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मम्मी मुझे बुरा बनना है

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बेटे ज़िन्दगी में अच्छा बनो, अच्छे काम करो, अच्छी आदतें डालो, अच्छे लोगों में उठो बैठो, अच्छी फिल्मे देखो, अच्छी किताबें पढो, अच्छा चरित्र बनाओ. ये वो बातें है जो हर घर में बच्चों से बड़ी शिद्दत के साथ कही जाती है और उन पर अमल करने की भी भरपूर कोशिश की जाती है. हर माँ बाप अपने बच्चो को हर चीज़ अच्छी ही देना चाहता है. संक्षेप में वो बच्चों को अच्छाई का देवता बनाने की पूरी कोशिश करते है. ये क्रिया हर स्तर, हर सामाजिक वर्ग, हर प्रकार के परिवार में अनवरत चलती रहती है. “अच्छाई’ का कीड़ा बच्चों के दिमाग में इस तरह भर दिया जाता है ताकि उसे निकला न जा सके.

आइये पहले ये समझ लें कि ये “अच्छाई” क्या चीज़ है? ये एक विचार है. एक कांसेप्ट है. इस विचार की शुरुआत कब और कैसे हुई ये तो शोध का विषय है परन्तु जहाँ तक मेरी सोच काम करती है, ये विचार तब आया होगा जब समाज कि अवधारणा शुरू हुई होगी और लोग सामजिक बन्धनों में सहज अनुभव नहीं करते होंगे. सामाजिक व्यवस्था से पहले लोग निरंकुश और मनचाहा व्यवहार ही करते थे. सब कुछ बहुत व्यक्तिगत होता था. सामाजिक व्यवस्था आने के बाद शायद ये महसूस किया गया कि अगर लोग निरंकुश रहेंगे, मनमानी करेंगे तो व्यवस्था बिगड़ जायेगी. तब लोगों द्वारा किये गए कार्यों को दो श्रेणी में विभाजित कर दिया गया. अच्छे काम और बुरे काम. जिन कामो से व्यवस्था ठीक चलती रहे वो “अच्छे काम” और जिनसे व्यवस्था बिगड़े वो “बुरे काम” कि श्रेणी में डाल दिए गए.

अगर हम आध्यात्मिक तौर पर देखें या तार्किक स्तर पर देखे तो अच्छाई या बुराई, पाप पुण्य जैसी कोई चीज़ नहीं होती है. ये सब सापेक्ष है. व्यक्ति, समय और जरूरत के हिसाब से इनका अर्थ बदलता रहता है. एक चीज़ जो किसी के लिए बुरी हो सकती है वही दूसरी और किस और के लिए अच्छी होती है. प्रकृति में सदैव ही ऊर्जा की दो धाराएँ प्रवाहित होती है. नकारात्मक और सकारात्मक. इन्हें ही negative और positive कहा जाता है. हर धारा में बहने वाली ऊर्जा अपने अन्दर गुण और अवगुण (सामाजिक परिप्रेक्ष्य में) समाये हुए है. प्रकृति के हर प्राणी में उनका प्रभाव प्रत्यक्ष देखा जा सकता है. अच्छाई अगर positive ऊर्जा है तो बुराई negative ऊर्जा का रूप है. हर हाल में दोनों ही धाराओं में शक्तिशाली ऊर्जा प्रवाहित होती है. अगर हम दोनों में अंतर करें तो हम पाएंगे के नकारात्मक ऊर्जा सकारात्मक ऊर्जा के मुकाबले अधिक शक्तिशाली होती है. उसका आवेग इतना तीव्र होता है कि उससे आवेशित व्यक्ति नियम क़ानून, नैतिकता जैसी चीजों को भूल ही जाता है. उसकी ऊर्जा का आवेग का उद्देश्य केवल उसका लक्ष्य प्राप्त करना ही होता है.

प्राचीन काल से ही दोनों धाराओं में द्वन्द चल रहा है. राम और रावण, कंस और कृष्ण, कौरव और पांडव का संघर्ष इसके कुछ बड़े उदहारण है. दोनों ही ओर विपरीत धाराये थी. तब से लेकर आज तक ये जारी है और भविष्य में भी ये कभी संपत नहीं होगी. नकारात्मक ऊर्जा को काली शक्ति और सकारात्मक ऊर्जा को दिव्य शक्ति कहा जाता है. सकारात्मक ऊर्जा सात्विक है और रजोगुण से युक्ता है वही नकारात्मक ऊर्जा तामसिक है और तमोगुण से युक्त है. दोनों शक्तियों का संघर्ष एक प्राकृतिक क्रिया है. मनुष्यों में भी ये अपना अपना प्रभाव छोडती है. देखने में आता है के  सौ अच्छे लोग मिल कर भी एक बुरे आदमीं को अच्छा नहीं बना सकते परन्तु एक बुरा आदमी सौ लोगों को बड़े आराम से बुरा बना सकता है. ये नकारात्मक ऊर्जा के शक्तिशाली होने का प्रमाण है. गुंडे, मवाली, डोन, ये सब नकारात्मक ऊर्जा का उदहारण है. सकारात्मक  ऊर्जा कि गति धीमी है. उसका प्रभाव समय लेने वाला है. निसंदेह वो ज्यादा स्थाई है. फिर भी ये आपके बस में नहीं कि आपके अन्दर कौन सी ऊर्जा प्रवाहित हो. ये सब प्रकृति निश्चित करती है.

अब अगर मैं ये कहूं कि मुझे बुरा बनना है तो इसमें हैरत कि क्या बात है? ये अलग बात है कि ये मेरे बस में नहीं पर हर प्राणी में धाराये तो दोनों ही प्रभावित होती है उनकी मात्रा में अंतर होता है. सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा का येही अनुपात ये तय करता है कि हम अच्छे है या बुरे. बुरे बनने में कोई बुराई नहीं है बशर्ते हमारा लक्ष्य जन हितकारी हो. राम ने भी रावण को मारकर लंका कि दृष्टि में बुरा काम किया पर जनहित में उस बुरे काम को भी अच्छा मानकर सराहा गया.

तो जब भी आपका बेटा कहे मम्मी मुझे बुरा बनना है तो उसे डांटे नहीं सिर्फ उसे येही समझाए कि अपना लक्ष्य निर्धारण सावधानी से करे और ऐसे काम करे जो बुरे होते हुए भी अच्छाई कि श्रेणी में गिने जाए.

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