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अब चाहे मंगली हो या शनिश्चरी यारां मैंने तो हॉ कर दी

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गोपाल राजू का मूल-सारगर्भित तथा सर्वथा अप्रकाशित लेख

गोपाल राजू (वैज्ञानिक)

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अब चाहे मंगली हो या शनिश्चरी यारां मैंने तो हॉ कर दी

विगत तीस दशकों में समय ने बहुत तेजी से करवट बदली है । भौतिक जगत की कहें, अध्यात्म की अथवा गुह्य विधाओं की, जहां देखें प्रायः यही दिखाई दिया है कि व्यक्ति विशेष, संस्था, आश्रम, समाज अथवा देश आदि किस प्रकार से अपना कद ऊंचे से ऊंचा करें। ज्ञान-ध्यान, बौद्धिकता से अलग-थलग तंत्र, मंत्र, ज्योतिष आदि की बात करें तो वहां एक ऐसा वर्ग उभर कर अवश्य सामने आया है जिसने अपना कद अपनी वाकपटुता, वाह्य आडम्बर अथवा वेशभूषा आदि से किसी न किसी रुप में अवश्य ऊंचा कर लिया है। इसमें टी.वी., मीडिया तथा राजनैतिक संरक्षण आदि ने तो छौंक-बघार का काम किया है। बिना ज्ञान-ध्यान के एक अज्ञात भय फैलाना और तदनुसार उसके उपचार, निदान के मनगढऩ्त शास्त्रोक्त सूत्र, नियम और परिभाषाओं से बिल्कुल अलग उपाय सुझाना, एक समान्य सी बात हो गयी है। निरीह लोगों का इससे भला हो रहा है अथवा नहीं, यहां एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा है? परन्तु यह बात सत्य है कि उस वर्ग विशेष का भला अवश्य हो रहा है।

पूर्वी देशों में ज्योतिष जगत के सर्वाधिक प्रचलित, चर्चित और भय उत्पन्न करने वाले तथाकथित महादोषों में मंगल दोष को लड़के और लड़की की जन्म कुण्डली में विवाह से पहले बहुत ही महत्व दिया गया है। ज्योतिष जगत में विश्वास न करने वालों, बुद्धिजीवियों और कट्टर आर्य समाजियों आदि को भी यह कहते सुना जाता है कि, ‘‘वैसे तो हम ज्योतिष-वोतिष में विश्वास नहीं करते, परन्तु हमें बस इतना बता दें कि लड़की मंगली तो नहीं है।’’ असंख्य ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे जहां तथाकथित महादोष के अज्ञात भय के कारण लड़के अथवा लड़कियों में विवाह पक्ष को लेकर अनेकों अड़चनें आई हैं अथवा यहां तक कि दुर्भाग्यवश उनका विवाह ही नहीं हो पाया है।

क्या है ये मंगल दोष जो विषय में विश्वास न करने वालों में भी एक अज्ञात भय फैलाए हुए है। अपने-अपने बुद्धि और विवेक से विद्वान लखकों ने इस पर बहुत कुछ लिखा है। परंतु देखा जाए तो यह ज्ञान अधिकांशतः आधा-अधूरा ही है। वास्तविक बात तो यह है कि अज्ञानतावश और संयम-समय के अभाव में हम इसके मूल सूत्र और नियम न्यायसंगत  रुप से उपयोग नहीं कर पाए हैं। कितना सटीक इस दोष की गणना कर पाने में हम सक्षम हुए हैं, दोष के स्वतः परिहार होने के कितने विकल्प हम जान पाए हैं और सबसे ऊपर इस महादोष का क्या वास्तव में क्या कोई औचित्य है भी अथवा नहीं आदि भ्रामक प्रश्न प्रत्येक जिज्ञासु मन में सदा से उठते रहे हैं। इस विषय को लेकर भ्रम और भय इसलिए भी और अधिक व्यापक रुप से फैला है कि अनेक बार इसके परिणाम भी विपरीत रुप से देखने को मिले हैं। उदाहरण के तौर पर अनेक ऐसे प्रकरण मिल जाएंगे जहां लड़के और लड़की की कुण्डली में कहीं भी मंगल दोष स्पष्ट नहीं हो रहा था और वहां उनका वैवाहिक जीवन नरक स्वरुप भोगना पड़ रहा था, उनमें अलगाव हो गया, संतान पक्ष को लेकर कहीं न कहीं तनाव झेलना पड़ा अथवा ऐसे ही पारिवारिक जीवन से जुड़ी कोई न कोई अन्य समस्या विकराल रुप से जीवन में आई। इसके विपरीत ऐसे अनेक उदाहरण भी देखने को मिले जहां लड़के और लड़की पूर्णरुप से मंगली थे परन्तु उनका सारा जीवन सुख, सौहार्द्र, ऐश्वर्य और शांति से बीता। उन्हें जीवन में कहीं भी किसी ऐसी पारिवारिक समस्या का सामना नहीं करना पड़ा जिससे कि उन्हें कहना पड़ा हो कि हमारी पत्री में मंगली दोष था जिसके कारण हमारा पारिवारिक जीवन दुर्भाग्यपूर्ण रहा।

कृपया इस बात का सदैव ध्यान रखें कि ऐसा कदापि नहीं है कि मंगल आदि दोष और विवाह मेलापक बातें व्यर्थ हैं अथवा इनका कोई व्यवहारिक औचित्य नहीं है। विवाह मेलापक जो आठ नियम मनीषियों द्वारा बताए गए हैं वह व्यर्थ नहीं है। विवाह पूर्व विवाह का शास्त्रोक्त और उचित रुप से मिलान कर लेना अपने में पूर्ण रुप से प्रासंगिक हैं। आठ बातों के अन्तर्गत जो गुण मिलान संख्या निर्धारित की गई है वह विवेचनात्मक, व्यवहारिक और पूर्णतः वैज्ञानिक है। तथाकथित आठ बातों में क्रमशः वर्ण का 1 गुण, वश्य के 2 गुण, तारा के 3, योनि के 4, मैत्री के 5, गणमैत्री के 6, भकूट के 7 और नाड़ी के 8 कुल मिलाकर 36 गुणों में से लड़के-लड़की के कुल 18 से अधिक गुण मिल जाएं तो विवाह शुभ माना जाता है। यह गुण मिलान उस दशा में पूर्णरुप से परस्पर मैत्री पूर्ण है जब भकूट मिलान हो। यदि भकूट अर्थात् षडाष्टक मिलान नहीं है तब 20 गुणों तक मिलान श्रेष्ठ नहीं माना जाता। 25 गुणेां तक यह मध्यम है और उसके बाद से श्रेष्ठ मिलान की श्रेणी में आने लगता है।

आज के वैज्ञानिक परिपेक्ष्य में नाड़ी मिलान और कुछ नहीं वस्तुतः व्यक्ति की भावी संतान और उसके परस्पर रक्त मिलान का ही पर्याय है। यदि नाड़ी दोष है तो संभावना प्रबल होती जाती है कि वहां रक्त दोष हो और वहां संतान रोगी, कृशकाय, अयोग्य, निर्बुद्ध अथवा किसी न किसी रुप से परिजनों के लिए कष्टप्रद सिद्ध हो। ज्योतिष में मंगल को रक्त का कारक भी माना गया है इसीलिए इस ग्रह पर विशेष रुप से बल दिया जाता है ताकि लड़के-लड़की का रक्त दूषित न हो।

ज्योतिष वांङमय और आज के विज्ञान की प्रगति देख कर अचम्भा होता है कि सदियों पहले हमारे ऋषि-मनीषि मात्र अपने योगबल, प्रज्ञाबुद्धि और श्रमसाध्य गणनाओं से बिना किसी पैथोलॉजिकल प्रयोगशालाओं के कैसे इतनी विशुद्ध गणनाएं विवाह मिलापक को लेकर कर लेते थे। उत्तम से उत्तम जीन का चयन करना वहां विवाह मिलापक का मूल उददेश्य होता था ताकि नव दंपत्ति सांसारिक नियमों का सदाचार से पालन करते हुए योग्य, स्वस्थ, तेजस्वी और संस्कारवान संतान को जन्म दे। आज जेनॅटिक इंजीनियरिंग का भी मूल भूत रुप से ठीक ऐसा ही प्रयास और उददेश्य। अन्तर बस केवल इतना है कि वहां श्रमसाध्य गणनाओं से मेलापक मिलान किया जाता है और अब यहां उसका स्थान आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित प्रयोगशालाओं ने ले लिया है।

आज पश्चिमी देशों में इस आधुनिक मिलान का चलन प्रायः आम होता जा रहा है। वांछित संतान की प्राप्ति यहां तक कि उनका अपने अनुकूल रंग-रुप, कद-काठी, बालों तथा आंखों की पुतलियों का रंग, बौद्धिकता के गुण, स्वास्थ आदि संबंधी अनेक बातें भी इस विज्ञान के द्वारा आज संभव हो गई हैं। भावी संतान में वांछित लक्षणों का समावेश और अहितकर तथा मन को न भाने वाले जीन का निष्काशन तक किया जाना भी संभव कर लिया गया है। यह सब व्यवहारिक है और व्यापक स्तर पर चलन में लाने के लिए निरन्तर इस दिशा में युद्ध स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं।

हमारे देश में भी इस जीन थ्योरी को व्यवहार में लाने का निरन्तर प्रयास जारी है परंतु वर्तमान में इसका उपयोग उत्तम श्रेणी की नवीनतम कृषि और एनिमल हस्बेन्डरी में खूब किया जा रहा है। रोजी नामक गाय और डॉली नामक भेड़ इसका सफल परिणाम हैं। फल, फूल और पौधों में नई-नई प्रजातियों को विकसित करने में यह बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है।

व्यवहारिक रुप से परम्परागत चली आ रही शनि-मंगल, राहु-केतु, भकूट आदि दोषों से अलग ज्योतिष के विद्यार्थी यदि आधुनिक परंपरागत जीन अथवा रक्त मिलान विधियों को अपनाने लगें तो चमत्कारिक रुप से अच्छे से अच्छा परिणाम पा सकते हैं। जो इस विज्ञान को समझते हैं वो मानने लगे हैं कि कुण्डली मिलान के साथ-साथ रक्त समूह और जीन मिलान भी अति आवश्यक होता जा रहा है। क्या है ये रक्त समूह और जीन मिलान की प्रक्रिया इसका संक्षिप्त विवरण पहली बार जिज्ञासुओं के लिए प्रस्तुत कर रहा हॅू। यह मंगल, शनि आदि महा दोषों की तथाकथित चलन में आ रही ज्योतिष के क्षेत्र में एक नई क्रांति लाएगा।

सबसे पहले रक्त समूह की सूक्ष्म जानकारी जान लें इससे विषय और भी रोचक लगने लगेगा। चार प्रकार के परंपरागत रक्त समूहों (A, B, AB, O) में से AB को सफल परिणाम के वरीयता लिए दी जा सकती है। क्योंकि जरुरत के समय यह किसी का रक्त ग्रहण कर सकता है। रक्त समूह व् किसी को रक्त दे सकता है परन्तु केवल व् से ही रक्त ले सकता है। अतः व् समूह विशेषतया  (रक्त की आवश्यकता होने पर) समस्या उत्पन्न कर सकता है। क्योंकि यह रक्त समूह बहुत मुश्किल से उपलब्ध होता है। फिर भी यह कोई गंभीर समस्या नहीं है और मेडिकल सांइस में इसके विकल्प मौज़ूद हैं।

पांचवे प्रकार के रक्त समूह Rh का मिलान अति महत्वपूर्ण हो सकता है।   या (+) रक्त समूह के साथ Rhएण्टीबॉडी (जो लाल रक्त कणों को आपस में चिपका कर रक्त का बहाव रोक देती हैं और मृत हो जाती हैं) नहीं पायी जाती।  वधु का, और वर  नहीं होना चाहिए। ऐसे में माता पिता की सभी संताने  Rhएण्टीबॉडी से युक्त होगी जो गर्भस्थ संतान से मां के शरीर में जा कर एकत्र होती जाऐंगी और उत्तरोक्तर गर्भधारण के साथ-साथ Rhएण्टीबॉडी की संख्या भी बढ़ाती जाएंगी। इसलिए पहली एक-दो संतान तो सुरक्षित और स्वस्थ पैदा होगी परन्तु बाद की संतानों में मां के शरीर में एकत्र हुई Rh एण्टीबॉडी भ्रूण में पहॅुचकर उसे गर्भ में ही मार देंगी। गर्भधारण के दौरान कुछ विशेष टीके लगा कर इस समस्या का समाधान भी किया जा सकता है।

वर-वधु चयन में अगला महत्वपूर्ण पहलू जीन के चयन से संबंधित है। शास्त्रों में बताए गए वर्ण, गोत्र आदि भी किसी सीमा तक उत्तम जीन के चयन पर ही आधारित हैं। उत्तम गुणों के जीन युक्त लोगों में प्रजनन को प्रोत्साहित करके तथा निकृष्ठ गुणों वाले लोगों जैसे पागल, अपराधी, रोगी, व्यभिचारी आदि में प्रजनन पर रोक लगा कर मनुष्य जाति में उत्तरोत्तर सुधार का एक संपूर्ण विज्ञान ‘यूजेनिक्स’ 1883 से इस दिशा में निरन्तर अग्रसर है। ऐसे अनेक वंशानुगत रोग हैं जिनके जीन का यदि समुचित मिलान  न किया जाए तो वह भावी संततियों को ऐसे रोगी बना सकते हैं जिनका कोई इलाज संभव नहीं है। शत्रु राजाओं को भेंट की जाने वाली विष कन्याएं संभवतः ऐसे रोगों की वाहक होती थीं जो कि उनके वंश का नाश तक कर देती थीं। इंग्लैण्ड के राज घराने में व्याप्त हीमोफीलिया रोग (जिसमें चोट लगने पर रक्त जम नहीं पाता और सारा रक्त बह जाने से मौत हो जाती है) तथा लाल और हरे रंग में भेद न कर पाने वाला वर्णान्धता रोग ऐसे ही रोग हैं जो ऐसी माताओं द्वारा उनके पुत्रों में आ जाते हैं जो इन रोगों की वाहक होती हैं। उनमें यह रोग प्रकट नहीं होते अतः ऐसी वाहक वधुओं का चयन नहीं करना चाहिए।

मानव के प्रत्येक कोष में 23 जोड़े अर्थात् 46 गुणसूत्र होते हैं जिन पर लगभग 30,000 जीन स्थित होते हैं। प्रत्येक जीन एक विशेष लक्षण को नियंत्रित करता है। गुणसूत्रों की संख्या में वृद्धि या कमी हो जाने से बहुत सारे जीन गुणित हो कर बढ़ जाते हैं अथवा समाप्त हो जाते हैं जिसके कारण रोगी में एक साथ अनेक लक्षणों की बाढ़ आ जाती है जिन्हें सिन्ड्रोम कहा जाता है। उदाहरण के लिए 21वें तथा 18वें गुणसूत्रों की त्रिगुणिता अर्थात् दो के स्थान पर तीन गुणसूत्र से होने वाली डाउन्स सिन्ड्रोम तथा एडवर्ड सिन्ड्रोम आदि के लक्षण स्पष्ट देखे जा सकते हैं। इसी प्रकार लिंग गुणसूत्रों अर्थात् 23वें जोड़े की अनियमितता से उत्पन्न क्लाइनेफेल्टर्स सिन्ड्रोम तथा टरनर्स सिन्ड्रोम प्रायः नपुंसक या बांझ होते हैं। इनके लक्षणों से युक्त वर अथवा वधु का चयन कदापि नहीं करना चाहिए।     अनेक आनुवांशिक रोग ऐसे हैं जिनके जीन प्रथम 22 जोड़ी गुणसूत्रों अर्थात् अॅाटोसोम पर पाए जाते हैं। इनमें से रंजक हीनता, एल्केप्टोनूरिया, फिनाइलकीटोनूरिया, हॅसियाकार, रुधिराणु एनीमिया आदि के जीन वैसे तो अनुभावी होते हैं परन्तु दो अप्रभावी यदि एक साथ जोड़े में आ जाएं तो भयंकर रुप धारण कर लेते हैं। रंजकहीनता रोग में स्त्री-पुरुष में से कोई शुद्ध अप्रभावी जीन वाला रंजकहीन तथा दूसरा संकर जीनों वाला होने पर आधी संतानें रंजकहीन होती हैं अर्थात् उनकी त्वचा सफेद और पुतलियां गुलाबी होती हैं, एल्केप्टोनूरिया के रोगी का मूत्र हवा लगने पर काला पड़ जाता है और उसे पुश्तैनी  गठिया रोग हो जाता है। फिनाइलकीटोनूरिया के रोगी बच्चे मंदबुद्धि रह जाते हैं। समान अप्रभावी जीन

वाले हॅसियाकार रुधिराणु रोगी में हीमोग्लोबिन की रचना आक्सीजन वहन करने योग्य नहीं रहती

और इसलिए दम घुटने से रोगी की मृत्यु हो जाती है।

इनके अतिरिक्त वर-वधु मिलान के समय संचारी रोगों (STD) से मुक्तता भी प्रमाणित होनी चाहिए। गोनोरिया, सिफलिस तथा एड्स आदि से ग्रस्त माता-पिता की संतानें जन्म से पूर्व ही इन रोगों से ग्रसित हो जाती हैं इसलिए इस प्रकार के रोगों के प्रति विवाह पूर्व जांच की अनिवार्यता समाज में तेजी से फैल रही व्यभिचार के विरुद्ध एक कारगार विधा सिद्ध हो सकती है।

प्रस्तुत सारणी में ऐसे रोगों तथा वर-वधु में पाए जाने वाले उनके लक्षणों का संक्षिप्त वर्णन भी लिख रहा हॅू जो पाठकों और ज्योतिष के विद्यार्थियों के लिए विवाह मेलापक मार्गदर्शन में अत्यन्त सहायक सिद्ध होगा।

OK

शनि, मंगल आदि दोषों से पीढ़ित अथवा विशेष कर वह लोग जिनका उचित विवाह मेलापक के कारण विवाह नहीं हो पा रहा, इस लेख को पढ़कर राहत अवश्य महसूस करेंगे। विषय की जानकारी ले कर विवाह मेलापक में उचित गुण न मिलने के बाद भी संभवतः अब वह गाने लगें, ‘‘यारा मैंने तो हॉ कर दी ……।’’

गोपाल राजू (वैज्ञानिक)

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