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एक “बंगला” बने न्यारा

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एक ज़माने का कुंदन लाल सहगल का ये गाना बरबस ही याद आ जाता है, एक बंगला बने न्यारा…रहे जिसमे कुनबा सारा…सोने का जंगला…चांदी का…विश्व कर्मा के द्वारा. याद आता है जब लोग बंगला पूरे कुनबे के लिए बनाने का सपना देखते थे. हमारे देश के धनाढ्य लोग आज भी बंगले बना रहे है. और शायद वो सोने और चांदी की कल्पना से भी परे चले गए है. उनकी कीमत अरबों में है शायद इतने की आदमी इतने शून्य लगाना भी भूल जाए. शान से खड़े है ये बंगले जिनमे रहने वालों की तादात ३ या ४ लोगों से ज्यादा नहीं है. एक बंगला मुंबई में तो अब एक बंगलुरु में बनने जा रहा है. ऐसा लगता है जैसे बंगले बनाने की होड़ लग गयी है. तेरा बंगला मेरे बंगले से बड़ा कैसे?

ये बंगले धनाढ्य लोगों की केवल जरूरत तो हो नहीं सकते क्योंकि इतने बड़े बंगलों में तो छोटी मोटी कालोनी बनाई जा सकती है. हाँ ये उनकी सम्पन्नता का छिछोरा दिखावा जरूर कहा जा सकता है. माना आपके पास अकूत दौलत है और ये आपका हक़ बनता है कि जैसे चाहे खर्च करें लेकिन क्या यही तरीका रह गया है उसे दिखने का? उस देश के अरबपति जहाँ बड़ी आबादी के सर पर छत नहीं है, उनके प्रति संवेदनहीनता नहीं है. पूंजीवाद का ये भोंडा प्रदर्शन केवल एक भद्दा मज़ाक भर हो सकता है. ये न उनके बनबाने वालों की जरूरत है न ही इससे किसी और को लाभ होने वाला. केवल अपने अहम् को संतुष्ट करने के लिए पूंजीपतियों की एक भोंडी नुमाइश भर है.

कभी जब समाजवाद था तो लोग उसे कोसते थे. धीरे धीरे वो ख़त्म हो गया क्योंकि सबकी नज़र में वो चुभने लगा था. अब लोगों को उसकी फिर याद आने लगी है. पूंजीवाद वो है जहाँ अमीर और अमीर बनता है और गरीब और गरीब. पूंजीवाद में गरीब कभी अमीर नहीं बनता जबकि समाजवाद समाज में सभी को उचित हिस्से की पैरवी करता है. धन का समान वितरण, संसाधनों का समान और समुचित उपयोग, समाज के हर वर्ग के लिए कल्याण, यही समाजवाद की धारणा थी. लोगों ने तब पूंजीवाद को अच्छा समझा लेकिन क्या आज वो वक़्त फिर नहीं आ गया जब हमें समाजवाद की जरूरत महसूस होने लगी है? हर समाजवादी और साम्यवादी देश अपने समय में एक बड़ी शक्ति था जो उसके हटते ही भरभराकर गिर पड़ा. आज के समय में नैतिकता और मूल्यों की दुहाई देना असामयिक है और निरर्थक भी लेकिन फिर भी एक इंसान होने के नाते इतना फ़र्ज़ तो सभी का बनता ही है कि यदि आप किसी को राहत नहीं पहुंचा सकते तो उनके जख्मो पर नमक तो न छिडकें.

विदेशों की नक़ल पर बन रहे अरबपतियों के ये बंगले शायद कभी पर्यटन की वस्तु बने पर इतना याद रहे कि ये बंगले बनाने वालों को और बंगलों को कभी भी मानवता के हित में याद नहीं किया जाएगा उन्हें केवल उपहास करने वालों के तौर पर ही याद किया जा सकता है. बंगलों का अपना कोई चरित्र नहीं होता. उनका चरित्र उनके निवासियों से तय होता है. जब घर, घर नहीं दिखावे कि चीज़ हो तो उसमें रहने वालों का भी चरित्र देखने कि चीज़ ही बन कर रह जाता है.

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