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तुम गांव-गांव खेलो, हम शहर-शहर खेलेंगे

सच
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निकाय चुनाव निपट गया। नहीं, निपटाया गया। बसपा-सपा ने संतोष की सांस ली। नथूनों से कार्बनडाइन आक्‍साइड छोडा। अपने को यह समझाते हुए कि हम तो लडे ही नहीं। बसपा सत्‍ता में थी तो यह कदम उठाई। सपा सरकार में आई तो यही बात बताई। ऐसे में निकाय चुनाव क्‍यों। जब प्रदेश सरकार ही उसके औचित्‍य को नकार रही है। निकायों के गठन में अपने को शामिल नहीं कर रही है। तो, वह निकायों का भला करेगी, इसकी गारंटी क्‍या। तब, जबकि निकायों को इसी सरकार के मदद पर आश्रित रहना है। करोडो रुपये खर्च हुए। एक दिन छुट़टी रही। सबसे बडे राजस्‍व की स्रोत दारू की दुकानें बंद रहीं। मतदान हुआ। और मतगडना शुरू हुई तो मुख्‍यमंत्री विदेश चले गए। इतना जानने के लिए भी नहीं रूके कि शहरी जनता क्‍या संदेश दे रही है। ऐसे में यह मान ही लिया जाना चाहिए कि सपा और बसपा को शहरों से मात्र कर वसूली का मतलब है।
सवाल उठता है, कोई पार्टी अपनी ही सरकार की देखरेख में हो रहे किसी संवैधानिक चुनाव में भाग क्‍यों न ले। महज इसलिए कि जो परिणाम आएगा उससे आने वाला चुनाव प्रभावित होगा। प्रश्‍न यह भी है कि जिस सरकार का किसी चुनाव में रूचि नहीं है वह सरकार उसके परिणाम पर गठित संस्‍था यानी निकायों के विकास में कितना रूचि लेगी। जवाब सपा-बसपा जैसे दल चाहे जो भी दें, लेकिन जनता ने दोनों को टका सा जवाब दे ही दिया है। जो भी जीता वह मेरा और जो हारा वह तेरा, के फार्मूले को पूरी तरह से नकार दिया। बारह नगर निगमों में से दस पर भाजपा का कब्‍जा होना इसी बात का प्रमाण है। ऐसा नहीं है कि यहां सपा व बसपा चुनाव नहीं लडे, चुनाव तो दोनो सभी सीटों पर लडे, लेकिन अपने को जनता के सीधे सामने करने की साहस नहीं जुटा सके। इतने भर का लाभ भाजपा को नहीं मिला, बल्कि उसने यह भी संदेश दे दिया कि संवैधानिक व्‍यवस्‍था में उसे विश्‍वास है। शहर की जनता की चिंता मात्र वही करती है। इसी का नतीजा है कि सपा-बसपा को समय-समय पर साथ ले कर चलने वाली कांग्रेस को भी शहर के मतदाओं ने ठेंगा दिखा दिया।
मैं मुरादाबाद में था। यहां भाजपा प्रत्‍याशी को सत्‍तर हजार वोट के अंतर से जीत मिली। यहां सपा लड रही थी। यह अलग बात है कि एक को पार्टी संगठन अपना समर्थित प्रत्‍याशी बता रहा था तो दूसरा खुद अपने को समर्थित सपा प्रत्‍याशी बता रहा था। उम्‍मीद इनके जीतने की कतई नहीं थी, लेकिन इतनी उम्‍मीद जरूर थी कि ये कडी टक्‍कर देंगे। इस उम्‍मीद के कई कारण थे, सपा हाल ही में यहां की शहरी सीट को ले गई है, वह सरकार में है, यहां सर्वाधिक मुस्लिम मत है। पर, इन सारे कारकों को जनता ने ठीक वैसे ही नकार दिया जैसे सपा ने निकाय चुनाव को। जीतना तो दूर उसके प्रत्‍याशी दूसरे और तीसरे पर भी नहीं रहे। अलबत्‍ता दूसरे पर मुसलमानों ने तीस हजार की संख्‍या में वोट दिया, लेकिन सपा के बजाय पीस पार्टी के मुस्लिम प्रत्‍याशी को। यहां कांग्रेस तीसरे पर रही। यह केवल मुरदाबाद की ही बात नहीं है। यही हालत पूरे प्रदेश में रही और सपा बसपा महज यह कह कर अपराध बोध से बचते रहे कि वे चुनाव नहीं लडे। असल में यह उनका निजी स्‍वार्थ है। बसपा विधानसभा चुनाव इसलिए भी लडती है कि मायावती को सीएम बनना होता है, सपा भी इसीलिए लडती है कि मुलायम सिंह या पिफर उनके बेटो को मुख्‍यमंत्री बनाया जाना तय होता है। इन दोनों दलों में सीएम पद के लिए कार्यकर्ता या दल के अन्‍य नेता कभी योग्‍य नहीं हो सकते। इन्‍होंने योग्‍ता का एक ही मानक बना रखा है। बसपा है तो मायावती और सपा है तो यादव जी के परिवार का काई, जिसे मुलायम जी कह दें और वह अपने बेटे की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं। ये या इनका परिवार सीएम के ही लिए इस दुनिया में आए हैं। इनके नेता महापौर का चुनाव क्‍यों लडे जब उनके लिए इससे बडे पद की व्‍यवस्‍था है। इनकेलिए सांसद, विधायक, एमएलसी व राज्‍यसभा सदस्‍य के बडे पद हैं ही।
बात साफ है सीधा लाभ के बगैर यह कोई चुनाव नहीं लडना चाहते। पेंच जरूर फंसाते हैं। जानते हैं कि सत्‍ता हमारी है तो जो भी निर्दल होगा वह हमारी शरण में आएगा ही। क्‍योंकि, उसे अपने शहर के लिए पैसा तो हमारी सरकार से ही चाहिए। ऐसे में परिणाम बाद की गणित में आगे निकला जाएंगे। पर, इस बार ऐसा होता नहीं दिख रहा है। एक दो नहीं, बल्कि बारह में से दस भाजपा के हैं। अच्‍छा है कि ये मुख्‍यमी का चुनाव नहीं करते वरना इनकी जय के समय विदेश जाने वाले मुख्‍यमंत्री की कुर्सी ही डोल जाती।
एक बात और, जनता से, वोट जरूर दें, वोट जरूर दें की रट लगवाने वाला चुनाव आयोग भी सत्‍ता के आगे मौन व्रती हो जाता है। वह आम जन को तो मतदान को महादान बताता है, लेकिन पाटियों को चुनाव में शामिल होना अनिवार्य नहीं बनाता। निकाय चुनाव केवल चुनाव मात्र नहीं है, हमारे यहां सियासी सर्वैक्षण की सरकारी व्‍यवस्‍था न होने के कारण यह एक तरह से शहरी क्षेत्र के सियासी सर्वेक्षण का माध्‍यम भी है, जिसके परिणाम बाताते हैं कि कौन सा दल शहरी विकास के मामले में जनता का विश्‍वासपात्र है। ऐसे में इस बडी आबादी से सपा-बसपा का भागना मेरी नजर में जुर्म है, खास कर तब जब ये सरकार में होते हैं। चुनाव से भागने वाले इन दलों को अप्रत्‍यक्ष रूप से ही सही शहरी जनता ने शहरों से भगा दिया है। बता दिया है कि जब तुम्‍हे सीधे तौर पर हमारी जरूरत ही नहीं है तो हमें भी तुम्‍हारे समर्थित प्रत्‍याशियों की जरूर नहीं है। तुम गांव-गांव खेलों, हम शहर-शहर खेलेंगे, वक्‍त बताएगा तुम झेलोगे या हम झेलेंगे।

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