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गांवों में गांधी, लडें तो किससे

सच
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गांधी जी को हर साल याद किया जाता है। ऐसा होता रहना चाहिए। मैं उन्‍हें देश का इकलौता सम्‍मानित व्‍यक्ति मानता हूं। एक महात्‍मा से अधिक, एक मनोवैज्ञानिक के रूप में। आजादी की लडाई में जो व्‍यूह उन्‍होंने रचा वह इस बात का गवाह है। तोप के सामने अहिंसा ही सबसे बडा हथियार बन सकता था, उन्‍होंने इसे बनाया, जंग जीत ली। पर, एक सवाल उठता है। क्‍या उसके बाद सामाजिक तौर पर या आर्थिक तौर पर कोई जंग नहीं लडी गई। आजादी के बाद जो विकास का आयाम मिला क्‍या वह मात्र गांधी जी की सोच है। किसी व्‍यक्ति या समूह का योगदान नहीं। राय सबकी जुदा हो सकती है। मेरी भी है। मैं आजादी के बाद के भारत में हजारो गांधी देखता हूं। आधा दर्जन से हाल ही में मिल कर लौटा हूं। इनमें से कोई किसी सरकार के खिलाफ नहीं लडा, लडता तो लडने के लिए अपनी सरकार और अपना संविधान ही मात्र है। ऐसे में उनकी लडाई को लोकतंत्र व संविधान के खिलाफ करार दे दिया जाता। क्‍योंकि अब न तो अंग्रेज हैं और न ही अंग्रेजी सरकार। ऐसे में इन छोटे छोटे गांधियों ने अपने क्षेत्र और समाज की समस्‍या के खिलाफ जंग छेडी। रामपुर जनपद के अमर सिंह ने सभी के सहयोग से
नदी पर एक करोड का पक्‍का पुल बना कर यूपी और उत्‍तराखंड के दो सौ गांवों को रास्‍ते की समस्‍या से निजात दिलाया। सांथा के पशुपंत ने कम भूमि में अधिक उत्‍पादन के लिए दो दर्जन से अधिक किमती पहाडी पौधों की प्रजाति उगा कर इससे क्षेत्र के पांच हजार से अधिक किसानों को जोडा। वे इस काम में लगे हुए हैं। मुफ़त में बीज बांटते हैं। मुरादाबाद शहर में पर्यावरण को मजबूत बनाने के लिए योगेश सचान ने पापुलर की नर्सरी बनाई, 18 एकड में इस नर्सरी का विस्‍तार कर लाखों किसानों को जोडते हुए करोडो पौधे न केवल प्रक्रति को सौंपे बल्कि प्रत्‍येक माह इनकी देखभाल करने के लिए संबंधित किसानों के पास जाते हैं और मुफ़त में सलाह बांटते हैं। एक छोटे से ब्‍लाक छजलैट के अरविंद ने गांव में बिजली न पहुंचने पर अंधेरे के खिलाफ लडाई लडी। सोलर ऊर्जा को हथियार बनाया। खुद अपनाया और गांव वालों को मनाया, आज पूरा गांव सोलर ऊर्जा के बल पर रोशन है। महज दसवीं पांस सुरैश जैन ने एक एक कालेज खडा कर यूनिवर्सिटी बना दी, मुरादाबाद में खडी इसी यूनिवर्सिटी में दो दर्जन से अधिक कालेज हैं, सौ से अधिक पाठयक्रम और पंद्रह हजार से भी अधिक छात्र। यहीं की शिखा गुप्‍ता ने आंख के रोगी अपने सास ससुर की पीडा को समझते हुए एक उच्‍च स्‍तरीय आई अस्‍पताल बना दिया, इसमें जहां उच्‍च श्रेणी के मरीज भारी भरकम शुल्‍क पर इलाज कराते हैं वहीं पचास फीसद बेड सदैव गरीब मरीजों के लिए रिजर्व रखा जाता है। ऐसे मरीजों से एक भी पाई नहीं ली जाती है और दवा से आपरेशन तक फ्री होता है। गोरखपुर मंडल के महराजगंज जनपद के बिदा तिवारी तीन दर्जन से अधिक बार बुनियादी समस्‍याओं सडक व बांध के लिए धरना प्रदर्शन कर चुके हैं। ये चंद लोग हैं जो मुझे मिल गए, मेरी नजर में ये किसी गांधी से कम नहीं हैं। सरकार ने भी इनमें से कई को खेती व वन आदि के तोहफे से नवाजा है, लेकिन इनकी सफलता की कहानी को कभी भी विस्‍तार देने का प्रयास नहीं किया गया। बापू को हर साल याद करने वाले अगर ऐसे लोगों को एक अवसर अपने से, सरकार से जुडने को देते तो शायद बापू की नीति के ये निर्यातक बन जाते। गांव गांव में उनके प्रयास फलीभूत होते दिखते। इनके मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करते तो शायद गांधी जी का असली सम्‍मान होता, लेकिन सवाल वही कि अगर इन्‍हें सम्‍मान नहीं मिल रहा है, इनकी नीति को स्‍वीकार करने के बाद भी उसे सरकारी विस्‍तार नहीं मिल रहा है, इनको सम्‍मानित करने के बावजूद इनकी राह की समस्‍याएं नहीं खत्‍म की जा रही है तो ये बापू की तरह लडे किससे। बापू लडते थे तो देश हित में माना जाता है, अगर ये लडेंगे तो अपनी सरकार और अपने संविधान के खिलाफ। ऐसे में ये छोटे छोटे गांधी लडे तो किससे, इनका अपना गांधीवाद विस्‍तार पाए तो कैसे। क्‍या इनको अवसर इसलिए नहीं मिलना चाहिए कि अब इस देश में गांधी की नीति को बढाने के लिए किसी और गांधी की जरूरत नहीं है। वह भी तब जबकि बसह के मंचों पर आए दिन गांधी के विचार की प्रासंगिकता पर आंसू बहाए जा रहे हैं। मैं आज गांधी जयंती के अवसर पर गांधी जी के सम्‍मान में ऐसे ही जिंदा छोटे छोटे गांधी को करता हूं सलाम।

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