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जूतों की मार मुझे है स्वीकार

यहीं हास्य-व्यंग्य है जी
यहीं हास्य-व्यंग्य है जी
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बड़बोलनगुरू आज काफी खुश थे। यद्यपि अस्पताल के बेड़ पर पड़े थे, लेकिन फुलकर कुप्पा हुए जा रहे थे। मैं भी उनके खुशी में शामिल होने के लिए अस्पताल जा पहुंचा। देखा गुरू मुंह धुधुन फोड़कर बेड पर उछल-कुद कर रहे हैं। मैंने गुरू को जीवन में पहले इतना खुश कभी नहीं देखा था। एक पल तो मैं दुविधाग्रस्त हुआ कि इनको बधाई दूं या अस्पताल पहुंचने के लिए या खेद व्यक्त करूं। लेकिन भाभीजी ने जिस गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया था। उससे मेरी दुविधा समाप्त हो गई थी। अन्ततः उन्हें मै बधाई देना हीं बेहतर समझा और कहा मित्र यह दिन तुम्हारे जीवन मे बार-बार आए। भगवान करें कि तुम्हें हॉस्पिटल में रोज बिताना पड़े।
मैं शिकायत भरे लहजे में कहा यार शुभ दिन को भी मार-धाड़ क्या तुम्हे अच्छा लगता है। तुम तो खुदको को भारी विद्वान कहते हो फिर भाभीजी की गाली देने पर तुम्हें गुस्सा क्यों आता है। नम्रता तो विद्वानों का स्वाभाविक गुण है। यह सब क्या तुम्हेंं अच्छा लगता है। महासंग्राम तो बाद में भी किया जा सकता है। वे बोले यार मुझे तेरी बुद्धि पर तरस आती है। साठ साल की उम्र में भी तुम एक दम घोंपू के घोंपू रह गए हो। ठीक होकर तू घर चल तो भाभीजी से तुझे पिटवाऊंगा। फिर तेरी सारी फिलाॅसफी भुल जाएगी।
वे फिर बोले कि इनके द्वारा मेरी की जा रही आवाभगत को देखकर भी तुम्हें यह लग रहा है आज भी इन्होंने हीं मेरी यह दशा की है। माना कि हम दोनों के बीच महाभारत होता है। लेकिन उसके बाद इनका मैके गमन भी तो हो जाता है। मैने अपनी नासमझी पर अफसोस व्यक्त करते हुए कहा हां यार आज तुम्हारे और भाभी जी के प्यार को देखकर मुझे अपनी किस्मत पर रोना आता है। लगता है कि कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूं। फिर मैने कहा फिर बता यार तुम्हारी यह दशा किसने की है।
इस पर उन्होंने एक मीठी मुस्कान फेंकते हुए कहा अरे पोंगू तुम न्यूज-व्यूज पढते हो। क्या आज सुबह तुमने मेरी अखबार में फोटो नहीं देखी। फिर मैने अपने काॅमन सेन्स का प्रयोग किया और कहा कि लगता है यार तुम्हारी लाॅटरी लग गयी है और तुम मारे खुशी के मुंह-धुधन फोड़ लिए हो। फिर उन्होंने कहा कि अरे बुरबक अगर तुम्हारे पास इतनी सेंस होती तो तुम अब तक झक मारते। वो तो मेरे जैसा दीनदयाल ठहरा जो तुम्हारी कविता को झेल लेता है नहींं तो तुम्ही लिखते और तुम्हीं पढ़ते।
मुझे भी ताव आ गया और कहा कि देखो तुम कविता सुनकर मुझपर कोई एहसान नहीं करते हो, एक सुनने के बाद अपनी ग्यारह सुनाते हो। फिर उन्होंने कहा कि रंग में भंग मत डालो और मुझे बधाई दो। मैने कहा अरे काहे को बधाई कभी तुमने मुझे बधाई दी है। उन्होंने कहा कि मैने तुम्हें इसलिए बधाई नहीं दी है क्योंकी तुम आजतक बधाई का कोई काम हीं नहीं किए हो। मैने कहा कि तुम कौन सा तीर मार लिए हो। भाभीजी ने बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि तुम दोनो लड़ते हीं रहोगे या जस्न भी मनाओगे।
मैने भरे मन से बधाई दी कि यार तुम किस्मत वाले हो तुम्हारी लाॅटरी लग गई है। उन्होंने कहा कि हां यार मैं सचमुच किस्मत वाला हूं लेकिन लाॅटरी लगने से नहीं बल्कि जूता खाने से। आखिरकार मेरी सालों की साधना पूरी जो हो गई है। मेरा मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया जिसमें भाभी जी ने दो- चार लड्डू घुसेड़ दिया। फिर गुरू ने सारी कथा इस प्रकार सुनायी।
उन्होंने कहना शुरू किया कि देखो कवियों को गाली और ताली का कभी अकाल नहीं होता पर जूता पड़ने का सत्कार भी हर दम नहीं मिलता। हुआ यूं कि मैं एक कवि सम्मेलन में  कविता पाठ करने गया था। उक्त कवि सम्मेलन का उद्घाटन एक नेता जी को करना था। नेताजी समय पर नहीं पहुंचे, जैसा की नेताओं के साथ अक्सर होता है। भीड़ कविता सूनने के लिए बेकाबू होती जा रही थी। लेकिन उद्घाटन के अभाव में कविता पाठ हो तो कैसे। आयोजक ने भीड़ को नियंत्रित करने के लिए मुझे यानी झकझोर कवि को मंच पर भेजा। मैने वहां ऐसा समा बांधा कि भीड़ वंस  मोर वंस मोर कहकर गरियाने लगी। मैने भी अपनी सारी नयी पुरानी रचनाओं को सूना डाला।
मेरी कविता का लोगों पर ऐसा असर हुआ कि जिन्हें नीद नहीं आने की बीमारी थी उन्हें नीद आने लगी। भीड़ को मेरी कविता इतनी पसंद आई कि उन्होंने कविता के साथ उसका अर्थ बताने का भी अनुरोध किया। भीड़ ने बाद में मुझसे मुक्कालात भी किया। तभी नेताजी का लावा लष्कर के साथ आगमन हुआ। आयोजक से लेकर मंच पर मौजूद अतिथिगण तक नेताजी को माला पहनाने के लिए घुड़दौड़ करने लगे। उसके बाद नेताजी ने माइक संभाला और बोलना शुरू किया।
अब नेताजी का स्वागत करने की बारी जनता की थी, जनता जूता बरसा कर उनका स्वागत करने लगी। नेताजी को जनता का सत्कार इतना पसंद आया कि वह वहां से समय से पहले ही प्रस्थान कर गए। और बाकि सारे जूते मुझे खाने को कह गए। मैने भी अपने प्यारे नेता के आदेश का पालन किया और एक-एक करके जूते खाए।
भाई साहब का इतना सत्कार सुनकर मेरे मुंह से लार टपकने लगा।  मैंने कहा कि यार तुम सचमुच भाग्यशाली हो। ऐसे मौके जीवन में बार-बार थोड़े मिलते हैं। लेकिन इस खुशी के मौके पर तुम अपने सबसे प्रिय मित्र को भूल गए। कितना अच्छा होता कि हम दोनों भाई साथ मिलकर जूते खाते। खैर कोई बात नहीं अबकी कवि सम्मेलन हो तो मुझे भी कविता पाठ करने को ले चलना। लेकिन तुम्हारी कविताओं में वो जान नहीं जो लोगों को मंत्रमुग्ध करदे, उन्होंने कहा। नहीं है तो आ जाएगी न, मै भी तुम्हारी तरह दूसरों की कविताओं को सुनाया करूंगा।
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