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“अच्छे दिनों (?)” के दो साल, पर आम आदमी के मुस्कुराने के पल कितने?

SHAHENSHAH KI QALAM SE! शहंशाह की क़लम से!
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“अच्छे दिनों (?)” के दो साल, पर आम आदमी के मुस्कुराने के पल कितने?        दिनांक:26.05.2016.

मंहगाई, मंदी और किसानों की आत्महत्याओं पर यह जश्न क्यों?

दो साल काफी होते हैं किसी सरकार के कार्यकाल का मूल्यांकन करने के लिए। आज ही के दिन 2014 में जब सरकार ने शपथ ली थी तो हमारे जैसे करोड़ों हिन्दुस्तानियों की उम्मीद जगी थी कि सब कुछ अच्छा होगा।तब हमने भी अपनी वाल पर लिखा था,

“मुबारकबाद। मुबारकबाद।। तहे दिल से मुबारकबाद।।।

अजीमुश्शान जम्हूरी मुल्क हिन्दुस्तान की नई सरकार को तहे दिल से मुबारकबाद।

आज जब नई सरकार की हलफ बरदारी हो रही है। आम अवाम में भी कई नई उम्मीदें जागी हैं। हम भी इस उम्मीद के साथ कि:

1- मुल्क में पूंजीवादी राजनैतिक व्यवस्था लागू नहीं होगी।

2-सरमायादारों और कारपोरेट घरानों की सहूलियतों और रियायतों के साथ आम अवाम, मजदूरों और किसानो के जायज़ हकों का ख्याल भी रखा जाएगा। उनका शोषण नहीं होने दिया जाएगा।

3- विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zone) में स्थित कारखानों में ट्रेड यूनियन के गठन पर से प्रतिबन्ध हटाकर मजदूरों को उनका संवैधानिक अधिकार-पुन:दिया जाएगा। ताकि इन कारखानों में मेहनतकशों का हो रहा शोषण समाप्त हो सके।

4- शिक्षा, स्वास्थ, रोज़गार, विकास और मूल भूत सुविधाएं में बिना भेद भाव के सभी की भागेदारी सुनिश्चित की जायेगी।

5- भ्रष्टाचार का जड़ से खात्मा होगा। सभी भ्रष्टाचारी जेल जायेंगे।

6- बड़ी मुश्किल से एक परिवार से मुक्ति पाने के बाद, अब किसी अन्य परिवार का सरकार के निर्णयों में दखल नहीं होगा।

इंशाल्लाह, नया सवेरा आयेगा। अच्छे दिन लाएगा।

नई मरकज़ी सरकार की कामयाबी की दिल की गहराईयों से दुआएं और मुबारकबाद।

जय हिन्द, हिन्दुस्तान जिंदाबाद।“

लेकिन अफ़सोस, एक भी आरज़ू पूरी नहीं हुई आम आदमी तो हाथ मलते हुए अपने आप को ठगा महसूस कर रहा है।

‘मेक इन इण्डिया’ का हल्ला लेकिन लोगों को रोज़गार नहीं।बुलेट ट्रेन का हल्ला, रेल किराये में बेतहाशा रिकार्ड बढौत्तरी, लेकिन साधारण श्रेणी के यात्रियों की मूल भूत सुविधाओं पर ध्यान नहीं।  काला धन को तो अब भा.ज.पा.अध्यक्ष ने ही चुनावी जुमला बता दिया। भ्रष्टाचारियों पर कार्यवाही तो दूर उलटे उन्हें देश के चौकीदार ने पुरी सुरक्षा में देश से बाहर जाने का मौक़ा दिया।

आम आदमी की छोटी छोटी सब्सिडी पर हाय तौबा। करोड़ों रूपये विज्ञापनों पर खर्च कर उस मामूली सब्सिडी को छोड़ने की आम आदमी से अपील और एक एक पूंजीपति को करोड़ों रूपये की टैक्सों में छूट। “वाह रे सबका साथ-सबका विकास।”

जुमलेबाज़ और भाषणवीर मोदी जी, पुरानी योजनाओं के नए नाम रख देने से बाज़ आइये। बहुत हो गयी सेल्फ़ी अब कुछ काम आम आदमी के हित के भी कीजिये। आप, आपके मंत्री और आपके नागपुरी आक़ा लाख गाल बजाएं लेकिन आपकी सारी योजनायें आंकड़ों के आगे परास्त हैं। आपकी खुशहाली के खोखले दावे आम अवाम की बदहाली को मुँह चिढ़ा रहे हैं।

56 इंच सीने का ढिंढोरा पीटने वाले व्यक्ति ने संविधान के अनुसार चुनी सरकार को एक असंवैधानिक परिवार के हाथों गिरवी रख दिया है, जी हां असंवैधानिक परिवार, वरना बताईये राष्ट्रीय स्वयं संघ की संवैधानिक हैसियत क्या है कि एक संवैधानिक चुनी सरकार उसके सामने जाकर अपना रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत कर देश का और संविधान का अपमान करे? देश की भारी जनआकांक्षा को संघ की महत्वाकांक्षा में तब्दील कर देश के साथ उसके धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी स्वरूप के साथ विश्वासघात करे।

कांग्रेस की सरकार को एक परिवार की कठपुतली बता कर, जब्कि उस परिवार का संवैधानिक महत्व था क्योंकि उसके सदस्य संविधान के अनुसार जनता ने चुन कर भेजे थे और सत्ताधारी दल के प्रमुख पदाधिकारी थे। फिर भी उन्हें पानी पानी पी पीकर कोसने वाली भा.ज.पा.ने खुद अपनी सरकार को एक परिवार की कठपुतली बनाकर सामाजिक समरसता के ताने बाने को तोड़ने में जो आंशिक सफलता पाई है, क्या यह उसी का जश्न है?

हर साल 2 करोड़ नौकरियां देने की घोषणा करने वाली सरकार सन् 2015 में मात्र एक लाख पैंतीस हज़ार नौकरी दे पाई। महंगाई और आर्थिक मंदी को देखते हुए 7.5 के सकल घरेलू उत्पाद के सरकारी आंकड़े संदेह पैदा करते हैं। वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के कारण औद्योगिक जगत में मंदी का दौर है। अच्छे दिन और विकास के नाम पर सरकार और उसके संचालकों की लफ़्फ़ाज़ियाँ आम आदमी के कान को चुभने लगी हैं। केंद्र सरकार, निम्न और मध्यम आयवर्गीय, आम नौकरीपेशा और छोटे कारोबारी करदाता के हितों के बीच संतुलन साधने में नाकाम है।

आर्थिक सुधार के नाम पर गलत आर्थिक एवं व्यापारिक नीतियों के चलते देश को आर्थिक गुलामी की ओर बढने का खतरा है । अपने घर के खर्चों में कटौती कर आम नौकरीपेशा, देश को मिलने वाले कुल टैक्स के छठे हिस्से का भुगतान निश्चित रूप से करता है। फिर भी सरकार को उसकी सुविधाओं की कटौती और पूंजीवादियों की सुविधाओं में बढौत्तरी की ज़्यादा फिक्र है। देश और सरकार की शान सार्वजनिक क्षेत्र के लाभ अर्जित करने वाले प्रतिष्ठानों पर सरकार की बुरी नज़र है। उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को प्रोत्साहन के नाम पर तमाम रियायतें और आम जनता की उपयोग की वस्तुओं की सब्सिडी पर हाय तौबा, श्रमिक संगठनों को नकारना सरकार की आम जनविरोधी मानसिकता को ही दर्शाता है।

एक तरफ सरकार का रोज़गार मुहैय्या कराने की घोषणा, दूसरी तरफ आई.टी.कम्पनियों और निजी उद्योगों द्वारा अपने कर्मचारियों की निरंतर की जा रही छटनी और सरकार मौन, स्वयं केन्द्र सरकार द्वारा सरकारी कर्मचारियों की भर्ती पर रोक। केंद्र सरकार का रवैया पूरी तरह से उसके दोहरे मापदण्ड और कथनी और करनी में अंतर की मिसाल है। जब देश के प्रधानमंत्री ही सार्वजनिक रूप से कह रहा हो कि,”सार्वजनिक क्षेत्र का जन्म ही मरने के लिये होता है। कोई एक परिवार को लेकर मरता है तो कोई कई परिवारों लेकर, लेकिन मृत्यु निश्चित है। इसके उपाय खोजे गये, या तो इन्हें बंद कर दो या बेच दो।तब सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के भविष्य का अंदाज़ा अच्छी तरह लगाया जा सकता है।

गरीब और आम आदमी की क़ीमत पर अच्छे दिन सिर्फ कोर्पोरेट घरानों, पूंजीपतियों और इनके हित साधने वाले नेताओं, सरकार के मंत्रियों, भा.ज.पा.के नेताओं, प्रधानमन्त्री और संघपरिवार के आये हैं।

हिन्दुस्तान की 40 फीसदी आबादी और 10 प्रदेश सूखा ग्रस्त हैं। औसतन 52 किसान रोज़ आत्म हत्या कर रहे हैं।गरीब आदमी की थाली से 200 रूपये किलो मिल रही दाल गायब हो चुकी है।17 महीनों से निर्यात लगातार गिर रहा है।

उत्पादन क्षेत्र में 1.2 फीसद की गिरावट ‘मेक इन इण्डिया’ का मखौल उड़ा रही है। महिलाओं के खिलाफ अपराध 9.2 फीसद बढ़ गए हैं। व्यापम जैसे घोटाले, ललित मोदी और विजय माल्या जैसे लोग सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं।

जीवन के हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार ना सिर्फ मौजूद है बल्कि बढ़ा है। पिछले पांच दशकों से लगातार देश और दुनिया की सेवा में लगे, अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को भली भाँति पूरा करने के बाद भी मुनाफा दे रहे सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठान वर्तमान सरकार की नीतियों के चलते घाटे में चले गए हैं या बंद होने के कगार पर हैं।

यह संभवतय: पहला मौक़ा है जब केंद्र में सत्तारूढ़ दल ने संवैधानिक मर्यादाओं और संसदीय आचरण का उल्लंघन करते हुए अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में राष्ट्रपति शासन लगाकर अपनी नाक कटवा दी है। क्योंकि उनके द्वारा अपनाया तरीक़ा अनैतिक, अवैध और लोकतन्त्र की धज्जियां उडाने वाला था।

देश की जनता का मोह इसीलिये भंग होता दिख रहा है कि सत्ता में आने के लिए जो वादे मोदी मण्डली ने किये वो पूरे होते नहीं दिख रहे हैं। बल्कि पिछ्ले दो साल में उसे आटे, दाल, पैट्रौल और डीज़ल आदि के भाव मालूम हो गये हैं।

न महंगाई थमी, न भ्रष्टाचार रुका, न युवाओं को रोज़गार मिला। हाँ, संघ परिवार ने सरकार के सरंक्षण में विभाजनकारी राजनीति को ज़रूर परवान चढ़ाया ताकि बहुसंख्यक वोटों का धुर्वीकरण हो सके, भले देश और समाज को इसकी कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़े? क्या यह देश के हित में है?

लोकसभा में 282 भा.ज.पा.सांसदों में से मात्र दो अहिंदू हैं, जबकि देश में हर सातवां व्यक्ति मुस्लिम है। भा.ज.पा.और संघ परिवार कितनी भी असहमति जताएं और “सबका साथ-सबका विकास” का लाख जुमला उछालें, लेकिन यह सच्चाई है कि देश के मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को पिछले दो साल में उनके हिस्से से बहुत कम मिला है।

फिर किस चीज़ का जश्न है यह? बढ़ती बेरोज़गारी का? बढ़ती मंहगाई और भ्रष्टाचार का? किसानों की आत्म हत्या का? दाऊद इब्राहिम और ललित मोदी को न ला पाने का, विजय माल्या के भाग जाने का? बंद होते देशी उद्योगों का? पाकिस्तान से एक भी सर न ला सकने का? काला धन वापस न ला पाने का? पठानकोट में आतंकवादी हमले का, पाक जांच दल बुला कर देश को शर्म सार करने का? या फिर नेपाल और चीन जैसे पड़ोसी देशों से बुरे संबंधों की ज़िम्मेदार विदेशनीति का? चीन से ज़मीन वापस न ले पाने का?  रोहित को आत्म हत्या पर मजबूर करने का? एक बेक़ुसूर सोफ़्ट इंजीनियर को पूना में पीट-2 कर मार डालने का या अख्लाक़ को घर में घुसकर मार डालने का? कठमुल्लेपन के विरुध्द ताउम्र संघर्ष करने वाले अनंतमूर्ति जैसे लेखकों की मौत का ? या देश में पूंजीवादी व्यवस्था लागू करने के प्रयासों और मेहनतकशों के मौलिक संवैधानिक अधिकारों में कटौती करने का ? क्यों है यह जश्न? पूछिये, आप भी पूछिये और ज़रूर पूछिये?

इस बेमानी जश्न पर जनता के पसीने की गाढ़ी कमाई की बर्बादी क्यों?

आप भी सोचिये और देशहित में सरकार से भी जवाब तलब कीजिये। तब शायद आम आदमी के हालात सुधरें।

जय हिन्द-जय भारत।

सैय्यद शहनशाह हैदर आब्दी।

समाजवादी चिंतक-झांसी।

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