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अरे, “लोग” क्या कहेंगे?

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“अरे भाई लोग क्या कहेंगे?” कितना दिलचस्प है ये डायलोग. हममे से शायद हर कोई इसे दिन भर में कुछ बार तो बोल ही लेता है, चाहते हुए या न चाहते हुए. ये हमारी जुबान पर इस तरह चस्पा हो गया है के छूटता ही नहीं. बहुत साल पहले चेन्नई में अपने बॉस के साथ था. शाम को सोचा चलो एक मूवी देखते है. बॉस तैयार हो गए. मैं लुंगी में ही चल पड़ा तो बॉस बोले अरे ये क्या करते हो “लोग” क्या कहेंगे. मैंने कहा यहाँ तो सभी लुंगी में जाते है तो मुझे कोई क्या कहेगा. फिर भी उन्होंने मेरे कपडे बदलवा ही दिए. पत्नी के साथ भी एक दिन बाज़ार के लिए निक्कर में चल पड़ा तो वो बोली “ढंग के कपडे पहन कर क्यों नहीं चलते “लोग” क्या कहेंगे. मेरे एक मित्र भी कवि सम्मलेन में साथ जाने लगे तो मैं थोडा फ्री स्टाइल में चल पड़ा. फिर वही चिर परिचित वाक्य से सामना हुआ, “अरे यार ढंग से कपडे तो पहन लो “लोग” क्या कहेंगे. मैंने कहा भाई पांच छः घंटे बैठना है जरा आराम रहेगा ऐसे ही चलते है. उन्होंने मुझे बड़ी हिकारत से देखा और बोले “ठीक है जैसे मर्ज़ी करो”.

मैंने अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में इन “लोगों” को बहुत झेला है. पता नहीं ये कौन से लोग है जो हर हाल में कुछ न कुछ जरूर कहते है. खासतौर पर आपके कपड़ों पर तो मानो इनकी पैनी नज़र रहती है के आपने क्या पहना है, ठीक से पहना है या नहीं. मुझे तो यही लगता है के हमारे आस पास जितने भी लोग है कुछ न कुछ कहने को तैयार बैठे है. जैसे ही निकलो ये आपको कुछ कहेंगे. अब तो मुझे खुद भी डर सा लगा रहता है पता नहीं कब कौन क्या कह दे. ये बात अलग है के आजतक मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा पर पत्नी, मित्र, पडोसी, रिश्तेदार सभी ये जताने से बाज़ कभी नहीं आते के “लोग” क्या कहेंगे. मैं सोचता हूँ कि ये किस तरह के लोग होते है. इनकी विशेषता यही है कि ये कुछ कहते है. वैसे तो हम सभी कुछ न कुछ कहते ही है पर ये कुछ ख़ास कहते है जिनसे लोग आतंकित रहते है. अपनी सुख सुविधा के बजाय पूरी असुविधा के साथ निकलते है ताकि ये लोग कुछ कह न दें.

अब मेरे जैसे लोगों के लिए तो ये बिलकुल सजा हो गयी जो अपनी सुख सुविधा से समझौता नहीं करते भले ही लोग कुछ भी कहते रहें. मेरे न चाहते हुए भी मुझे असुविधा जनक होना पड़ता है दूसरों की खातिर. कई बार तो मैंने लोहा लेने की ठान ही ली और पत्नी और मित्र को खूब खरी खोटी सुना दी के और कोई कुछ कहे न कहे पर तुम ही ये कह रहे हो और कहते रहोगे. अब सवाल ये उठता है के हम किन लोगों के बारे में ऐसे सोचते है जो कुछ न कुछ कहने के लिए तैयार बैठे है. मेरे विचार से तो लोग तीन तरह के होते है. एक वो जो आपको जानते है, दूसरे वो जो आपको जानने के साथ पहचानते भी है और तीसरे वो जो आपको नहीं जानते. पहली श्रेणी वो है जो आपके आस पास रहते है जिनसे आपको कोई न कोई काम पड़ता रहता है, दुकान वाला, मिठाई वाला, बिजली वाला, कचरे वाला, बच्चे के स्कूल वाले, ऑफिस के सहकर्मी बगैरह. दूसरी श्रेणी में आपका परिवार, मित्र, रिश्तेदार इत्यादि आते है जो आपको जानने के साथ साथ पहचानते भी है. तीसरी श्रेणी तो है ही अनजान लोगों की जिनसे आपका कभी वास्ता नहीं पड़ता.

अब अगर हम बात करें पहली दो श्रेणियों की तो वो चूंकि आपको जानते और पहचानते है सो वे अच्छी तरह जानते है आप कैसे रहते हो. इसलिए वो कभी कुछ नहीं कहेंगे. तीसरी श्रेणी चूंकि आपको जानती ही नहीं तो वो भला आपको कुछ क्यों कहेगी? तो लब्बोलुबाब ये निकला के तीनो ही श्रेणियों के लोग आपको कुछ नही कहेंगे. अब कौन से लोग बचे जो कुछ कहेंगे? पता नहीं. दरअसल ये हमारी हीन भावना की दें है जो हमेशा ही शंकाग्र��्त रहते है. उन्हें अपने पर विश्वास नहीं होता के वो जो कर रहे है वो सही है या नहीं या फिर उनके पास अपने किये को न्यायोचित ठहराने के कारण नहीं होते. ये वस्तुतः आत्मविश्वास की कमी का प्रतीक है. दरअसल कोई किसी को कुछ नहीं कहता. आज किसी के पास इतना वक़्त नहीं है जो दूसरों पर इतनी खोज करे और फिर उस पर अपनी टिप्पणी करे. जमाना बदल रहा है. महिलाओं के पास तो इतना वक़्त हो सकता है के वो कुछ कहें पर पुरुषों को, जो अपनी आजीविका से ही जूझता रहता है, क्या कहेगा.

मुझे उम्मीद है पाठकों को ये समझ में आ गया होगा की जब भी वो ये वाक्य सुने तो ध्यान रखें कि इस पर ज्यादा ऊर्जा नष्ट करने कि जरूरत नहीं है क्योंकि आपको कोई कुछ नहीं कहने वाला. अपना आत्मविश्वास बनाये रखे और उस पर अडिग रहें कि जो आप कर रहे है वो ठीक है. आप दुनिया में हर किसी को खुश नहीं कर सकते वैसे भी दूसरों को खुश रखने से बेहतर है खुद को खुश रखें. अपनी ख़ुशी का काम करें, अपने पसंद के कपडे पहने अंपने पसंद का खाएं यही ज़िन्दगी का मूल मंत्र भी है. अपनी ऊर्जा उत्पादक कार्यों में खर्च करें न कि दिखावे के लिए. मेरा विश्वास है इससे आपकी ज़िन्दगी मैं जरूर बदलाव आएगा. आप ज्यादा आत्मविश्वासी बन कर उभरेंगे. भूल जाएँ “लोग” क्या कहेंगे. अपनी हीन भावना को उखाड़ फेंकिये.

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