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मैं “गे” हूँ

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मैं “गे” हूँ. जब कोई आपके सामने खड़े होकर ये संवाद बोले तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? सबसे पहले आप झेंप जायेंगे क्योंकि आपको इस तरह के संवाद सुनने की आदत नहीं है. फिर आप उस व्यक्ति से नज़रें चुराते हुए मन की हीन भावना को प्रदर्शित न करते हुए उससे शायद बात करना टाल दें. कोई बहाना बनाकर या तो उसे अपने सामने से हटा दें या खुद ही हट जाएँ. कारण स्पष्ट है के हम ऐसी स्थिति के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है. अगर हमारा अपना बेटा या बेटी ही आकर ये कहे तो पूरे परिवार पर बिजली गिरनी तय है. हम आज भी उसी प्राचीन सामाजिक सोच से ग्रस्त है जिसमे समाज ने कभी भी “गे” या समलेंगिक संबंधों को मान्यता नहीं दी और आज भी नहीं देते. हालाँकि पश्चिमी देशों की तरह हिन्दू समाज में भावनाओं के आधार पर “यौन झुकाव” का कोई विचार नहीं है परन्तु एक तृतीय प्रकृति के बारे में अवश्य कहा जाता है जो नर और नारी का मिश्रित रूप है. पाश्चात्य समाज ने समलेंगिकता को व्यक्ति और भावनाओं के आधार पर विभाजित कर “गे” यानी पुरुष समलेंगिक, “लेस्बियन” यानी महिला समलेंगिक और “थर्ड जेंडर” यानी महिला और पुरुष का मिश्रित हमारे यहाँ की तरह “किन्नर” रूप.

समलेंगिकता हमारे समाज में विचार विमर्श की चीज़ नहीं है. हम हमेशा ही इससे बचने की कोशिश करते रहे है. भारतीय संविधान भी इसे एक आपराधिक दृष्टि से देखता आया है. दिलचस्प बात ये है के जिस अंग्रेजी क़ानून के चलते भारत में ये २००९ तक आपराधिक श्रेणी का मामला था, उसी ब्रिटेन में ये कानून बहुत पहले ही बदला जा चुका है. भारत में २ जुलाई २००९ में अदालत के ऐतिहासिक निर्णय के बाद समलेंगिक समाज ने कुछ राहत की सांस ली है लेकिन ये सामजिक स्वीकृति के लिए पर्याप्त नहीं है. समाज में गहरे तक फैली जड़ें इस धारा को आसानी से आत्मसात नहीं कर पाएंगी. यधपि समाज का एक वर्ग विशेष इस धारा को मुख्या धारा में लाने की कोशिश लगातार करता रहा है चाहे वो फिल्मो के जरिये हो, चाहे वो मार्च निकल कर हो, चाहे वो कोई प्रदर्शन करके हो. २००४ में पहली बार हिन्दू समलेंगिक संगठन भारत के महानगरों में प्रदर्शन के लिए जमा हुए.

समलेंगिकता हर देश, समाज, प्रकृति के लोगों में पाई जाती रही है. पुराने समय में दो पुरुषों या दो महिलाओं के बीच प्रेम सम्बन्ध को बिना किसी नाम के जिया जाता था. तब शायद लोग इन शब्दों को ईजाद नहीं कर पाए थे. इस धारा के समर्थको और विरोधियों के बीच हमेशा ही संघर्ष होता रहा. विश्व की तमाम प्राचीन सभ्यताओं में समलेंगिकता पायी जाती है. रोमन सभ्यता तो इसके लिए खासी चर्च में और बदनाम भी रही है जहाँ किसी भी और सभ्यता से ज्यादा समलेंगिक राजाओं ने राज किया. मनु स्मृति में महिला समलेंगिकों का उल्लेख मिलता है और इसे यौन क्रीडा का एक अंग ही माना जाता था हालांकि इसके लिए दंड का प्रावधान भी था. महर्षि वात्सायन ने चौथी सदी में लिखे अपने “कामसूत्र” में समलेंगिकता को और विस्तार से प्रस्तुत किया. उन्होंने भेदपूर्ण व्याख्या करके महिला, पुरुष और नपुंसक (तृतीय प्रकृति) की यौन क्रीडाओं को स्पस्ट किया.

ईसापूर्व ६००, सुश्रुत संहिता में दो प्रकार के समलेंगिक पुरुषों के बारे में स्पस्ट रूप से बताया गया है जिन्हें क्रमशः “कुम्भिका” यानी निष्क्रिय पुरुष और ” असेक्य” यानी सक्रिय पुरुष. सुश्रुत संहिता मूलतः मेडिकल से सम्बंधित है इसलिए उसमें हर प्रकृति का विस्तृत वर्णन किया गया है. इसके अलावा और बहुत से प्राचीन ग्रंथों में जैसे १४ वी सदी में वाचस्पति की कामतंत्र और स्मृति रत्नावली, नरद स्मृति में  समलेंगिकता और तृतीय प्रकृति के बारे में विस्तृत वर्णन किये गए है. संक्षेप में ये कोई ऐसी धारा नहीं जो आधुनिक समय में अचानक बहनी शुरू हो गयी हो. प्राचीन काल से बहने वाली धारा वस्तुतः अब मुखर होकर सामने आ रही है. लोग अब अपनी प्रकृति को समझ कर उसे उजागर करने लगे है. सामजिक बन्धनों को तोड़कर अपनी भावनाओं को प्राथमिकता दे रहे है. वो अब समाज की ज्यादा परवाह भी नहीं कर रहे.

समाज शास्त्रियों का ये भय के समलेंगिकता से लेंगिक संतुलन बिगड़ने का खतरा है, बिलकुल निराधार है. आज के समाज के नब्बे प्रतिशत समलेंगिक युवाओं के लिए ये एक नया अनुभव करने जैसा है जिसकी प्रेरणा उन्हें इन्टरनेट पर देखि जाने वाली पोर्न साईट से मिलती है. आज के समाज में संचार क्रांति अग्रसर है और इसी का परिणाम है के लोगों के लिए विश्व भर की चीज़े मेज पर बैठे बिठाये मिल जाती है. केवल दस प्रतिशत गंभीर समलेंगिक ही “समलेंगिक विवाह” करते है और अपने विशेष अंदाज़ में ज़िन्दगी जीते है. वो परिवार और समाज से ज्यादा सम्बन्ध नहीं रखते पर फिर भी बहुत से उदहारण है जहाँ समलेंगिक दंपत्ति संतान भी गोद लेते है यानी वो किसी न किसी तरह समाज से जुड़ने का प्रयास भी करते है. पाश्चात्य संस्कृति अपनाना भारतीय युवाओं का शौक है. अगर वो ऐसा न करें तो शायद उन्हें अपने पिछड़ जाने का डर है.

तो क्या करें क्या इस धारा को यूँ ही बहते रहने दिया जाए और हम आँखे मूँद कर बैठे रहें? इससे क्या समस्या हल हो जायेगी? शायद नहीं. तो विकल्प क्या है? क्या इस धारा को भी अन्य धाराओं की तरह मुख्य धारा में लाया जाए? अदालत ने इसे एक व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता की बात कह कर इसके प्रति होने वाले दुष्प्रचार, दुर्व्यवहार पर कुछ तो लगाम लगाने का काम किया ही है. क्या समाज इसे एक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं समझ सकता. क्या किसी को जबरदस्ती “गे” बनाया जा सकता है? नहीं ये भी एक स्वाभाविक गुण है. ये भी एक प्राकृतिक भावना है. इसे अप्राकृतिक कहने वाले शायद ये जानते ही नहीं की सृष्टि में अप्राकृतिक कुछ हो ही नहीं सकता. प्रकृति में सब कुछ प्राकृतिक ही होता है चाहे वो भावना अथवा विचार ही क्यों न हो. इस प्रकृति में सभी को जीने का सामान अधिकार है और ये किसी से भी छीनना नहीं चाहिए.

हमारे शब्द और विचार केवल हमारे है. वो व्यक्तिगत है ये अलग बात है के ऐसे ही तमाम व्यक्तिगत विचार मिल कर ही सामाजिक विचारों का रूप ले लेते है. सच बात तो ये है की ये कोई समस्या ही नहीं है. समलेंगिक लोग जब अपनी पहचान छिपाते थे तब भी वो अपने प्रकार का ही जीवन जीते थे और आज जब वो दिखाते है तो भी. समलेंगिक भावना पैदा करने और उभारने में समाज का भी भरपूर हाथ रहा है. लड़के और लड़कियों के लिए अलग स्कूल, सहशिक्षा में भी लड़के और लड़कियां अलग बैठेंगे. यानी समाज नहीं चाहता की लड़के और लड़कियां आपस में घुले मिले. बचपन से लेकर जवानी तक चली आ रही इसी पद्दति के कारण जब लड़के लड़कों की तरफ और लड़कियां लड़कियों से आकर्षित होने लगते है तब समाज इसे एक बुराई बता कर उससे लड़ने में लग जाता है. इस तरह का वर्गीकरण कम से कम भारत में तो समलेंगिक बढ़ाने का ही काम करता नज़र आता है.

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