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यदि होता “किन्नर” नरेश मैं..

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बहुत पहले बचपन में एक कविता पढ़ी थी. कवि का नाम तो याद नहीं पर कविता अवश्य याद है के ..यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता, सोने का सिंघासन होता सर पर मुकुट चमकता…कवि ने इस कविता में एक ऐसे सुन्दर किन्नर देश की कल्पना की थी जिसमे सब कुछ बहुत ही सुन्दर था और कवि स्वयं को वहां के राजा के रूप में देख रहा था. जब ये कविता लिखी गयी होगी तब शायद किन्नर का अर्थ आज के “किन्नर” जैसा नहीं रहा होगा वरना कवि कभी आज जैसे “किन्नर” देश की कल्पना कभी नहीं करता. आज “किन्नर” जैसा कोई देश नहीं है लेकिन “किन्नर” देश में रहते जरूर है. किन्नरों का अस्तित्व दुनिया के हर देश में है समाज में उनकी पहचान भी है फिर भी उन्हें आम इंसानों की तरह नहीं समझा जाता, उन्हें बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता, उन्हें सरकार कोई आरक्षण नही देती, व्यवसायी वर्ग उन्हें नौकरी नहीं देता और तो और गाने बजाने और नाचने के अलावा कोई उनसे दोस्ती नहीं करता, उनसे बात नहीं करता क्योंकि वो समाज में हेय दृष्टि से देखे जाते है मानो वो कोई परग्रही हों.

आखिर क्यों किन्नर एक अजूबा है? क्यों उन्हें इस तरह सामाजिक तिरस्कार झेलना पड़ता है. क्यों समाज उनके प्रति लचीला रुख नहीं अपनाता? सवाल बहुत से है लेकिन उत्तर नहीं. नर और नारी का मिश्रित रूप “किन्नर” किसी भी समाज के लिए बिलकुल नया नहीं है. लोग उसे कुदरत का अन्याय भी बताते है, कुछ लोग इसे अभिशाप मानते है और भी न जाने क्या क्या लेकिन किन्नरों की ये दशा हमेशा ही ऐसी नहीं रही है. पौराणिक काल से ही किन्नरों का अस्तित्व दिखता है. तब उन्हें हेय भी नहीं माना जाता था. खुद शिवजी द्वारा धरा गया “अर्धनारीश्वर” का रूप किन्नर का ही एक रूप है. ये प्रतीकात्मक है कि हर मनुष्य में नर और नारी दोनों निवास करते है. उनका कम या ज्यादा का अनुपात ही कुछ को पूर्ण नर और कुछ को पूर्ण नारी बनता है. जहाँ ये अनुपात गड़बड़ा जाता है वही किन्नर जन्म लेता है. प्राचीन काल से ही हर काल में किन्नरों का उल्लेख मिलता है, कई जगह तो उन्हें पूजा भी जाता है. उनके अपने देवी देवता भी पाए जाते है जिनके मंदिर बने हुए है और उन पर बाकायदा मेले आयोजित किये जाते है.

प्राचीन पुस्तकों में इन्हें “तृतीय प्रकृति” के नाम से संबोधित किया गया है. यानी जिसके अन्दर नर और नारी के सामान गुण हों. पाश्चात्य देशों में इन्हें सम्लेंगिकों कि शाखा से सम्बद्ध कर दिया गया है और उन्हें यौन क्रियाओं के लिए प्रयुक्त किया जाता है. परंपरागत हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इन्हें पूर्ण पुरुष या पूर्ण नारी का स्थान कभी नहीं दिया गया है और उन्हें तीसरे लिंग के रूप में है जाना जाता रहा है. उनके व्यवसाय भी अलग प्रकार के रहे है जैसे मालिश करना, केश सज्जा, फूल विक्रेता, घरेलू नौकर या फिर राज परिवारों में उनकी रानियों कि सुरक्षा का काम. धीरे धीरे उनका धार्मिक गतिविधियों में शामिल होने से सामजिक स्थिति में कुछ परिवर्तन आया इसके चलते ये धारणा फैली कि उनमे किसी को श्राप या आशीर्वाद देने का अलौकिक गुण होते है. इसके परिणाम स्वरुप लोगों ने अपने हर शुभ काम पर उनकी उपस्थिति निर्धारित कर दी ताकि वो अपने आशीर्वाद से लोगों को अनुग्रहीत करें. इसके बदले उन्हें समाज से उपहार मिलने शुरू हो गए जिससे उनकी जीविका में एक बड़ा परिवर्तन आ गया. इसी अनुग्रह का विकृत रूप आज के समाज में है जहाँ बिना बुलाये हे आशीर्वाद देने जाना और बलपूर्वक उपहार लेना एक परंपरा बन गया है.

हिन्दू परंपरा में ऐसे बहुत से उल्लेख और कहानियां है जो लिंग परिवर्तन करने वाले देवी देवताओं   के बारे में है. बहुत से हिन्दू समलेंगिक और उभयलेंगिक ऐसे देवी देवताओं कि आराधना करते है जो लेंगिक दृष्टि से बहु लेंगिक अथवा लेंगिक विविधता में रहे. “अर्धनारीश्वर” उनमे सबसे पहले है. ये शिवजी का एक रूप था. “आरावन” से कृष्ण ने नारी बनकर विवाह किया. वही शिव और मोहिनी के संसर्ग से पैदा हुए “अयप्पा” को विष्णु का नारी अवतार माना गया. उभयलेंगिक “बहुचारा देवी” और “भगवती” देवी भी अस्तित्व में आये. राधा और कृष्ण के मिश्रित रूप “चैतन्य महाप्रभु” बंगाल में अवतरित हुए. शिव और विष्णु के मिश्रित रूप “हरिहर” भी प्रकट हुए. इसके अलावा जैसे “कार्तिकेय”, “येलम्मा देवी” जैसे कितने ही इसी श्रेणी में इस पृथ्वी पर अवतरित होते आये जो नर और नारी से परे “तृतीय प्रकृति” से सम्बन्ध रखते थे. इनमे से बहुतों के नाम पर उत्सवों का आयोंजन होता है जैसे “आरावन” तमिल नाडु में मनाया जाता है वही”अय्यप्पा और “चमाया विल्लाकू” पर्व केरल में मनाया जाता है. गुजरात में “बहुचारा माता” और कर्णाटक और आंध्र प्रदेश में “येलम्मा देवी और जोगप्पा” का उत्सव आम है.

पौराणिक काल के काफी बाद महाभारत काल में भी अपने अज्ञातवास में अर्जुन का “वृहन्नला” का रूप धरना भी येही साबित करता है के उभयलेंगिकों के लिए समाज में पर्याप्त स्थान था. महाभारत का ही “शिखंडी” जो नारी रूप में पैदा हुआ लेकिन एक पुरुष के रूप में पला और बढ़ा. उसने विवाह भी किया पर उसकी पत्नी को जल्दी है ये पता चल गया कि वो तो उसी के जैसा है. बाद में “यक्षों” कि सहायता से उसने असली पुरुष शरीर प्राप्त कर अपने पिता द्रुपद को ये साबित कर दिया कि वो एक पुरुष है. रामायण काल में भी एक मनोरंजक कथा मिलती है कि राम के पूर्वज महाराज दिलीप को मरते समय तक भी जब पुत्र प्राप्त नहीं हुआ तो उन्होंने शिव जी से प्रार्थना की के उन्हें पुत्र प्राप्ति हो. शिवजी ने उनकी दोनों विधवा रानियों को आदेश दिया के वो आपस में प्रेम करें और उन्हें पुत्र प्राप्त होगा. पुत्र तो हुआ परन्तु वो अस्थि विहीन था. किसी प्रकार एक प्रसिद्द ऋषि अष्टावक्र जी ने उस बच्चे को ठीक किया और उन्होंने उसका नाम “भागीरथ” रखा. उन्होंने ही पृथ्वी पर गंगावतरण कराया. “मनु स्मृति” में भी एक ऐसे बच्चे के पैदा होने के बारे में उल्लेख है जिसे “नपुंसक” कहा गया क्योंकि स्त्री और पुरुष दोनों के बीजों की सामान मात्रा “तृतीय प्रकृति” को ही जन्म देती है.

उत्तर भारत में किन्नरों का एक नाम “हिजरा” भी प्रचलित है. उत्तर भारत में ही करीब पचास हज़ार हिजरे है इसके बाद भी उनके लिए कोई सरकार कभी कल्याणकारी योजना नही बनाती. उन्हें सिर्फ गिन कर ही छोड़ दिया जाता है. सरकार अल्पसंख्यकों का राग अलापते नहीं थकती क्या उसे ये सचमुच के अल्पसंख्यक नज़र नहीं आते? आधुनिक समाज में २००८ में तमिल नाडु सरकार ने इनके लिए सरकारी प्रपत्रों में तीसरे लिंग के तौर पर संशोधन किया है. जो M , F , के साथ T के रूप में नज़र आएगा. लेकिन क्या इतना ही काफी है? बहुतों ने तो उन्हें अलग पहचान देने का भी काम नहीं किया है. इसी आशा के साथ के आने वाले समय में कोई संवेदनशील सरकार उनके लिए कुछ हितकर कार्य करेगी.


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