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आदरणीय महोदय,
मुजफ्फर नगर दंगा …… लोकतंत्र के चौराहे पर प्रजातंत्र की नीलामी?
दोषी कोई भी हो वहां मर तो रही है इन्सानियत, कहने से काम नहीं चलेगा। यह होता है और होता रहेगा जब तक हम मज़हब के नाम पर नफरत की सियासत करने वालों और राष्ट्रवाद और राष्ट्र भक्ति का बुर्क़ा पहनकर राष्ट्रद्रोही गतिविधियों में लिप्त व्यक्तियों और संगठनों की पुश्त पनाही कर इन्हें सत्ता सौंपते रहेंगें।
यह कड़वी हक़ीक़त है कि जब-2 मज़हब का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने अथवा उसे मज़बूत करने के लिये किया गया, इंसानियत खून के आंसू रोई है। शासक चाहे किसी भी काल, युग, समाज अथवा धर्म का हो। वर्तमान में सन 1992 में यही किया गया, सन 2002 में भी यही किया गया और सन 2014 में सत्ता हासिल करने के लिये फिर यही किया जा रहा है।
सत्ता के लिये, देश की गौरवशाली परंपरा को तहस नहस करने की साज़िशें की जारही हैं। दंगों के मास्टर माइंडों को राजनीति में अहम भूमिका सौंपी जारही है।
“माना कि अभी मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं,
मिट्टी का भी है मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं।“
अफसोस यही है कि हमारे देश की हर संस्था और व्यवस्था में साम्प्रदायिक मानसिकता के कुछ व्यक्तियों ने अपनी जड़ें मज़बूत कर ली हैं। यह लोग अपने और अपने आक़ाओं के निहित स्वार्थो की पूर्ति के लिये समय -2 पर सेवा क़ानूनों, न्यायिक और संवैधानिक व्यवस्था के साथ देश की सांझा संस्कृति और विरासत का मखौल उड़ाते रहते हैं। राजनेता भी इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। इस हक़ीक़त को हम जितनी जल्दी समझ जायें उतना अच्छा।
मुजफ्फर नगर दंगा …… लोकतंत्र के चौराहे पर अभिव्यक्ति के अधिकार का सरेआम बलत्कार भी है। जो विडियो
सामने आरही हैं वो दिल दहला देने वाली हैं। उस पर सियासी दलों के नेताओं और कुछ मज़हबी रहनुमाऔं की नफरत का ज़हर उगलती तक़रीरें और प्रवचन, ख़ुदा की पनाह।
जब तक आतंकवादी शिविरों के साथ-2, राष्ट्रवाद और राष्ट्र भक्ति का बुर्क़ा पहनकर राष्टृद्रोही गतिविधियों में लिप्त व्यक्तियों और संगठनों के प्रशिक्षण शिविरों पर कार्यवाही नहीं होगी, हमारे मुल्क में शांति नहीं हो सकती।
हमें दोषियों को चिन्हित कर बिना भेदभाव के दण्डित करना और कराना होगा। सिर्फ दोषारोपण से काम नहीं चलेगा।
क़िसी शायर ने ख़ूब कहा है :-
ग़लतियों से जुदा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं,
दोनों इंसान हैं ख़ुदा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं !
तू मुझे और मैं तुझे इल्ज़ाम देते हैं,
अपने अन्दर झांकता, तू भी नहीं, मैं भी नहीं !
ग़लत फहमियों ने कर दीं दोनों मैं पैदा दूरियां, वरना फितरत का बुरा, तू भी नहीं, मैं भी नहीं !
अपने-2 रास्तों पर दोनों का सफर जारी रहा, एक लम्हे को रुका, तू भी नहीं, मैं भी नहीं !
चाहते दोनों बहुत एक दूसरे को हैं मगर, ये ह्क़ीक़त मानता, तू भी नहीं, मैं भी नहीं !
जिन्हें अज़ीम हिन्दुस्तान की मिली जुली तहज़ीब और संस्कृति रास नहीं आरही वो अब भी पाकिस्तान भूटान और नेपाल जा सकते हैं, क्योंकि वहां उनके मज़हबों की हुकुमतें हैं।
हिन्दुस्तान के झण्डे का रंग तिरंगा है और तिरंगा ही रहेगा, इसे एकरंगा बनाने की हर कोशिश को आम हिन्दुस्तानी हर हाल में नाकामयाब कर देगा।
तमाम मुश्किलों के बाद भी ज़िन्दगी का सफर एक ट्रेन की तरह जारी रहेगा। यह बात दोनो सम्प्रदायों के कट्टरपंथी रहनुमाओं को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए।
भवदीय
(सैय्यद शहनशाह हैदर आब्दी)
वरिष्ठ समाजवादी चिंतक
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