्र मन में बनाकर धरातल पर उसे फलीभूत करने के लिए कार्य प्रारम्भ कर दिया था। मैं उन युवाओं से भी मिला हूँ जो प्रतिस्पर्धा सेवा में बैठे परन्तु दिन टी.वी. पर आँख गढ़ाने में गुजरा व शाम दोस्तों की हू-हा में बीती। निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि वे अपने माता-पिता को परेशान कर कहते रहते होगें कि जेवर या जमीन बेच कर कुछ जुटा लो जिससे उनकी नौकरी लग जाय। वे दो साल में दिया धन कमा कर लौटा देंगे। एैसे युवा नौकरी में लगे भी तो जिन्दगी भर भ्रष्ट बने रह कर धन जुटाते रहेगें फिर उसका हिस्सा माता-पिता को वापसी की जगह नौकरी बचाने में साहब को जरूर देते रहेगें।
मैं आज भी खेती को सबसे अच्छा उद्यम मानता हूँ। 250-300 बीघा जमीन वाले एैसे लोगों से बात हुई जो शहर में पड़े इधर उधर खाली समय गंवा रहे होते हैं। पूछने पर बताया कि गाँव में खेती के लिए नौकर रख लिए हैं। उनकी समझ में यह क्यों नहीं आता कि उन्नत खेती स्वंम की निगरानी में कर अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
मान लो कोई वकील ही बने तो सफल होने के लिए उसे नियमित कार्यालय में बैठक व उच्च न्यायलयों के निर्णयों का निरन्तर अध्ययन आवश्यक होगा। सफल होने का एक ही मंत्र है, जिस कार्य को करना है उसे पूरी लग्न, निष्ठा व कठोर परिश्रम करना होगा। जो नहीं कर सके वे अपने क्षेत्र में साधारण होकर रह गये। जिसने अवसर मिलने पर गोल नहीं दागा वह किनारे बैठ लहरें ही गिनेगा।
उधर विधायिका को भी व्यवस्था में बदलाव के लिए बहस शुरू कर देनी चाहिए। अक्षर व भाषा ज्ञान कराकर छटवीं कक्षा से ही विद्यार्थी के रूझान की शिक्षा देनी चाहिए। बढ़ई का मतलब रंघा घिसने वाला दहाड़ी का मजदूर ही नहीं है, बढ़ई तो वह भी है जो लकड़ी को काटना-छाँटना जानता है तथा जिसके मन में उस लकड़ी को विभिन्न प्रकार की आकृतियों में बदलने की परिकल्पना होती है। इसे फर्नीचर डिजायनर भी कह सकते हैं। करोड़ों का व्यापार करने वाले फैशन डिजायनर मूल रूप से दर्जी ही हैं। एक केवल पारम्परिक कपड़े सिलता है, एक नया लुक देने वाला है। ये व्यक्तिगत दिलचस्पी के काम है जिनके लिए परम्परागत कोर्स की औपचारिकता फिजूल है। विभिन्न वर्कशाप के कार्य करते हुए उस क्षेत्र में कल्पनाओं की उड़ान भरने वाले सफलता की तरफ बढ़ते है। आत्मविश्वास व हौसला चाहिए।
“मन को भाग्य भरोसे कर, हाथ पर हाथ रख बैठने वालों की जमात धर्म के नाम पर ठगने वालों के भक्तों की भीड़ का हिस्सा बन जाया करती है।”
आप अपनी सुपर पावर जिसे आप किसी भी नाम से पुकारते हों, आस्था रखते हुए समर्पित भाव से अपने लक्ष्य के लिए कठोर परिश्रम में जुट जायें। सफलता अवश्य मिलेगी।
“सफलता व असफलता के बीच कुछ इंचों का ही फासला है। प्रत्येक क्षेत्र में हरेक व्याक्ति सफल नहीं हो सकता वरना वहाँ भी भीड़ बढ़ जायेगी।” सफलता के लिए उन क्षेत्रों की तरफ भी निगहा दौड़ाये जहाँ भीड़ कम है। एक क्षेत्र में गन्ना बोने की परम्परा चली तो आस-पास के सभी खेत गन्ने के हो गये। सभी का गन्ना मिल पर ऊड़ेला जायेगा तो भुगतान में विलम्ब होगा। फसलें बहुत है फल-फूल सब्जी से लेकर खाद्यान्न तक। सारे खेत एक ही जिन्स की उपज क्यों लें?
“अपने को भाग्य भरोसे छोड़ना खाई में कूदने के समान है। टाइम टेबिल बनाकर दिनचर्या को अनुशासित करें विकल्प नजर आने लगेंगे।”
युवा परिवार से लेकर देश तक का भविष्य हैं हताशा में क्यों रहे?
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