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मुहर्रम (ग़मगीन पर्व) पर विशेष भारत से इमाम हुसैन की शहादत का संबंध – हिन्दु मुस्लिम एकता की निशानी: – सैयद शहनशाह हैदर आब्दी

SHAHENSHAH KI QALAM SE! शहंशाह की क़लम से!
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मुहर्रम (ग़मगीन पर्व) पर विशेष
भारत से इमाम हुसैन की शहादत का संबंध – हिन्दु मुस्लिम एकता की निशानी:
– सैयद शहनशाह हैदर आब्दी
कहते हैं कि इमाम हुसैन ने यज़ीद की अनैतिक नीतियों के विरोध में मदीना छोड़ा और मक्का गए। मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहाँ पर किसी भी प्रकार की मानव हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है।

यज़ीद के सिपाही हाजी के भेष में पवित्र मक्का में इमाम हुसैन की हत्या के इरादे से पहुंच गये थे। मक्के में किसी प्रकार का ख़ून-ख़राबा न हो, उसकी मर्यादा क़ायम रहे अत: इमाम हुसैन ने हज की एक उप-प्रथा जिसको “”उमरा” कहते हैं, अदा किया और मक्का भी छोड़ दिया ।

इमाम हुसैन ने यज़ीद की सेनापति के सामने हिंद (भारत) आने का प्रस्ताव रखा लेकिन उन्हें घेर कर कर्बला लाया गया। ऐसे में भारत के साथ कहीं न कहीं इमाम हुसैन की शहादत का संबंध है- दिल और दर्द के स्तर पर। यही कारण है कि भारत में बड़े पैमाने पर मुहर्रम मनाया जाता है।

हम हिंदुस्तानी मोहर्रम को सच के लिये क़ुर्बान हो जाने के जज़्बे से शोकाकुल वातावरण में मनाते हैं, दत्त और हुसैनी ब्राहमण एवं शिया मुसलमान तो पूरे दस दिन सोग मनाते हैं, सादा भोजन करते हैं, काले कपडे पहनते हैं और ग़मगीन रहते हैं। यह पर्व हिंदू-मुस्लिम एकता को एक ऊँचा स्तर प्रदान करता है।

फिर उदारवादी शिया संप्रदाय के विचार धार्मिक सहिष्णुता की महान परंपरा की इस भारत भूमि के दिल के क़रीब भी हैं। सम्पूर्ण भारत में ताज़िए निकाले जाते हैं, अज़ादारी की जाती है। एक अनुमान के अनुसार उनमें से महज 25% ताज़िए और अज़ादारी ही शिया मुसलमानों के होते हैं बाकी अन्य मुस्लिम समुदाय और हिंदुओं के होते हैं।

झांसी में मोहर्रम में रानी लक्ष्मीबाई का “ताज़िया”, दयाराम बढई की “मस्जिद” और रमज़ान में श्री वीरेन्द्र अग्रवाल जी द्वारा हज़रत अली की शहादत पर ऐतिहासिक लक्ष्मीताल स्थित ख़ाकीशाह कर्बला पर प्रत्येक वर्ष आयोजित की जाने वाली “मजलिसे अज़ा” और “अलमे मुबारक” की ज़ियारत इसकी मिसाल हैं।

दरअसल इमाम हुसैन की शहादत को किसी एक धर्म या समाज या वर्ग विशेष की विरासत के रूप में क़तई नहीं देखा जाना चाहिए। पूरी दुनिया के लगभग सभी धर्म व समुदायों के शिक्षित व बुद्धिजीवी लोग, इतिहासकार तथा जानकार लोग हज़रत इमाम हुसैन द्वारा इस्लाम व मानवता की रक्षा के प्रति दी गई उनकी कुर्बानियों के क़ायल रहे हैं।

भारत वर्ष में महात्मा गांधी, बाबा साहब अंबेडकर, सरोजनी नायडू, पंडित जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी आदि सभी ने कहीं न कहीं किसी न किसी अवसर पर हज़रत इमाम हुसैन को अपने अंदाज़ से श्रद्धांजलि दी है। महात्मा गांधी ने तो डांडी यात्रा के दौरान 72 लोगों को अपने साथ ले जाने का फैसला हज़रत इमाम हुसैन के 72 व्यक्तियों के क़ाफिले को आदर्श मानकर ही किया था। महात्मा गांधी ने इस्लामी दर्शन से प्रभावित हो कर ही कहा था,” जियो तो अली की तरह- मरो तो हुसैन की तरह”।“

आज भी पूरे भारतवर्ष में विभिन्न स्थानों पर कई ग़ैर मुस्लिम समाज के लोगों द्वारा मोहर्रम के अवसर पर कई आयोजन किए जाते हैं। पानी की सबील लगाई जाती है। किसी हिन्दु शायर ने क्या खूब कहा है:-
”मैं हिन्दु हूं, क़ातिले शब्बीर नहीं हूं, नबी की आल को शिकवा भी नहीं है।
मेरे माथे की सुर्खी पे न जाओ, तिलक है खून का धब्बा नहीं है।“

सत्य, अहिंसा, न्याय और धर्म की रक्षा के लिए शहीद हो गए इमाम हुसैन !
अंग्रेज़ी कैलंडर वर्ष हो या अन्य दूसरे पंथों के वार्षिक कैलंडर की बात, सभी का प्रारम्भ विश्व में हर्षोल्लास से होता है, लेकिन इसे “इस्लाम धर्म” की बदक़िस्मती कहा जाएगा कि इस्लामी वर्ष हिजरी संवत का प्रथम मास “मोहर्रम” अपने आगमन के साथ झूठ, मक्कारी, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, दुष्ट विचारधारा, अत्याचार, क्रूरता, अन्याय और अधर्म के विरूध्द संघर्ष और सर्वश्रेष्ठ बलिदान के दर्दनाक हादसे के साथ शोकाकुल वातावरण में प्रारम्भ होता है।

रसूले ख़ुदा हज़रत मुहम्मद मुस्तफा के देहाँत के पश्चात उन के परिवारजनों पर अत्याचार
रसूले ख़ुदा हज़रत मुहम्मद मुस्तफा के देहाँत (28 सफर 11 हिजरी) के पश्चात तथाकथित मुसलमानों ने उनकी प्यारी बेटी – बीबी फातिमा पर बैइंतहा ज़ुल्म ढाये गये, रसूले ख़ुदा के देहाँत के पश्चात उनके रोने पर पाबंदी लगाई गई। घर का दरवाज़ा तोड कर उसमें आग लगा गई, जिससे बीबी फातिमा के गर्भ में ही उनके तीसरे पुत्र हज़रत मोहसिन की शहादत हो गई। निरन्तर किये जा रहे अत्याचारों के कारण रसूले ख़ुदा के देहाँत के मात्र 75 दिन के पश्चात 3 जमादीयुस्सानी 11 हिजरी को बीबी फातिमा भी चल बसीं।
उसके पश्चात रसूले ख़ुदा द्वारा अपने अंतिम हज से वापसी के दौरान ख़ुदा के हुक्म से “ग़दीर-ख़ुम” के मैदान में सवा लाख हाजियों के सम्मुख घोषित वास्तविक उत्तराधिकारी हज़रत अली पर 19 रमज़ान 40 हिजरी को सुबह (फज्र) की नमाज़ के दौरान सजदे की हालत में मस्जिदे-कूफा में ज़हर से बुझी तलवार से अब्दुल रहमान इब्ने मुल्जिम ने हमला किया। इस हमले के कारण 21 रमज़ान 40 हिजरी की सुबह हज़रत अली ने अंतिम सांस ली। यह तथा कथित इस्लामी आतंकवाद का सबसे पहला और बड़ा हमला था।
इसके पश्चात 28 सफर 50 हिजरी को रसूले ख़ुदा हज़रत मुहम्मद मुस्तफा के नवासे व रसूले ख़ुदा वास्तविक उत्तराधिकारी हज़रत अली व बीबी फातिमा के बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन को ज़हर देकर शहीद किया गया।
इमाम हुसैन और करबला
सन 61 हिजरी मोहर्रम में “करबला” की यह भूमि मौजूदा समय में जहां एक ओर इस्लाम के नाम पर फैलाए जा रहे आतंकवाद का दूसरा और सबसे बड़ा उदाहरण बनी, वहीं यही “करबला” उसी समय में समाजवाद, सर्वजन हिताय और सच्चाई के लिए हज़रत इमाम हुसैन के महान संकल्प और कुर्बानी की भी गवाह बनी।
हर साल की तरह इस वर्ष भी पूरी दुनिया में रसूले ख़ुदा हज़रत मुहम्मद मुस्तफा के नवासे व रसूले ख़ुदा वास्तविक उत्तराधिकारी हज़रत अली व बीबी फातिमा के छोटे बेटे हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवारजनों की लगभग साढ़े चौदह सौ वर्ष पूर्व हुई शहादत को याद किया जा रहा है। ऐसे में इस परम्परा के इतिहास को जानना दिलचस्प होगा।
रसूले ख़ुदा मोहम्मद मुस्तफा की वफ़ात के लगभग 50 वर्ष बाद इस्लामी दुनिया में ऐसा घोर अत्याचार, बेईमानी, लोभ और लालच का समय आया जबकि सन् 60 हिजरी में यज़ीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या) राज सिंहासन पर बैठा। उसने सिंहासन पर बैठकर मदीना के राज्यपाल वलीद पुत्र अतुवा को फरमान लिखा कि तुम इमाम हुसैन को बुलाकर कहो कि वह मेरी आज्ञाओं का पालन करें और इस्लाम धर्म के सिद्धांतों को ध्यान में न लायें। यदि वह यह फरमान न माने तो इमाम हुसैन का सिर काट कर मेरे पास भेजा जाये। वलीद पुत्र अतुवा (राज्यपाल) ने 25 या 26 रजब सन् 60 हिजरी को रात्रि के समय हज़रत इमाम हुसैन को राजभवन में बुलाया और उनकों यज़ीद का फरमान सुनाया। इमाम हुसैन जो उस समय क़ुरानेपाक और रसूले ख़ुदा मोहम्मद मुस्तफा के वास्तविक वारिस थे, वह इस बात को कैसे सहन कर सकते थे कि अल्लाह के सिद्धांत और रसूल ख़ुदा का फरमान दुनिया से मिट जाये। उन्होंने वलीद से कहा कि मैं एक व्यभिचारी, भ्रष्टाचारी, दुष्ट विचारधारा वाले, अत्याचारी, ख़ुदा और रसूल को न मानने वाले, यज़ीद की आज्ञाओं का पालन नहीं कर सकता। तत्पश्चात इमाम हुसैन मक्का पहुँचे ताकि हज की पवित्र प्रथा को पूरा कर सकें किंतु वहाँ पर भी हज़रत इमाम हुसैन को किसी प्रकार चैन नहीं लेने दिया गया। सीरिया (शाम) के बादशाह यज़ीद ने अपने सैनिकों को हाजियों के भेष में भेजा ताकि वे इमाम हुसैन को क़त्ल कर सकें।
मक्का एक ऐसा पवित्र स्थान है कि जहाँ पर किसी भी प्रकार की हत्या हराम है। यह इस्लाम का एक सिद्धांत है। मक्के में किसी प्रकार का ख़ून-ख़राबा न हो, उसकी मर्यादा क़ायम रहे अत: इमाम हुसैन ने हज की एक उप-प्रथा “जिसे उमरा” कहते हैं, अदा किया। यहाँ पर यह उल्लेख बहुत आवश्यक है कि इमाम हुसैन ने अपने चचाजाद भाई मुस्लिम को इराक़ के हाल जानने के लिए अपना दूत बनाकर भेजा था। इसी यात्रा के दौरान इमाम हुसैन को पता चला कि इराक़ के अत्याचारी राज्यपाल इबनेज़्याद ने उनके भाई और दूत को क़त्ल कर दिया। इमाम हुसैन को यह सुनकर बहुत सदमा हुआ। किंतु उन्होंने अपनी यात्रा स्थगित नहीं की क्योंकि इस यात्रा का लक्ष्य केवल मानव धर्म और इस्लाम की रक्षा करना था।
इमाम हुसैन की कर्बला यात्रा
मुहर्रम मास की 2 तारीख सन् 61 हिजरी को इमाम हुसैन अपने परिवार और मित्रों सहित कर्बला की भूमि पर पहुँचे और फुरात नदी के किनारे अपने ख़ैमे (तंबू) लगा दिये, परंतु 7 मोहर्रम को यज़ीद की फौजों ने हज़रत इमाम हुसैन व उनके साथियों को “फुरात नदी” के किनारे से हटा दिया और पानी बंद कर दिया । बताया जाता है कि उन दिनों मई का महीना था तथा भीषण गर्मी उस रेगिस्तानी क्षेत्र में पड़ रही थी। ऐसे में तीन दिनों तक हज़रत इमाम हुसैन व उनके पूरे परिवार के लोग उस रेगिस्तान में बिना पानी व खाने के भी रहे।
हज़रत इमाम हुसैन ने 9 मोहर्रम तक यजीद की सेना को इस्लामी सिद्धांतों को समझाया और अपने आप को पहचनवाया। उन्होंने कहा, “कि लोगों, मैं हज़रत मोहम्मद मुस्तफा का नवासा हूँ। रसूले ख़ुदा ने मुझे अपने कन्धों पर बिठाया है। मैं रसूले ख़ुदा के वास्तविक उत्तराधिकारी हज़रत अली का बेटा और रसूले ख़ुदा की बेटी बीबी फ़ातिमा का पुत्र हूँ। तुम लोग मेरे कत्ल पर क्यों आमादा हो। इस गुनाह से बाज आ जाओं, इंसान को इंसान समझों, किसी पर अत्याचार न करों क़ुरान शरीफ़ के सिद्धांतों का पालन करों, ख़ुदा से डरो, यह संसार मानवता का संसार है। हर एक के साथ भला करो। और अच्छे-बुरे हर एक मसले में ख़ुदा निर्णायक है जो जैसा कर्म करेगा वह वैसा ही फल पायेगा।”
हज़रत इमाम हुसैन की इन बातों का यज़ीद की फ़ौज पर कोई असर नहीं हुआ। जब वह किसी प्रकार भी नहीं माने तो हज़रत इमाम हुसैन ने कहा कि तुम मुझे एक रात की मोहलत दे दो ताकि मैं उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की इबादत कर सकूं। यजीद की फ़ौजों ने किसी प्रकार इमाम हुसैन को एक रात की मोहलत दे दी। उस रात को “शबे आशूर” कहा जाता है। हज़रत इमाम हुसैन ने उस पूरी रात अपने परिवार वालों तथा साथियों के साथ अल्लाह की इबादत की। इसका लाभ यह हुआ कि इमाम हुसैन को घेर कर ‘करबला’ लाने वाला यज़ीद का एक सेनापति “हुर” अपने परिवार और ग़ुलाम के साथ इमाम हुसैन की शरण में आगया और अपने कृत्य की क्षमा याचना की। इमाम हुसैन ने भी उसे क्षमा कर गले से लगा लिया। यह इमाम हुसैन के मिशन की प्रथम विजय थी।
मुहर्रम की 10 तारीख को सुबह ही यज़ीद के सेनापति “उमर बिन साद” ने यह कहकर एक तीर छोड़ा कि गवाह रहे सब लोग, सबसे पहले तीर मैंने चलाया है। तत्पश्चात लड़ाई आरम्भ हो गई।
सुबह की नमाज़ से असर की नमाज़ (लगभग चार बजे शाम) तक हज़रत इमाम हुसैन के सभी पुरुष साथी एक के बाद एक करबला के मैदान में यज़ीदी लश्कर के हाथों शहीद हो गए। जिनमें 32 वर्षीय भाई हज़रत अब्बास व 18 वर्ष के उनके पुत्र अली अकबर, 8 था 9 वर्षीय भांजे ओन-ओ-मोहम्मद, 13 वर्षीय भतीजा-क़ासिम, बचपन का दोस्त हबीब इब्ने मज़ाहिर तथा अन्य साथी और रिश्तेदार शहीद हुए वहीं यज़ीदी लश्कर ने उनके मात्र 6 महीने के भूखे व प्यासे पुत्र अली असग़र को भी तीर मारकर शहीद कर दिया। इतिहास के अनुसार हज़रत इमाम हुसैन उस मासूम बच्चे की प्यास बुझाने के लिए निहत्थे होकर तथा अली असग़र को अपनी गोद में लेकर दुश्मन से पानी मांगने मैदान में गए थे। परंतु यज़ीदी सेना ने 6 महीने के अली असग़र को पानी देने के बजाए तीर चलाकर हज़रत इमाम हुसैन की गोद में ही शहीद कर दिया। यह थी अत्याचार की पराकाष्ठा ।
तत्पश्चात हज़रत इमाम हुसैन पर जो ज़ुल्म हुआ उसका किसी प्रकार भी शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। उन्होंने तीन दिन से भूखे-प्यासे हज़रत इमाम हुसैन को क़त्ल कर दिया। केवल उनके एक पुत्र ज़ैनुलआबदीन जो उन दिनों काफी बीमार थे और बीमारी के कारण युद्ध नहीं लड़ सके, वे जि़ंदा बचे थे जिन्हें बाद में हज़रत इमाम हुसैन का उत्तराधिकारी इमाम घोषित किया गया।
करबला की दिन भर चली यज़ीद की सेना की आतंकवादी करतूत के बाद इमाम ज़ैनुलाबदीन व उनके परिवार की सभी महिलाओं और बच्चों को गिरफ्तार किया गया। दस मोहर्रम की इस काली शाम को “शाम-ए-गरीबां” के नाम से याद किया जाता है। इमाम ज़ैनुलाबदीन के हाथ में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी और गले कांटेदार तौक़ व उनके परिवार के हाथों में और बच्चों के गले एक ही रस्सी से बांधे गये। तथा करबला से कूफा और कूफा से शाम के बाज़ारों में उन्हें बेपर्दा घुमाया गया। फिर उनकों इराक के राज्यपाल “इब्नेज़्याद” के पास ले जाया गया। दुष्ट, भ्रष्ट और नास्तिक “इब्नेज़्याद” ने इस क़ाफिले को शाम के दुष्ट बादशाह “यज़ीद” के पास भेज दिया।
दुष्ट बादशाह “यज़ीद” जो इस्लाम का दुश्मन था और रसूले ख़ुदा मोहम्मद मुस्तफा का मजाक उड़ाता था वह इस क़ाफिले को इस हालत में देखकर बहुत खुश हुआ, किंतु कुछ दिनों के बाद ही आम जनता को सत्य का बोध और ग़लती का एहसास हुआ, उसने अत्याचारी यज़ीद के ख़िलाफ बग़ावत कर उसकी बादशाहत खत्म कर दी और वह बुरी मौत मरा। हज़रत इमाम हुसैन पर जुल्म करने वाले कोई गैर नहीं थे बल्कि वही थे जो अपने आपको मुसलमान कहते थे।
हज़रत इमाम हुसैन की शहादत के बाद, उनके पुत्र – हजरत इमाम जै़नुलआबेदीन अलैहिस्सलाम से ही नस्ले इमाम हुसैन आगे बढ़ी और ““सादात”” कहलाई। यह आज दुनिया भर में फैली हुयी हैं।
इस्लाम आज भी ज़िंदा है, क़ुराने पाक आज भी बाक़ी है, रोज़ा, नमाज़ अब भी ऐसी ही है और आगे भी रहेंगे। यह सब कुछ हज़रत इमाम हुसैन साहब और उनके बहत्तर साथियों की अज़ीम क़ुर्बानी से ही सम्भव हो सका है। हज़रत इमाम हुसैन की क़ुर्बानी अमर है।
सत्य पर, धर्म पर मर मिटने का इससे नायाब उदाहरण विश्व इतिहास में कहीं और ढूँढ़ना कठिन है। इन्हें अपनी शहादत का पता था। ये जानते थे कि आज वह कुर्बान होकर भी बाजी जीत जाएँगे। युद्ध एकतरफा और लोमहर्षक था। यज़ीद की फौज ने बेरहमी से इन्हें कुचल डाला। अनैतिकता की हद तो यह थी कि शहीदों की लाशों को दफन तक न होने दिया बल्कि उनपर घोड़े दौड़ा कर लाशों को पामाल किया गया।
सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल बने हज़रत इमाम हुसैन (अ.ल.) ने तो जीत की परिभाषा ही बदल दी। उनकी शहादत आज भी आतंकवाद और आतंकवादियों के मुंह पर करारा तमाचा है। उनकी शहादत से समाज के अंदर एक नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमानजनक जीवन से सम्मानजनक मृत्यु श्रेष्ठ है। क्योंकि इमाम हुसैन ने कहा था,”ज़िल्ल्त की ज़िंदगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है।“ “
इस्लामी नये साल के आगमन पर “मुबारक बाद” देने का औचित्य?
कितने अफ़सोस की बात है कि हम इस्लामी नए साल की हकीकत जाने बिना, अंग्रेजों की नकल करते हुए इस्लामी नए साल की मुबारक देने लगे हैं। यह सिलसिला पिछले कुछ साल से शुरू हुआ है।

इस्लामी नये साल की मुबारकबाद देने वाले मुसलमान बताएं कि क्या कभी उनके खानदान के बुजुर्गों ने इस्लामी नए साल की मुबारकबाद दी थी?

क्या रसूले खुदा ने कभी इस्लामी नए साल की मुबारकबाद दी?

चारों खुलाफाये राशेदीन, मुसलमानों के चारों मोहतरम इमामों, अन्य किसी औलिया-ए-इस्लाम और अकाबीरीनेमिल्ल्त से लेकर डा0 ऐ0पी0जे0 अबुल कलाम तक किसी विद्वान में से किसी ने भी कभी ऐसा किया था?

अगर हाँ तो हमारी भी मालूमात में इजाफा फरमाएं।

हमारी जानकारी के अनुसार “हिजरी”- शब्द “हिजरत” से उत्पन्न हुआ है। रसूले ख़ुदा हज़रत मुहम्मद मुस्तफा सल्लाहों अलैह व आलेही वसल्लम को इतना परेशान किया गया कि वो अपना वतन छोड़ने को बाध्य हो गये और उन्होंने मक्का शहर से मदीना शहर में हिज़रत की थी। इसके बाद से इस्लामी वर्ष की गणना “हिजरी” से की जानी जाने लगी।

रसूले ख़ुदा का परेशान होकर शहर छोड़ना “मुबारकबाद और बधाई” देने का अवसर कब से हो गया?

कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। इस घटना ने पूरी आलमे इनसानियत को हिला कर रख दिया था। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीक़ा अपनाना चाहिए। जबकि आज ज़्यादातर आमजन दुनियावी उलझनों में इतना उलझ गया कि दीन की सही जानकारी न के बराबर हासिल कर पाया है। अल्लाह और रसूले ख़ुदा वाले तरीक़ों से लोग वाकिफ ही नहीं हैं।

किसी की शहादत और परेशानी पर जश्न मनाना और बधाई का आदान प्रदान करना इंसानियत के विरुध्द भी है। ऐसे में जरूरत है हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर ग़ौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करनेकी। क्योंकि जिबरील-ए-अमीन फरिश्ते ने इमाम हुसैन की शहादत की सूचना जब रसूले ख़ुदा कि दी तो वो भी रोये थे।

क्या किसी मुसलमान में हिम्मत है कि कहे,” या रसूलल्लाह, आप को परेशान कर बेघर कर दिया गया। उसके बाद आपका प्यार नवासा शहीद कर दिया गया। उसके भाई, बेटों, भतीजो भांजो और दोस्तों को नहीं बख्शा गया। उसका छ: माह का बेटा भी मारा गया। आपका घर लूट लिया गया।

लेकिन इस्लाम बच गया इसलिए आपको इस्लामी नया मुबारक हो।”

अगर आप इंसानी दिल रखते हैं और रसूले खुदा से हकीकी मोहब्बत करते हैं तो सोचिये , किसी की परेशानी और गम पर मुबारक बाद देना कहां की इंसानियत है?

फिर खूब इस्लामी नये साल की मुबारक दीजिये।

वर्तमान समय में जबकि इस्लाम पर एक बार फिर उसी प्रकार के आतंकवाद की काली छाया मंडरा रही है। साम्राज्यवादी व आतंकवादी प्रवृति की शक्तियां हावी होने का प्रयास कर रही हैं तथा एक बार फिर इस्लाम धर्म उसी प्रकार यज़ीदी विचारधारा के शिकंजे में जकड़ता नज़र आ रहा है।

ऐसे में हज़रत इमाम हुसैन व उनके साथियों द्वारा करबला में दी गई उनकी कुर्बानी और करबला की दास्तान न सिर्फ प्रासंगिक दिखाई देती है बल्कि हज़रत हुसैन के बलिदान की अमरकथा इस्लाम के वास्तविक स्वरूप व सच्चे आदर्शों को भी प्रतिबिंबित करती है। इस्लामी रंगरूप में लिपटे आतंकवादी चेहरों को बेनक़ाब किए जाने व इनका मुकाबला करने की प्रेरणा भी देती है।
हमें गर्व है कि हम हिन्दुस्तानी हैं और इमाम हुसैन के “अज़ादार” हैं। इसलिये वर्तमान आतंकवाद, अन्याय, अत्याचार और पक्षपात के विरूध्द सशक्त संघर्ष कर ही करबला के शहीदों को सच्ची श्रृध्दांजली दे सकते हैं।
सैयद शहनशाह हैदर आब्दी
(मो0न0-09415943454 ई-मेल: abidibhel@yahoo.co.in.)
वरिष्ठ समाजवादी चिंतक

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