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आपदा प्रबंध

gopal agarwal
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वर्षा ऋतु के आगमन के साथ ही बद्रीनाथ, केदारनाथ व मानसरोवर आदि की यात्राएं प्रारम्भ् हो गयीं। कावड यात्रा सर्वाधिक भीड़ वाली यात्रा है। इन यात्राओं में समाजसेवी शिविर लगाते है धार्मिक पर्वों पर जन सेवा की भावना उमड़ती है। निजी या संगठात्मक माध्यमों से सेवा कार्य किए जाते हैं। आमतौर पर सेवा कार्यों में लोग मार्ग सुविधा व भोजन व्यवस्था में लगते हैं परन्तु आपदा प्रबंध सेवा कार्यों में विशिष्ट स्थान रखता है। यह वह सर्तकता है जो जोखिम में बचाव का उपाय देती है।

मैं जनसेवा को आपदा प्रबंधन से जोडकर देख रहा हू। पहाड़ों पर होती तबाही कुदरती हो या इंसानी छेडछाड़ का नतीजा, परन्तु हिमालय की वादियों में तूफान तो आता ही है। संकट की इन घटनाओं पर आपदा प्रबंध की आलोचना से अच्छा हो कि हम जन सेवा एवं धर्म के प्रवर्तन का सही तरीका समझें। व्यवस्था से जुड़ा होने के कारण यह राजनीति का एक भाग है। मैं स्पष्ट कर दूं कि राजनीति को लोग कपट, चाल या पैतरे बाजी समझ कर अज्ञानता के रसालात में जा रहे है। राजनीति का सम्बंध उन नीतियों से है जो ‘राज’ के लिए आवश्यक हैं। इन नीतियों में भेद ही विभिंन राजनीति दलों का गठन कराता है। यह एक स्वस्थ परम्परा है। स्वतंत्रता से पूर्व कांग्रेस पार्टी‘सेवा दल’की भूमिका में रही। जब-जब आपदा आती कार्यकर्ता आपदा प्रबंध में लग जाते। महामारी, हैजा, प्लेग में बापू भी परमार्थ सेवा में एक कार्यकर्ता के रूप में सेवा में जूट जाते। गांधी आपदा प्रबंध के वैज्ञानिक ज्ञाता थे। वे कांग्रेस संगठन की सुदढ़ता के साथ विदेशी शासन से लड़ने के लिए आम जनता के बीच भाषण देते थे तो उसी संगठन को जनता के सहयोग से चेचक, हैजा, प्लेग से पीडितों के बीच बचाव कार्य तथा कार्यकर्ता को स्वयं बचने का मंत्र देते थे। गांधी ने ही वह मंत्र दिया कि संक्रमण रोग के प्रति मन में घृणा न हो तो शरीर प्रतिरोधाllllllllllllllllllllमक शक्ति संक्रमण से बचाने के लिए बनी रहती है। इसी सिद्धांत से वह गुतथी सुलझी कि बहुधा शिशु के संक्रमण का प्रभाव माता पर नहीं पड़ता है। परन्तु, बद्रीनाथ-केदारनाथ मार्ग पर कहर बन कर टूटे पानी ने केन्द्र व उतराखंड सरकार के आपदा प्रबंध पर ऐसा सवालिया निशान लगाया जिसका जबाव आपदा प्रबंध प्राधिकरण के अधिकारियों के पास नहीं है।

एक सेठ ने उधार वसूली के लिए गठीले बदन वाले पहलवान को पगार पर रख लिया। सेठ का कार्य ठीक चल रहा था। पहलवान को भी बादाम खाने को मिल रहे थे। रोज कसरत कर वह मmmत पड़ा था। एक दिन सेठ ने पहलवान को बुलाकर कर कहा कि आज तुम्हारे लिए काम आ गया है। एक उधारी पैसे नहीं दे रहा है “जाओ वसूल लाओ”। पहलवान ने जेब से कागज निकाल कर सेठ के सामने रख दिया, बोला कि सेठ जी यह मेरी छुटटी की दरख्वास्त है। एक साल से बीवी बच्चों को नहीं देखा, हाल चाल लेने जाना है।

भारत सरकार की आपदा प्रबंध व्यवस्था में भी ऐसा ही खोट है। बद्ररीनाथ-केदारनाथ जाने वाले श्रद्धालु सामान्य यात्री आचरण के अन्तर्गत यात्रा कर रहे हैं। सम्पूर्ण मार्ग पर किस वकत में कितने यात्री मार्ग में कहां-कहां है, इसका पूरा ब्योरा स्थानीय प्रशानिक एजेनसियों पर रहता है या रहना चाहिए। ये यात्री कोई पर्वतारोही जैसी जोखिम यात्रा पर नहीं हैं। अत: सम्पूर्ण व्यवस्थायें एक निर्वाचित सरकार के अन्तर्गत स्थानीय प्रशासन देख रहा है जिसकी खबर गृह मंत्रालय व आपदा प्रबंध मंत्रालय को रहती है। प्रत्येक स्थान व मार्ग की अधिकतम भार क्षमता जिसकी यात्रियों व वाहनों की संख्या के आधार पर गणना की जाती है तथा जो होटल-धर्मशालाओं के ठहरने व भीड़ नियंत्रण क्षमताओं के समानुपाती के आधार पर होती है। इन व्यवस्थाओं के आधार पर नियंत्रण कक्ष से यात्रियों का मूवमेंट निर्धारित किया जाता है। इसी कक्ष में रेखा चित्रों व मानचित्रों के साथ आपदा आने पर बचाव केंद्र सरकार व उसके निर्देश पर सेना विपति की सम्भावना के लिए चौकन्ना रखा जाता है। विगत वर्ष हो सकता है यह सारी कसरत की गयी हो किन्तु फंसे हुए यात्री, विपति के समय हुई लूट-मार को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि सेना की भूमिका को छोड़ दें जिसके कारण राहत कार्य हो भी पा रहा था। अन्यथा व्यवस्था बहुत कमजोर रही। इसमें राpय व केंद्र दोनों सरकारें अपनी राजनीतिक प्रतिवद्धता के प्रति विफल रहीं।

2012 का इलाहाबाद कुम्भ मेला उदाहरण है। सदी के सर्वाधिक भीड़ संख्या व दशक के सबसे बड़े मेले में सब कुछ सामान्य व उसके सही सलामत आयोजन पर अखिलेश सरकार की प्रबंध उत्कृष्टता की पूरे विश्व में प्रंशसा हुई। स्थानीय अधिकारी, नगर विकास मंत्रालय व उतर प्रदेश सरकार के समूचे सरकारी तंत्र मं् यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि सरकार अपनी राजनीतिक क्षमताओं से भरपूर है। यदि रेलवे के अधिकारी प्लेट फार्म बदलने जैसे घातक निर्णय लेने की गलती न करते तो यह मेला“जीरो एरर”के साथ समपvMvन था।

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