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श्री भगवान जी से वार्तालाप

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विचारों के अंतर्द्वंद पर नींद हावी हो गई थी। मैं गहरी नींद में सो चुका था। कुछ समय बाद एक अजीब सी रोशनी हुई एवं नींद में ही एक आवाज़ सुनाई दी; पूछो वत्स! मैं तुम्हारी शंका दूर करने आया हूँ।

प्रणाम भगवन, अचानक मेरे होंठों से यह शब्द निकले।

श्री भगवान जी: पूछो पुत्र!

गोविंद: भगवन,  सर्वप्रथम मुझे यह बताएं कि लोग लाखों-करोड़ों रूप में आप की पूजा करते हैं लेकिन क्या  शिव अथवा भोलेनाथ अथवा शिव गोरक्षनाथ के रूप में आप सर्वोपरि हैं?

श्री भगवान जी: यह सत्य है पुत्र।

गोविंद: लेकिन रामायण के अनुसार तो आप स्वयं श्री राम का नाम जपते हैं। (मंगल भवन अमंगल हारी, उमा सहित जेहू जपत पुरारी)

श्री भगवान जी: यह भी सत्य है पुत्र।

गोविंद: मैं समझा नहीं भगवन

श्री भगवान जी: हरी और हर में भेद मत करो वत्स। तुमने रामायण में शायद यह नहीं पड़ा कि रावण से युद्ध करने से पहले श्री राम ने शिव लिंग की स्थापना की।

गोविंद: भगवन, तो क्या श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीहनुमान अथवा आपके अन्य किसी रूप में कोई अंतर नहीं है?

श्री भगवान जी: सुनो वत्स, भगवान एवं भगवान के अवतार में केवल इतना ही अंतर है कि अवतार के रूप में, मैं मनुष्य रूप धारण कर के प्रत्येक युग में केवल एक बार किसी विशेष उद्येश्य से धरती पर आता हूँ। लेकिन उस समय भी अपने मूल रूप में कैलाश पर उपस्थित रहता हूँ। कभी-कभी तो मैं किसी दिव्य आत्मा को ही अपने प्रतिनिधि के रूप में किसी छोटे से कार्य हेतु पृथ्वी पर भेजता हूँ परंतु लाखों लोग उन्हें भी भगवान मानना शुरू कर देते हैं।

गोविंद: आत्मा और परमात्मा तो एक ही हैं न भगवन।

श्री भगवान जी: नहीं पुत्र। आत्मा प्रत्येक जड़ एवं चेतन्य रूप में विद्यमान है। आत्मा का आकार एवं शक्ति सीमित होती है। परंतु परमात्मा के साथ ऐसा नहीं है। जो सम्पूर्ण वैभव, सम्पूर्ण त्याग, सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण योग, सम्पूर्ण सौन्दर्य, सम्पूर्ण विद्याओं  एवं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का स्वामी है वह परमात्मा है। आत्मा सम्पूर्ण सृष्टि को  न उत्पन्न ही कर सकती है और न ही विनाश परंतु परमात्मा के लिए यह कार्य पलक झपकने के समान है। जिस प्रकार सूर्य की किरणों में सूर्य के सभी गुण होते हुए भी सूर्य भिन्न होता है इसी प्रकार परमात्मा आत्मा से भिन्न होता है।

गोविंद: क्या यह सत्य है भगवन कि आप को विभिन्न रूपों में अलग-अलग रंग के पुष्प अथवा व्यंजन पसंद हैं।

श्री भगवान जी: युग एवं काल के अनुसार मेरे अवतार के रूप में परिवर्तन होता है। तथा उसी अनुसार मेरी रुचि होती है। परंतु श्रद्धा एवं प्रेम के पुष्प तथा व्यंजन तो मुझे हर रूप में प्रिय हैं।

गोविंद: भगवन, क्या नारी को कुछ विशेष परिस्थितियों में आप की पूजा करने की मनाही है। कुछ लोग नारी को कुछ परिस्थितियों में अपवित्र समझते हैं।

श्री भगवान जी: यह मिथ्या धारणा है वत्स! अवतार को अपने गर्भ से जन्म देने वाली नारी भला कैसे अपवित्र हो सकती है।

गोविंद: क्या यह सत्य है प्रभु कि संतान को पिता से अधिक माता प्रिय होती है?

श्री भगवान जी: इस प्रश्न का उत्तर प्रत्येक युग में अलग अलग है। कलियुग में पहले एक वर्ष तक माता फिर अगले दो वर्ष दोनों समान रूप से प्रिय होंगे। फिर बारह वर्ष तक की आयु तक जो संतान की अधिक इच्छा पूर्ति करेगा वही प्रिय होगा। तदोप्रान्त इच्छा पूर्ति के साथ साथ बच्चा जिसको आसानी से मूर्ख बना लेगा वही अधिक प्रिय होगा। अतः यह भी संभव है कि किसी को दोनों ही अच्छे लगें अथवा एक भी अच्छा न लगे।

गोविंद: एक शंका है भगवन, श्री गणेश जी आप के पुत्र हैं परंतु गणेश पूजन तो शिव विवाह के समय भी किया गया था। \

श्री भगवान जी: श्री गणेश जी मेरे आदि पुत्र हैं और उमाजी मेरी आदि शक्ति। उमाजी का स्वरूप और नाम,  काल एवं युग के साथ बदलता है परंतु गणेशजी वही रहते हैं इसलिए व्यर्थ भ्रम में मत पड़ो।

गोविंद: भगवन, आपका आहवाहन किस मंत्र अथवा आरती से श्रेष्ठ होता है।

श्री भगवान जी: जो तुम्हारे मन से रचित हो और प्रेम सहित तुम्हारी वाणी पर आए।

गोविंद: भगवन आपका साक्षात दर्शन करके आपके चरणों का अमृत रस पीने की अति तीव्र अभिलाषा है।

श्री भगवान जी: उचित समय पर यह भी होगा वत्स। तब तक तुम अपने गुरु में ही मुझे किसी भी रूप में देख सकते हो। अब हम चलते हैं।

गोविंद: प्रणाम भगवन, और इसी के साथ स्वप्न भंग हो गया।

 

 

 

 

 

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