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‘स्टेशन से घर जाने के लिए रिक्शा लेंगे?’

gopal agarwal
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प्रासंगिक

स्टेशन से घर जाने के लिए रिक्शा लेंगे तो आधे रास्ते रिक्शा वाला चलाएगा फिर आधे रास्ते उसे बैठा कर आपको रिक्शा चलाना होगा। समाजवाद को परिभाषित करते हुए सन् 1967 में फुल्लटी बाजार आगरा की जनसभा में तत्कालीन जनसंघ अब भाजपा के नजरिए से मेरा पहला एनकाउन्टर हुआ। छात्र राजनीति में सक्रिय रहते हुए तथा डा० लोहिया को पढ़ते समझते कुछ सीख चुकी मेरी बुद्धि को यह जानते देर न लगी कि राजनीतिक में नीति न बना पाने या कुछ करने की समझ किसी में न हो तो वह भ्रम व जुम्लों से झूठ को हवा दे देता है।

परन्तु, मुख्य प्रश्न तब से अब तक यही बना हुआ है कि समाजवादी दर्शन एवं धार्मिक सहिष्णुता से कुछ लोग इतने अधिक चिढ़े हुए क्यों है? समाजवादी दर्शन किसी को पसन्द न हो यह माना जा सकता है क्योंकि मतभिन्नता लोकतंत्र का आवश्यक तत्व है। समाजवाद की व्याख्या में भी अनेकों नई धाराएं निकलती व एक दूसरे से टकराती दीखती हैं। जो लोग विज्ञान की प्रमाणिकता को असत्य सिद्ध करने में असमर्थ रहते हैं वे तर्क के स्थान पर अंधविश्वास से पराजित करने की कुचेष्टा करते हैं। लम्बे समय से झूठ के प्रहारों को समाजवादी दर्शन बर्दास्त करता रहा है जिसमें अवसरवादी ताकतें ही धूमिल हुई हैं। यही इस दर्शन की सर्वाधिक प्रमाणिकता व प्रासंगिकता है तथा डा० लोहिया के व्यक्तित्व व सिद्धान्त व्याख्या की सबसे बड़ी जीत भी यही है।

डा० राममनोहर लोहिया ने महात्मा गांधी जितना स्वीकारता का अन्तर्राष्ट्रीय स्तर नहीं पाया इसलिए उनकी व्यक्तिगत आलोचना से विरोधी बचते रहे। जिन लोगों के विचार अधिनायकवादी प्रवृति के हैं या विश्व पटल पर अधिनायकवाद से साम्राज्य स्थापित करने के प्रयत्न कर चुके चरित्रों की नकल से शासन सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं वे गांधीवाद और गांधी के विरूद्ध दुष्प्रचार कर अपनी खीझ उतारते हैं। कोई भी अधिनायक विश्व सत्ता खड़ी न कर पाया।

डा० लोहिया भारत के सामान्य जन के लिए बोलते थे और सत्य कहते हुए पहाड़ों से टकरा जाने का साहस रखते थे। यदि वे गांधी की तरह प्रत्येक राष्ट्र में प्रतिमा व फोटो के रूप में विद्यमान रहते तो भारत में धार्मिक विभाजन व कुरीतियों का प्रचार प्रसार करने वाले उनके चरित्र पर भी भद्दे किस्से तथा इतिहास परख तथ्यों से उलट टिप्पणियां रोपित कर रहे होते।

डा० लोहिया ने राजनीति के तीनों पक्षों सामाजिक, आर्थिक व राज्य व्यवस्था की व्याख्या करते कोई प्रसंग अधूरा नहीं छोड़ा। वर्तमान राजनीतिक दलों के साथ विडम्बना है कि वे बिना नीतिगत प्रस्तुति के चुनाव मैदान में है तथा चुनाव जीतने के बाद व्यवस्था संचालन में अनाड़ीपन के प्रयोग वैसे ही करते हैं जैसे क्रिकेट की टीम के खिलाड़ी तय करने के बाद उन्हें क्रिकेट खेलना सिखाया जाय जिसको वे बिना सीखे खेलना चाहते हैं। परिणामस्वरूप सत्ता किसी की भी आये व्यवस्था तथा निर्माण के परम्परागत ठेकेदार संबल प्रदान करने आ जाते हैं इसलिए शासन किसी का भी हो पुल तो गिर ही जाते हैं।

दुर्भाग्य से राजनीतिक दलों ने वोट बैंक की सुविधा से जनसमूह के बीच जाति, धर्म या क्षेत्र जैसे मुद्दे पकड़ कर अपने-अपने खेमे बना लिए हैं तथा नई सरकार स्थापित होने पर पुरानी सरकार के ढर्रे पर चलने लगती है। यही कारण है कि भाजपा के कोरे वायदों, बंगाल में धार्मिक संतुलन के असफल चेष्टाएं, बिहार में पटरी बदल एवं उत्तर प्रदेश में फूहड़ नकल से काम चल रहा है। डा० लोहिया ने राजनीतिक कर्तव्य की डोर को निष्ठा से पकड़े रखा तथा किसानी, उद्योग व्यापार, परिवार, पढ़ाई, इलाज, भाषा अर्थात् कि जीवन से जुड़े सभी पहलुओं की सुस्पष्ट व्याख्या व एजेन्डा प्रस्तुत कर दिया था।

(57 वर्ष की आयु में दिल्ली के विवलिंडन हॉस्पिटल में 11-12 अक्टूबर 1967 की रात को डा० राम मनोहर लोहिया ने अन्तिम सांस ली। उनका प्रोस्टेट का ऑपरेशन बिगड़ गया था। 12 अक्टूबर उनकी पुण्य तिथि के रूप में स्मरण की जाती है। विवलिंडन हॉस्पिटल को अब डा० राम मनोहर लोहिया हॉस्पिटल कहते हैं।)

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