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कुछ लोगों के अनुसार पिछले १६ महीनो से इस देश में असहिष्णुता इतनी बढ़ गयी है की उन्हें साहित्य -अकादमी एवं पद्म-श्री जैसे भारतीय सम्मान असहनीय है ! निसंदेह विगत कुछ दिनों से प्रतिदिन घोर निंदनीय घटनाएँ हो भी रही हैं ,दादरी -कांड फिर गुलाम अली का कार्यक्रम रद्द होना फिर सुधीन्द्र कुलकर्णी पर स्याही का फेंका जाना ! इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में नयनतारा सहगल के नेतृत्व में कुछ तथाकथित स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र के सजग प्रहरियों ने इनके विरोध के प्रतीक स्वरुप अपने साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटाने की घोषणा की !
देश में कुछ भी बुरा हो रहा है तो सबको उसका विरोध करने का अधिकार है ,किन्तु उसके विरोध का तरीका क्या हो ? इन साहित्यकारों का विरोध किससे है ? नरेंद्र मोदी से , भारत में तथाकथित रूप से बढ़ रही साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता से, साहित्य -अकादमी से या भारत से ?यदि मोदी से विरोध है तो उनका विरोध करने का क्या ये तरीका होना चाहिए क्यूंकि साहित्य -अकादमी पुरस्कारों में नरेंद्र मोदी जी की क्या भूमिका और जिस समय इनको ये पुरस्कार प्राप्त हुआ उस समय प्रधानमंत्री मोदी नहीं थे ! यदि देश में बढ़ रही साम्प्रदायिकता एवं असहिष्णुता कोई कारन है तो भी ये पुरस्कार लौटाएं उससे अच्छा था की साहित्य के माध्यम से लोगों को जागरूक करते सरकारों को उनका कर्तव्य बोध लेखों , नुक्कड़ -नाटकों के माध्यम से करते ये सड़कों पर शांति -पूर्ण तरीके से अपनी बात रख सकते थे! कतिपय साधन हैं अपने विरोध को प्रकट करने का किन्तु इन्होने साहित्य अकादमी जैसे विशुद्ध साहित्यिक मंच की गरिमा को ध्वस्त करने वाला रास्ता चुना और ये विरोध भी सिर्फ प्रतीकात्मक है जो निष्प्रभावी है क्यूंकि अपने देश में इसके पक्ष विपक्ष में बहस हो सकती है इनके कदम को राजनैतिक अथवा अराजनैतक सिद्ध करने की चेष्टा हो सकती है और विदेशो में भारत की एक गलत छवि प्रस्तुत की जा सकती है और इस कदम से बौद्धिक वर्ग में भी राजनैतिक निष्ठा के आधार पर ध्रुवीकरण हो सकता है किन्तु इससे साम्प्रदायिकता को कम कैसे किया जा सकता है ? और ये बात शायद इन्हे हम सामान्य भारतीयों से अधिक स्पष्ट है ! फिर भी इन्होने ये तरीका अपनाया जो हमे ये विचार करने के लिए विवश कर देता है कि परदे के पीछे कुछ और ही खेल है , ये इसे साम्प्रदायिकता के विरोध में उठाया काम बता रहे हैं जो कि विशुद्ध रूप से राजनैतिक कारणों से प्रेरित है ! इनको अच्छी तरह से पता है कि इन आरोपों में सत्य का कोई अस्तित्व नहीं इसीलिए सरकार के विरुद्ध किसी जन -आंदोलन में इन्हे लोगो का ऐसा समर्थन नहीं मिलेगा जिससे बिहार -चुनावों में भाजपा नीत केंद्र सरकार को असहज किया जा सके , अतः इन्होने पुरस्कार – वापसी के रूप में ऐसा साधन खोज निकाला जिसके द्वारा नरेंद्र मोदी एवं भाजपा को बिहार चुनाव के मध्य आसानी से असहज किया जा सके ! इस प्रकरण से कुछ सवाल उभरते हैं हम सबके सामने :-
१. दादरी घटना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है , अफवाहों में एक व्यक्ति की हत्या कर दी गयी सभी भारतोयो की सहानुभूति मृतक के परिवार वालो के साथ है किन्तु जिस तरह से कुछ लोगों ने ऐसी घटना को प्रधानमंत्री श्री मोदी जी के विरुद्ध दुष्प्रचार करने के लिए राजनैतिक मंच बनाया जिसमें कुछ मीडिआ कर्मी भी शामिल हैं वो अत्यंत शर्मनाक है ! उत्तर -प्रदेश में श्री अखिलेश यादव जी की सरकार है एवं शांति व्यवस्था बनाये रखना उनकी जिम्मेदारी है ! लेकिन एक भी न्यूज चैनल के किसी भी कार्यक्रम में अखिलेश जी से कोई सवाल नही हुआ किन्तु इन्होने मोदी जी से सवाल ही नहीं पूछा अपितु उन्हें ही इसका उत्तरदायी बता दिया है ! ऐसा क्यों ? जिन साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार मोदी जी को इन घटनाओ का जिम्मेदार मानते हुए वापस किये क्या उन्होंने कभी अखिलेश यादव जी की भूमिका की कोई चर्चा भी की ?
२. अतीत में दादरी से भी कई गुना अधिक संख्या में लोग साम्प्रदायिकता के शिकार हुए हैं , सिखों का १९८४ में कत्लेआम , कश्मीरी -पंडितों का अपने ही देश में सामूहिक निर्वासन , भागलपुर दंगे , हाशिमपुरा दंगा और भी मुजफ्फरपुर असम बंगाल कहा तक कहे , कभी भी इतना व्यापक विरोध देखने को नहीं मिला कि पुरस्कारों की वापसी की जाए ? ये विभेद क्यों ? ये चयनवाद क्यों ? और इनका पाखंड तो देखिये इन लेखको पर जब अनुपम खेर जी ने सेलेक्टिव विरोध करने का आरोप लगाया तो इस पर विफर गए !
३. लोकतंत्र में वैचारिक मतभेद होते ही हैं किन्तु एक भारतीय होने के नाते हमे विरोधी विचारों को भी सम्मान देना चाहिए , ये वैचारिक विरोध क्या इस हद तक हो जाना चाहिए कि भारतीय जनमानस के द्वारा लोकतान्त्रिक तरीके से चुने हुए प्रधानमंत्री के खिलाफ राजनैतिक मंशा से दुष्प्रचार किया जाए ! क्या आपकी सहिष्णुता आपको यही अनुमति देती है , या फिर कहीं ये “वैचारिक – असहिष्णुता ” तो नहीं ?
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