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मुझे लोकतंत्र नहीं राजतन्त्र चाहिए

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क्या एक आम आदमीं को लोकतंत्र और राजतन्त्र में फर्क मालूम है? थोडा सर्वे कीजिये. बीस पचीस लोगों से पूछिए. आपको पता लग जाएगा के आम आदमी का ज्ञान कितना गहरा है. मुझे लोकतंत्र क्यों चाहिए? मेरी ज़िन्दगी आज भी राजतंत्र के समय से की प्रकार अलग है? माना के लोकतंत्र विश्व में पहली बार भारत के ही वैशाली राज्य में शुरू हुआ और बाद में विश्व भर में उसकी धूम मची और बहुत से देशों ने उसका अनुकरण करते हुए अपने यहाँ उसे लागू किया. रोमन सभ्यता ने सबसे पहले इसे अपनाया और वहां राजतंत्र और लोकतंत्र का मिश्रित रूप सामने आया. तब से लेकर अब तक बाकी जगह तो ये स्थिर रहा लेकिन भारत में ही ये लुप्त हो गया और आज का लोकतंत्र बहुत पुराना नहीं है लेकिन बहुत अलग भी नहीं है.

लोकतंत्र पढ़े लिखे लोगों की चीज़ है, जो अपने अधिकार समझते हों, देश और राष्ट्र के लिए अपनी जिम्मेदारियों को समझते हों. जिन्हें अपने प्रतिनिधियों का विश्लेषण करने की समझ हो. वही उचित प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकते है. राजतंत्र भेड़ बकरियों का तंत्र है जहाँ राजा का डंडा सबको एक सामान हांकता है. वहां इन गुणों की कोइ जरूरत नहीं, प्रजा सिर्फ राजा को पालने भर के लिए होती है और बदले में वो उनको जो उपलब्ध कराये उसकी मर्ज़ी. राजतंत्र विद्रोह से घृणा करता है. उसे क्रांतिकारी नहीं चाहिए. उसे एक मूक प्रजा चाहिए जो उसके इशारे पर नाचती रहे.

अब आप मुझे बताएं के हमारे आज के लोकतंत्र में, जिसकी तारीफ़ करते हमारे जबड़े नहीं दुखते, नकली मुस्कराहट नहीं जाती, आत्म श्लाघा से हम कभी नहीं अघाते, और राजतंत्र में क्या फर्क है? क्या जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव अपने विवेक से करती है? वो आज भी भेड़ बकरियों की तरह झुण्ड में मतदान करते है और उनके मत का निर्धारण कोई और करता है. वो वोट बैंक कहलाते है जब चाहे चुनाव में निकालो और खर्च कर लो फिर जमा कर दो. मेरे विचार से नब्बे प्रतिशत जनता का अपना कोई मत होता ही नहीं है. जब उसका मत ही नही तो उसके चुने प्रतिनिधि का क्या औचित्य रह जाता है? वैसे भी हमारे यहाँ जिसे बहुमत कहा जाता है वो ही सबसे बड़ा व्यंग है. कुल आबादी का पचास से भी कम प्रतिशत मतदान करता है उसमें भी पार्टियों की अनगिनत संख्या. कुल दस प्रतिशत वोट पाने वाले बहुमत जताते है और सरकार बनाते है. कितना बड़ा मजाक है वो भी लोकतंत्र के नाम पर, साम, दाम, दंड, भेद सारे हथकंडे अपनाने के बाद हमारे प्रतिनिधि बड़ी शान से खुद को जनता का सेवक बताते है. सब लोग सब कुछ जानते है फिर भी वो कुछ नहीं कर पाते क्योंकि संविधान बनाने वालों ने बड़ी चतुराई से लोकतंत्र की बखिया उधेडी है. उस पर संशोधन करने वालों ने पलीते लगा कर उसकी बाकी हवा भी निकल दी.

अब जरा देखें के हमारी तथाकथित लोकतान्त्रिक सरकार किसी राजा की तरह कैसे काम करती है. यहाँ अगर आप क्रांति की बात करेंगे तो जेल भेज दिए जायेंगे. आप किसी बदलाव की बात करेंगे तो आपकी आवाज सरकार के सैनिक यानी पुलिस किसी भी समय दवा देंगे. आपके साथ न्याय करने के लिए न्यायालय है लेकिन उनका न्याय कितना पैना है ये सभी को प्रत्यक्ष है. बेचारे फांसी की सजा सुनाने के बाद भी फांसी नहीं दिलवा पाते. न्याय करने के बाद उसका पालन नहीं करवा पाते कारण पालन करवाना उनका काम नहीं वो सरकार रुपी राजा का काम है अब ये राजा की मर्ज़ी वो क्या करे. न्याय प्रक्रिया इतनी लम्बी कि जिनका फैसला उनके जीवन काल में ही हो जाए वो खुद को भाग्यशाली समझते है. सरकारी राजा को जनता के सुख दुःख से कुछ लेना नहीं है. उसके अपने मत्रियों के खजाने भरे रहें, अपने वेतन भत्ते बढ़ते रहे, जनता बत्तीस रूपए खर्च कर अमीर कहलाये, ये ही इस सरकारी राजा का रूप है.

अब हर बार पांच साल में इस सरकार रुपी राजा के बदले मुझे तो यही अच्छा लगता है कि एक ही राजा बन जाए अपने जीवन भर के लिए. कितना खायेगा, कितना खर्च करेगा कभी तो उसकी नीयत भरेगी. यहाँ तो हर पांच साल के बाद नए नए राजाओं कि तादात बढती ही जाती है. राजा का राजकुमार ही राजा बनता था वो आज भी बनता है. राजा अपने इर्द गिर्द अपने वफादारों को ही रखता था वो आज भी रखता है. राजा निरंकुश होता था तो आज भी है. प्रजा कि भलाई कि चिंता न उसे तब थी न अब है. राजसी ठाठ हमेशा एक से ही है. पहले एक राजा होता था अब तो राजाओं के समूह है. उसके सेनापति और सैनिकों का एकमात्र काम जनता को दुहना है और अपने आका यानी राजा को खुश करना है.

जब हालत एक ही है और एक ही रहने है तो क्यों न मैं एक राजा का ही चुनाव करूं जो अगर दुष्ट हुआ तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि हर स्तर पर हम दुष्टता के आदि हो ही चुके है, अगर वो अच्छा हुआ तो जरूर फर्क पड़ेगा. शायद मेरी ज़िन्दगी में भी कोई नया सवेरा आ जाए और मेरे मुंह से भी बेसाख्ता निकल जाए, “हमारे राजा कि जय”

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