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शराब के ‘गंदे धंधेÓ में पैसे को पंख लगाने के लिए फुटकर गुंडई का फार्मूला पहली बार पोंटी चड्ढा ने अपनाया। उन्होंने ठेके जैसे-तैसे तो लिए ही सैकड़ों माडल वाइन शॉप पर अपने गुर्गों को बैठाकर बंदूक की नोक पर ग्राहकों से प्रति बोतल 50 से 80 रुपये की जबरन वसूली की शुरुआत भी कराई। जबरदस्ती का यह गुर पोंटी ने बचपन में ही सीख लिया था।
बचपन में वह दूसरों की पतंग काटने के लिए डोर में धातु का तार बांधा करते थे। यह और बात है कि इसी तार की वजह से एक दिन उनको बिजली का झटका लगा और अपना एक हाथ व दूसरे की उंगलियां गवां बैठे, लेकिन इससे भी सीख नहीं ली। जीत के लिए पतंग में तार बांधने का पैंतरा और खतरे जानने के बाद भी तार बंधी पतंग से जीतने की जिद का अंदाज अंत तक कायम रहा और पैंतरे व जिद से आगे बढ़ रही जिंदगी की जंग उन्हीं बंदूक, पिस्तौल और गोलियों की गूंज के बीच खत्म हुई, जिन्हें पोंटी ने अपने चारों ओर खुद ही खड़ा किया था।
पोंटी को मौत के घाट तक पहुंचाने वाली कौन सी थी?, इसके जानलेवा खेल के खिलाड़ी कौन-कौन हैं?-इन सवालों का सटीक जबाव तो पुलिस ही देगी पर पोंटी के गृह जनपद मुरादाबाद में जिद की हद तक जीत की चाहत और पतंग संग शुरू हुई पैंतरेबाजी की चर्चा के बीच लोग यह कहने से भी नहीं चूक रहे कि ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होएÓ।
छह प्रांतों में बीस हजार करोड़ रुपये के कारोबारी रहे पोंटी बात तो दिल से करते थे, लेकिन सुनते दिमाग की थे। दिमाग का उपयोग भी दुनिया को खुद की मु_ी में रखने के लिए। पतंगबाजी में डोर तक धातु के तार सरीखी पैंतरेबाजी का कारोबारी नजरिए से पहला इस्तेमाल पोंटी ने किया 1970 के दशक में। पिता कुलवंत सिंह चड्ढा द्वारा शराब कारोबार के लिए कदम बढ़ाए गए तो बाजार में देसी की एक दुकान के पास मेज व स्टोव के साथ कड़ाही में मछली फ्राइ करने का धंधा शुरू कराया पोंटी ने। कुछ ज्यादा दिमाग लगाया और इस साधारण से फ्राइ को पंजाबी फ्राई का नाम दिया तो यह काम भी चल पड़ा। यहीं से पिता ने भी बेटे के कारोबारी नजरिए का लोहा माना और धीरे-धीरे शराब के काम से जुड़े हिसाब-किताब लेनदेन का जिम्मा उन्हें सौंप दिया।
दिमाग के साथ काम और काम के साथ दिमाग आगे बढ़ा तो खतरे से खेलने के शौकीन पोंटी ने खतरनाक समझे जाने वाले इलाकों व काम में भी कदम बढ़ाए और खतरों से मुकाबले की अपनी ब्रिगेड भी तैयार कर ली। 1990 के दशक में उन्होंने पहली बार निर्माण के क्षेत्र में कदम बढ़ाया। काम भी उन्हीं के शौक के अनुरूप जोखिम भरा मिला। उन दिनों यूपी और बिहार की सीमा पर कुशीनगर में जंगल डकैतों का आतंक था। उनके डर से वहां के निर्माण कार्यों को कोई ठेकेदार लेने को तैयार नहीं था, जान का जोखिम था और रंगदारी देने की अनिवार्यता। इसके बावजूद पोंटी ने वहां पुल एवं सड़क निर्माण के ठेके लिए। डकैतों को मिला लेने व तय लागत में ही रंगदारी देने के बावजूद काम पूरा कराने के उनके इस गुर से ठेकेदारी में उनका वर्चस्व बढ़ गया। ऐसे में काम निकाल लेने के लिए शासन और प्रशासन पोंटी को काम देता गया तो पोंटी भी पैंतरेबाजी और दबंगई के साथ व्यावसायिक साम्राज्य के विस्तार में कदम बढ़ाते गए। उनका लोहा पिछली बसपा सरकार में तब यूपी के शराब कारोबारियों ने माना जब उन्होंने एक दो नहीं बल्कि यूपी के 80 फीसद शराब ठेकों पर कब्जा कर लिया। इस खेल में निश्चित तौर पर बड़ी रकम ही लगी होगी, जिसके कारण पुराने ठेकेदार यूपी के ठेकों से हाथ धो बैठे। पोंटी का दिमाग तो दूसरों की पतंग काटने के लिए पंतग की डोर में तार बांधने व बिजली के तार में उसके उलझने पर उसे निकलाने में अपना हाथ गंवाने तक का जोखिम उठाने वाला था, सो उन्होंने यूपी शराब साम्राज्य को बनाए रखने के लिए भी इस दिमाग का पूरा इस्तेमाल किया। नतीजे में देखते-देखते प्रदेश के अधिकांश ठेकेदार या तो उनके मैनेजर सरीखे हो गए या मैदान छोड़ गए।
शराब में थोक के साथ रिटेल और रिटेल में भी काउंटर सेल से लेकर माडल वाइन शॉप के संचालन तक मनमानी का खेल भी खुलकर चला। सियासत और सत्ता में रसूख कायम रखने में खर्च होने वाले धन का प्रबंध शराब की बिक्री मनमाने तरीके से कराते हुए निकाला। इसके लिए शराब की फुटकर बिक्री में एमआरपी का अर्थ ही बदल दिया। मैक्सिमम रिटेल प्राइज की जगह शराब में एमआरपी को मनमाना रिटेल प्राइज कहा जाने लगा। पूरे प्रदेश में प्रति बोतल पचास से अस्सी रुपये अतिरिक्त वसूली खुलेआम की गई।
इसके विरोध में उठने वाली आवाजें पोंटी की निजी विंग या ब्रिगेड के जांबाज दबा देते थे, जबकि तत्कालीन बसपा शासन को यह शिकायतें सुनाई ही नहीं देती थीं। प्रति दिन प्रदेश में चली करोड़ों की इस अवैध वसूली पर लगाम तब लग फरवरी में पोंटी के प्रतिष्ठानों व परिसरों पर एकाएक हुई छापेमारी से।
पोंटी के नजदीकी बताते हैं कि सालों तक चली इस आर्थिक मनमानी से ही पोंटी ‘शासन को पटाओ विरोधी को पीट कर भगाओÓ के निजी ट्रेड मार्क को लागू करने के खर्चों की भरपाई करते थे। क्योंकि इसको लागू कराने में प्रदेशभर में उनकी निजी ब्रिगेड सक्रिय थी। यह वही ब्रिगेड थी, जिसके गठन की शुरुआत उन्होंने कुशीनगर इलाके के छोटे से ठेके के साथ की थी और कारोबार संग इसका भी आकार बढ़ता गया। हर जिले के छुटभैया दबंगों को शामिल की गई इस फोर्स में धीरे-धीरे सुरक्षा अधिकारी सरीखे पदनाम तक इस्तेमाल हुए हाथों की कमजोरी से बंदूक चलाने में असमर्थ होते हुए भी पोंटी इशारे पर थोक गोलियां चलवाने की ताकत तक के स्वामी बने। संयोग ही है कि अंत भी थोक में चली गोलियों के बीच ही हुआ।
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