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अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर विशेष : खामोशी तोड़ो, आगे आओ ! मई दिवस की अलख जगाओ !!

SHAHENSHAH KI QALAM SE! शहंशाह की क़लम से!
SHAHENSHAH KI QALAM SE! शहंशाह की क़लम से!
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यह खामोश मिजाज़ी तुम्हें जीने नहीं देगी  – दुनिया में जो जीना है तो कोहराम मचा दो ।

छिन गये अधिकारों को फिर से लड़कर लेना होगा! हर ज़ोर-ज़ुल्म का ज़ोरदार जवाब हमको देना होगा!!

 

हे ईश्वर! मुझे काम दीजिये जब तक की मेरी ज़िन्दगी न खत्म हो जाए और ज़िंदगी दीजिये जबतक की मेरा काम न खत्म हो जाए – एक मजदूर की सबसे बड़ी तमन्ना यही होती है ।

 

सरदार भगत सिंह  कहते हैं,”इंक़लाब  मानव जाति का एक अपरिहार्य अधिकार है । आज़ादी सभी का एक कभी न खत्म होने वाला जन्म सिध्द अधिकार है। श्रम/मेहनत समाज का वास्तविक निर्वाहक है।“

हम यह साफ़ कर देना चाहते हैं कि हमारी बात उन मज़दूरों के लिए नहीं है जो ग़ुलामी और ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी जीने के आदी हो चुके हैं, मालिकों की गालियाँ खाये बिना जिन्हें नींद नहीं आती। हमारी  बात उन मेहनतकशों के लिए भी नहीं है जो दलाल, सौदेबाज़ यूनियनों के भ्रष्ट नेताओं के अन्धे पिछलग्गू बनकर चंद रुपयों की रियायतों या छोटी मोटी सहूलियत की भीख पाकर संतुष्ट रहते हैं। हमारी बात  उन ग़र्म ख़ून वाले मज़दूरों के लिए है जिनके दिलों में शोषण और ज़ुल्म के खि़लाफ बग़ावत की आग सुलग रही है और पूँजी से बराबरी के सपने देख सकते हैं। यदि आप फिर से संगठित होकर इक्कीसवीं सदी में मज़दूर मुक्ति की ऐतिहासिक लड़ाई के नये दौर में शामिल होने की हिम्मत रखते हैं पूंजी के बराबर का हक़ चाहते हैं तो हमारी बात सुने।

 

पूंजी और श्रम एक दूसरे के पूरक हैं, ग़ुलाम नहीं । दोनों का अपना अपना महत्त्व है । इनका आपसी टकराव स्वस्थ और समग्र समाज की रचना नहीं कर सकता । लेकिन  दुर्भाग्य यही है कि मई दिवस का इतिहास पूँजी की ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ देने के लिए उठ खड़े हुए मज़दूरों के ख़ून से लिखा गया है। जब तक पूँजी की ग़ुलामी बनी रहेगी, संघर्ष और कुर्बानी की उस महान विरासत को दिलों में सँजोये हुए मेहनतक़श लड़ते रहेंगे। पूँजीवादी ग़ुलामी से आज़ादी के जज़्बे और जोश को कुछ हारें और कुछ वक़्त के उलटाव-ठहराव क़त्तई तोड़ नहीं सकते। समय चलायमान है, करोड़ों मेहनतक़श हाथों में तने औज़ार एक बार फिर उठेंगे और पूँजी की बे-ईमान सत्ता से अपना बराबर का हक़ लेकर रहेंगे।

 

“नहीं मिलता सुकूं अमीरों को रेशम के बिस्तर पर – मज़दूर खा के सूखी रोटी बड़े आराम से सोता है।“

 

1886 के मई महीने में ‘काम के घण्टे आठ’ की माँग को लेकर अमेरिका के शिकागो शहर के मज़दूरों ने जो ज़बरदस्त संघर्ष किया और जो महान कुर्बानियाँ दीं, उन्होंने पूरी दुनिया के मज़दूरों को जगा दिया। सरकार ने इस हड़ताल को कुचलने के लिए पूरी ताक़त झोंक दी जिसमें कई मज़दूर शहीद हुए। झूठे आरोपों में मुकदमा चलाकर मई आन्दोलन के चार नेताओं – पार्सन्स, स्पाइस, फिशर और एंजेल को फाँसी दे दी गयी। लेकिन उस आन्दोलन से भड़की ज्वाला जंगल की आग की तरह यूरोप और फिर पूरी दुनिया में फैलती चली गयी। 1887 में मज़दूर वर्ग की पार्टियों के पेरिस सम्मेलन में मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक और कार्ल मार्क्स के सहयोगी फ्रेडरिक एंगेल्स के प्रस्ताव पर 1 मई को हर वर्ष ‘अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस’ मनाने का प्रस्ताव पारित हुआ। तबसे मई दिवस दुनिया भर के मज़दूरों का पर्व बन गया। मई दिवस हमें इस बात की याद दिलाता है कि मज़दूर वर्ग को सिर्फ़ आर्थिक माँगों की लड़ाई में नहीं उलझे रहना चाहिए, बल्कि उससे आगे बढ़कर अपनी राजनीतिक माँगों की लड़ाई लड़नी चाहिए, एक इंसान की तरह जीने का हक़ माँगना चाहिए। राजनीतिक माँगों की यह लड़ाई राजनीतिक पूँजीवादी लोकतंत्र की सारी जालसाज़ियों को नंगा करती है, पूँजीवाद की जड़ों पर चोट करती है और पूँजीवाद से बराबर का हिस्सा मांग कर राजकाज और समाज के ढाँचे के समाजवादी पुनर्निर्माण की दिशा में मज़दूर संघर्षों को आगे बढ़ाती है।

बीसवीं सदी में मज़दूर वर्ग ने अनगिनत बहादुराना संघर्षों की बदौलत बहुत सारे क़ानूनी और बराबरी के हक़ हासिल किये। यही नहीं, सोवियत संघ, चीन और कई देशों में पूँजीवाद को उखाड़कर उसने मज़दूर राज भी क़ायम किये। लेकिन पहले राउण्ड की ये जीतें स्थायी नहीं हो सकीं। पूरी दुनिया की पूँजी अपनी एकजुट ताक़त और मज़दूर वर्ग के गद्दारों की मदद से मज़दूर वर्ग को एक बार फिर पीछे धकेलने में और मज़दूर राज्यों को तोड़ने में कामयाब हो गयी। तबसे पूरी दुनिया में उदारीकरण (लिब्रालाईज़ेशन {L}),निजीकरण (प्राईवेटाईजेशन {P}) और वैश्वीकरण (ग्लोबेलाईज़ेशन {G} ) की जो उलटी लहर चल रही है, उसने अनगिनत कुर्बानियों से हासिल मज़दूरों के सारे अधिकारों को फिर से छीन लिया है।LPG गैस की तरह मेहनतकशों के ख़्वाबों को जला कर रख दिया। आज पूँजी की चक्की मज़दूरों की हड्डियों तक का चूरा बना रही है और शोषण की जोंकें उनकी नस-नस से लहू चूस रही हैं। मज़दूर वर्ग की नकली पार्टियाँ और भ्रष्ट दलाल यूनियनें इस काम में पूँजीवाद की मदद ही कर रही हैं।

आप तो जानते ही हैं कि अब हमारे इस महान देश में पूंजीवादी तय करते हैं कि देश की सत्ता को कौन संभालेगा? अगर अंदाजा नहीं हो तो जरा पीछे मुड़कर देख लीजिये। अंबानी, अडानी आज सत्ता तय कर रहे हैं। पहले यह काम टाटा और बिड़ला ख़ानदान किया करते थे। गोदरेज और दूसरों को क्यों भूला जाए, वह भी इसके हिस्सेदार थे। समय के साथ नेता नेपथ्य में गए तो यह कंपनियां भी हाशिए पर आ गई हैं।

 

इस देश में कारोबार करने के लिए सत्ता का रसूख चाहिए, आप किस पार्टी के साथ जुड़े हैं…यह आपके कारोबार दशा और दिशा तय करता है। अगर अंदाजा नहीं है तो गौतम अडानी साहब को ही देख लीजिये , कुछ साल पहले तक साहब कहां थे और आज कहां हैं? वैसे आपको बता दूं कि अडानी साहब के लिए हजारों करोड़ का एलओयू एसबीआई बैंक ने साइन किया है, जिसका फायदा साहब आस्ट्रेलिया में उठा रहे हैं। यह एलओयू मोदी सरकार के आने के बाद हुआ है, इसलिए अगर यह भी कांग्रेस की सरकार में गली देखें तो कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए। नेपथ्य में जाने का वक्त अंबानी और अडानी का भी आएगा, लेकिन कब यह तो सरकार का रुख ही तय करेगा। लेकिन एक बात हिंदुस्तान में पूरी तरह से स्पष्ट है कि यहां सरकारें तय करती हैं कि कारोबार के शिखर पर कौन होगा और पूंजीवादी तय करते हैं कि सत्ता के शीर्ष पर कौन रहेगा? पिछले कुछ सालों में  लोकतंत्र के नाम देश में राजनीतिक पूंजीवादी व्यवस्था लागू की जा चुकी है। ‘हबीब गंज’ रेलवे स्टेशन के बाद अब ‘लाल किले’ जैसी ऐतिहासिक धरोहर को पूंजीवादियों के हाथ सौंप दिया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र  के उपक्रमों  पर सरकार की लालची नज़र है, इन्हें कब अपने चहेते पूंजीपतियों को सौंप दे –पता नहीं

 

सत्ता पाने के लिए पार्टियां पैसों को पानी की तरह बहाती हैं। अब यह पैसा नेताओं के घर से तो आता नहीं है। न ही पार्टियों की खुद की कोई खेती—किसानी है जिससे उनका खर्चा चले। ऐसे में यही पूंजीवादी ही सोने का अंडा देने वाली मुर्गी होती है। एक बात याद रखिए कि यह मुर्गी भी समझदार है, जितना लगाती है…उससे कई गुना ज़्यादा मुनाफा वसूलती है। इस मुनाफे के खेल में सरकारों का हिस्सा भी शामिल है। सरकार के हिस्सेदारों का भी हिस्सा इसमें होता है। ये हिस्सेदार अफसर और नेताओं का गठजोड़ होता है। यह एक ऐसा कॉकस होता है, जिसे तोड़ पाना किसी भी सरकार के वश में फिलहाल तो नहीं है। यही अडानी की कारोबारी स्पीड को रोकने के लिए कांग्रेसी अंबानी परिवार को मोदी की शरण में आना पड़ा। 

क्या आपको नहीं मालूम है कि सरकारें कैसे खैरात में विशेष आर्थिक क्षेत्र के नाम पर अपनी पसंदीदा कंपनियों को ज़मीन बांटती हैं। …कैसे खैरात में ठेके देती हैं…कैसे इन कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए नीतियां तक बदल दी जाती हैं। तर्क दिया जाता है कि प्रदेश में निवेश का माहौल बनाने के लिए यह सब कुछ ज़रूरी है। अगर कोई आड़े आया तो उसको किनारे लगाने में कहां देर लगती है? अगर भरोसा नहीं तो कभी मध्यप्रदेश सरकार की उद्योग मंत्री रहीं यशोधरा राजे सिंधिया से पूछ लीजिएगा। अंबानी परिवार की कंपनी को बिना किसी वजह के मुनाफा देने का विरोध किया तो मंत्रालय से ही रवाना कर दिया गया। इतना बेइज़्ज़त किया गया कि आज भी नेपथ्य में रहकर राजनीति कर रही हैं। वो तो सिंधिया परिवार से थीं, लेकिन बाक़ियों के बारे में तो पता भी नहीं चल पाता है। हर्षवर्धन साहब को ही देख लीजिये, दवा कारोबारियों ने उन्हें स्वास्थ्य मंत्रालय से एक झटके में ही रुख़सत करा दिया था। अब सवाल वही है कि कंपनियों को लगभग फ्री में सब कुछ देने के बदले सरकारें उनसे पीछे के रास्ते क्या वसूलती हैं? कभी पता  करके देखिए, पांव तले से ज़मीन खिसक जाएगी। 13 अप्रैल 2018 को भारत की सरकार ने अपनी जनता पर ही  हवाई हमले की शुरूआत कर दी। उसने झारखण्ड के सांगाकारा जंगल के क्षेत्र को भी सीरिया बना दिया है, जहां लगातार हवाई हमले हो रहे हैं, जिसमें छोटे बच्चों समेत स्थानीय आदिवासी नागरिक मारे जा रहे हैं, जिसकी खबर शायद ही बाहर आ पाये।

 

और इन हमलों के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन भी उतने बड़े पैमाने पर नहीं हो रहे हैं क्योंकि यह हमला इस झूठ के साथ किया गया है कि यह माओवादियों पर किया गया हमला है। झारखण्ड के पश्चिम सिंहभूमि के इन दिनों के अख़बारों पर एक नज़र डालें तो ख़बर मिलती है कि यहां के पश्चिम सिंहभूमि के सांगाकारा जंगल में पहाड़ियों पर सरकार की सैन्य एजेन्सियां सीआरपीएफ, बीएसएफ, व कोबरा बटालियन ने इस क्षेत्र पर 13 अप्रैल की सुबह से हवाई हमला शरू कर दिया, उस समय, जब लोग अपने घरों में सोये रहे होंगे।

 

ये हमले दुश्मन को चिन्हित करके निशाना बनाने वाले किसी हथियार से नहीं, बल्कि मोर्टार तथा अंडर बैरेल ग्रेनेड लांचर यानि यूवीजीएल से किया है, जैसा कि यहां के पत्रकार रूपेश कुमार सिंह ने लिखा है कि इन हथियारों का इस्तेमाल कारगिल युद्ध के समय किया गया था। इस कारण सरकार का यह बहाना लेना कि यह हमला माओवादियों पर किया गया है, एकदम झूठ है। यह हमला मानवाधिकरों का खुला उल्लंघन है, यह हमला अपने ही देश की जनता और मेहनतकशों  के खिलाफ एक युद्ध है, जो दरअसल यहां के प्राकृतिक संसाधनों को साम्राज्यवादी पूंजीपतियों को सौंपने के लिए है।

 

यह सरकार की अपने जनता के खिलाफ की जा रही फासीवादी कार्यवाही है।

 

छतीसगढ़ के बस्तर ज़िले में आदिवासियों की उपजाऊ ज़मीन अपने चहेते पूंजीपतियों को देने के लिए आदिवासियों, किसानों और मज़दूरों पर ज़ुल्म की इंतिहा कर दी गयी । मर्दों पर ज़बरदस्त अत्याचार कर उन्हें झूठे मामलों में फंसाकर जेल में डाल दिया गया या नक्सली घोषित कर इनकाउंटर कर दिया गया, महिलाओं से बलात्कार कर उनके जननांगो में पत्थर ठूंस दिए गए। इनकी मदद करने वाले समाज सेवियों, पत्रकारों और वकीलों को भी प्रताड़ित किया जा रहा है। झूठे मुक़दमें लिखाए जा रहे हैं।

 

“सबका साथ – सबका विकास” का नारा देने वाले खुल्लमखुल्ला पूंजीपतियों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं ।  बात यहीं खत्म नहीं होती, पूंजीपतियों को लिखकर दिया जा रहा है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र में लग रहे उद्योगों में ट्रेड युनियन का गठन प्रतिबंधित रहेगा। एसईजेड से होने वाले निर्यात पर कस्टम ड्यूटी, एक्साइज ड्यूटी, आयकर , मिनिमम अल्टरनेट टैक्स, डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स कुछ भी नहीं लगता। और भी बहुत सी सुविधाएं, मजदूरों के हितों और सामाजिक सुरक्षा में कटौती कर पूंजीवादियों  को दी गयी हैं ।

 

बिना किसी ओवर टाइम के भुगतान के मेहनत कशों से 10 से 12 घंटे  काम लिया जा रहा है। यानी आने वाले कल में हमें फिर आठ घंटे कार्य के लिए संघर्ष करने तैय्यार रहना होगा ।  इसलिए जाग जाईये, कहीं ऐसा न हो कि मेहनत कशों को यह कहना पड़े कि:

”इफ़लास ने बच्चों को भी तहज़ीब सिखा दी – सो जाते हैं चुपचाप, शरारत नहीं करते।“

 

यक़ीन मानिए, पूँजीवाद की यह जीत स्थायी नहीं है। पूँजीवाद अजर-अमर नहीं है। इक्कीसवीं सदी में पूँजीवाद, फासीवाद और श्रम के बीच फैसलाकुन जंग होगी जिसमें श्रम के पक्ष की जीत पक्की है। श्रम अपना बराबरी का हक़ लेकर रहेगा। पूंजीवाद को श्रम की अहमियत समझनी ही होगी। भविष्य मज़दूर वर्ग का है। इस बात के संकेत मिलने लगने हैं। सन्नाटा टूटने लगा है। पूरी दुनिया के कोने-कोने से मज़दूर विद्रोहों की ख़बरें आ रही हैं और भारत का मज़दूर भी जागने लगा है।

 

हमें एक लम्बी, कठिन और फैसलाकुन लड़ाई के लिये ख़ुद को तैयार करना होगा। भारत के मज़दूरों की पहली ज़िम्मेदारी यह बनती है कि वे भ्रष्ट नेताओं के अन्धे पिछलग्गू बनकर चंद रुपयों की रियायतों या छोटी मोटी सहूलियत की भीख पाकर संतुष्ट न हों, आर्थिक लड़ाइयों और संसदीय चुनावों से बदलाव के भ्रमजालों से अपने को मुक्त करें तथा दलाल यूनियनों, गद्दार मज़दूर नेताओं और चुनावी पूँजीवादी पार्टियों को मज़दूर बस्तियों से बाहर खदेड़ दें, या अपने हितों का ध्यान रखते हुए उनसे वोटों का सौदा करें । मज़दूरों को पूँजीवाद के बराबर का हक़ लेने  के अपने ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने के लिए नये सिरे से लामबंद होना ही होगा । इसके लिए उन्हें मेहनतक़श जनता को बाँटने वाली धार्मिक कट्टरपंथी (फासिस्ट) ताक़तों और जातिवादी राजनीति के ठेकेदारों से भी लोहा लेना होगा। मज़दूर वर्ग को स्वयं अपने दकियानूसी पिछड़े विचारों की दिमाग़ी ग़ुलामी से छुटकारा पाना होगा।

 

हमें बस्ती-बस्ती में नये सिरे से क्रान्तिकारी मज़दूर यूनियनें बनानी होंगी और बिखरे हुए, असंगठित मज़दूरों की भारी ताक़त को लामबंद करना होगा। हुकूमत पर भारी जन दबाव बनाने के लिए और भावी मज़दूर सत्ता का बीज अंकुरित करने के लिए मज़दूरों को अपनी पंचायतें संगठित करनी होंगी। महिला और युवा मज़दूरों की इन यूनियनों और पंचायतों में भागीदारी बढ़ानी होगी और उनके अलग से संगठन भी बनाने होंगे।

याद रखिये, आधी आबादी को घरेलू ग़ुलामी में कैद रखकर, मज़दूर वर्ग स्वयं अपनी ग़ुलामी से कभी मुक्त नहीं हो सकता। मज़दूर वर्ग को मज़दूर क्रांति का अपना अगुआ दस्ता तैयार करना होगा। इसके लिए उसे “क्रान्तिकारी मज़दूर अख़बार” और “शिक्षा द्वारा संगठन” के ज़रिये मज़दूर क्रान्ति के विज्ञान, इतिहास और भावी रास्ते के नक्शे को जानना समझना होगा। एक सम्पूर्ण रोड मेप तैय्यार करना होगा।  मज़दूरों के बहादुर युवा सपूतों को भगतसिंह, ऊधम सिंह, अश्फाक़उल्ला और बिस्मिल के सपनों का मज़दूर राज्य बनाने के लिए इनके बताये रास्ते पर चलना होगा और बस्ती-बस्ती में क्रान्तिकारी नौजवान संगठन बनाने होंगे।

 

इसी ज़िंदादिल उम्मीद के साथ आइये, मई दिवस के इस मौके पर हम इस काम में, बिना मिनट भर की देर किये, जुट जाने की शपथ लें। हम मज़दूर बस्तियों में क्रान्तिकारी विचारों के संदेशवाहक बनकर फैल जाने का संकल्प लें। तभी अँधेरा छँटेगा। आर्थिक और सामाजिक ग़ुलामी की इस अँधेरी सुरंग के उस पार आज़ादी की रौशन घाटी हमारा बेसब्री से इंतज़ार कर रही है। हमें एक नयी शुरुआत का संकल्प लेना ही होगा। यही श्रम आंदोलन में शहीद हर मेहनत कश को सच्ची श्रृध्दांजली होगी और आने वाली मेहनत कश नस्ल के लिये “मशअले राह” (मार्ग दर्शक) भी।

 

बिगुल फूंके आज के दिन, हम भी हैं इंसान – हमें चाहिए बेहतर दुनिया, करते हैं ऐलान।

 

आइये हाथ उठायें और कहें फासीवाद हो बर्बाद, हो बर्बाद – हो बर्बाद। इंक़लाब ज़िंदाबाद‌ – ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद।

क्रान्तिकारी अभिवादन के साथ,

 

(सैयद शहनशाह हैदर आब्दी)                  

समाजवादी चिंतक

राष्ट्रीय कार्यसमीति सदस्य

स्टील मेटल एण्ड इंजिनियरिंग वर्कर्स फेडरेशन ओफ इंडिया

सम्बध्द- हिंद मज़दूर सभा एवं इण्ड्स्ट्रीआल ग्लोबल यूनियन जेनेवा.                     

(मो0न0-09415943454 ई-मेल:abidibhel@yahoo.co.in.)

दिनांक : ३०.०४.२०१८.

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