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25 जून को याद रखने के कारण
इतिहास भविष्य का मार्गदर्शक है। पुरानी गलतियों की सीख ही नये का रूपान्तर करती हैं। हमने भारत के स्वार्गीय अतीत को पढ़ा तथा दिल दहलाने वाली घटनाओं को भी पढ़ा। इसी इतिहास का एक भाग स्वतन्त्र भारत में आपातकाल की घोषणा है।
उस समय भारत किसी विदेशी के साथ युद्ध भूमि में नहीं था और न ही पुलिस के सामने शस्त्र लेकर राजनीतिक दल हिंसक विद्रोह की भूमिका में थे। शान्तपूर्ण परन्तु भारी जनसमर्थन के साथ उन्नीसवीं शताब्दी में महात्मा गांधी के बाद व डा. राममनोहर लोहिया के साथ के महानतम नेता जयप्रकाश नरायन उस आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। जे.पी. भी गांधी परम्परा के सत्य आहिंसा व शील आचरण के नेता थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री उच्चन्यायालय से अपनी लोकसभा की सदस्यता खो देने के बाद लोकतन्त्र को कुचलकर सत्ता में बने रहना चाहती थीं।
आपातकाल की घोषणा स्थाई नहीं रह सकी। उन्नीस माह बाद लोकतन्त्र पुन: पुराने स्वरूप में उठ खड़ा हुआ। तानाशाह के मुकाबले जनतन्त्र की जीत हुई। इससे सबक लेकर भविष्य की सन्तानें जान लें कि कभी किसी शासक के मन में निरकुंश अधिनायक बनने का ख्याल आए तो उसे 25 जून 1975 में लगे आपात के परिणामों के चित्र याद दिला दिए जाए। तानाशाह यह सोच कर सिहर उठे कि लोकतन्त्र बहाली के लिए सारा देश एक जुट हो गया था।
इतिहास लेखक की कलम निष्पक्ष रूप से घटनाओं का आंकलन करती हुई चलती है। लिखवाये हुए इतिहास के पन्ने आंधी में तिनकों की तरह ऐसे ही उड़ जाते है जैसे आपातकाल में झूठ को अलंकृत करते हुए निज प्रंशसा का कैप्सूल उखाड़कर तार-तार कर दिया गया। कैप्सूल के अन्दर चुम्बकीय तंरगों में लिपिबद्ध फर्जी महिमामंडन भविष्य के लिए जमीन में गड़वा दिया गया था जिससे सौ वर्षो बाद काले दिनों को भी स्वार्णिम युग के रूप में याद किया जाए।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में संघर्ष में उतरे नेताओं को ब्रितानी सरकार ने कैद किया। जिन सभाओं में विदेशी शासन के विरोध के भाषण होते वहां गोली चलाई परन्तु 25 जून 1975 को घोषित आपातकालीन शासन में जनता की निर्दोषता पर प्रहार हुआ। लाखों लोग घरों से मात्र इसलिए उठा लिए गये क्योंकि वे तत्कालीन शासक दल तथा उसके सहयोगी कम्यूनिस्ट पार्टी से पृथक दल के नेता या सदस्य थे। यह संवैधानिक अधिकारों का हनन कर एक व्यक्ति में सर्वोच्चत स्थापित करने की कुचेष्ठ थी। यही आपातकाल की कुंठित ग्रंथि थी।
शरीर को उद्धपिति करने वाले हारमोनों की तरह आपातकाल के विश्लेषण में दो कारण बनते हैं:
1. अपनी गद्दी को बचाने के लिए हिंसक हो उठना।
2. निज स्वार्थो या उन लोगों के स्वार्थों के लिए जिनके द्वारा सत्ता प्राप्ती में सकल योगदान मिला हो।
प्रत्येक राजनीतिक दल को लोकसम्मत सत्ता प्राप्त करने व बनाए रखने का अधिकार है तथा विरोधी दलों को शान्तीपूर्ण विरोध के साथ विकल्प बनने के लिए जनता के समर्थन की अपेक्षा व अपील करनी चाहिए।
इस तथ्य को कुरेदने पर हम राजनीति की तह में लिपटे एकाधिकारी वादी पूंजीवादी तन्तुओं को साफ देख पायेंगे जो राष्ट्र के प्राकृतिक व मानव संसाधनों को अपने आगोश में समैट लेने के लिए आतुर है, जो ईश्वरीय शक्ति को चुनौती देते हुए है समस्त वृक्षों के फल व धरती के गर्भ में छिपे बहुमूल्य खजाने के न्याय संगत बंटवारे की जगह खुद हड़प जाना चाहते हैं।
यह कह पाना कठिन है कि भविष्य में कोई राष्ट्र को सार्वभौमिक न मान स्वंय को शीर्ष समझने की गलती नहीं करेंगा। पुराण से लेकर वर्तमान तक इतिहास में वर्णित है कि जिसने सत्ता बनाए रखने के लिए अपने विश्वास पात्रों को ही ठिकाने लगाना शुरू किया वही अनिष्ठ का शिकार हुआ दूसरी और जो जनता लापरवाह होकर सोती है वह गुलामी की बेडियों से जकड़ी जा सकती है। सूरज की किरणें व बारिश की फुहार घर देख कर उपकृत नहीं करती परन्तु तानाशाह का मन इतना विकृत हो जाता है कि मानव लीला का विनास कर मरघट ही मिले, अपने अधीन रखना चाहता है
इसलिए 25 जून 1975 भारत के इतिहास में खतरनाक बादलों के रूप में जानी जाती है तथा सभ्यता के कायम रने तक जानी जाती रहेगी। उस दिन को अधिनायकवादी इस लिए भी जान लें कि लाखों लोग कैद किए जा सकते हैं किन्तु उनके दिमाग गुलाम नहीं बनाये जा सकते। लाखों की कैद का हिसाब करोड़ो देशवासियों ने ऐसा लिया कि जहाज तो डूबा ही बचाने वाली कश्ती भी दिखाई नहीं दी।
गोपाल अग्रवाल
agarwal.mrt@gmail.com
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