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कुछ “इंडियन” बाकी “हिन्दुस्तानी”

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हमारा देश कई मायनों में दूसरो से बहुत अलग है. सबसे पहले तो किसी भी देश के दो नाम नहीं मिलते. हिंदी हो या अंग्रेजी नाम एक ही होता है. हमारे देश के तो कई नाम है जैसे इंडिया, भारत, हिंदुस्तान. हमारे देश में आजकल शहरों का नाम बदलने की प्रथा सी चल पड़ी है वही भेड़ चाल, पहले बॉम्बे का मुंबई हुआ तो मद्रास का चेन्नई हो गया, बंगाल कैसे पीछे रहता सो उसने भी कलकत्ता का कोलकाता कर दिया. हालांकि इससे उन शहरों की दशा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ न ही उनके नए नामकरण से लोगों की समझ पर कोई फर्क पड़ा. ये शायद सरकारों के अपने अहम् की संतुष्टि का मामला था. जनमानस को अनावश्यक से भावनात्मक रूप से उद्धेल्लित करना भर था.

हैरत की बात ये है के शहरों के नाम बदलने में तो सबका ध्यान जाता है पर क्या किसी ने अपने देश का एक नाम करने के बारे में सोचा? विदेशों में ये इंडिया है यहाँ ये भारत और हिंदुस्तान है? ये कैसी बिडम्बना है? बड़े बड़े बुद्धिजीवी भाषण देते नहीं थकते पर क्या किसी ने अपने देश के स्वदेशी नाम पर कोई बात की है? अंग्रेजों ने इंडिया बनाया इंडस यानी सिन्धु नदी के नाम पर अब तो वो नदी भी यहाँ नहीं बहती. हम अपनी गुलामी की किसी भी यादगार के प्रति कितने संवेदनशील है ये कई बातों से पता चल जाता है. हमारी सरकार आज भी अंग्रेजों की बनाई उसी इमारत से हुकूमत करती है जिसमे बैठ कर ब्रिटिश लोगों ने हिन्दुस्तानियों पर कितने जुल्म किये. इतने सालों में भारत की सरकार अपने लिए अपना एक ऑफिस भी नहीं बना पाई जिसे वो अपना कह सके. तर्क तो बहुत हो सकते है पर सच यही है की हमारे अन्दर राष्ट्रवाद जैसी कोई भावना ही नहीं है. सबसे बड़ी बात की इसके लिए किसी भी स्तर पर कोई भी शर्मिंदा नहीं है.

यथा भावना तथा गुण. ये बात हमारे यहाँ बिलकुल सही साबित होती है. जब देश के नाम अनेक तो यहाँ के निवासियों का विभाजन भी तय है. यहाँ दो प्रकार के नागरिक पाए जाते है. एक जो इंडियन है और इंडिया में रहते है, दूसरे हो भारतीय या हिन्दुस्तानी है जो भारत में रहते है. दोनों में क्या फर्क है? इंडियन देश का वो वर्ग है जो संपन्न है, वो केवल महानगरों में रहता है, या ज्यादातर विदेशों में. बड़ी बड़ी गाड़ियों में घूमता है, स्विस बैंक में अकाउंट मेन्टेन करता है पोश इलाकों में रहता है. बड़ी बड़ी फैक्ट्री चलता है. अरबों इधर उधर करता है विदेशों में भाषण देता है. टीवी पर अंग्रेजी में बोलता है. हमारी हिंदी फिल्मो के कलाकार तो अक्सर अंग्रेजी में ही बोलते है. हो सकता है उन्हें हिंदी न भी आती हो. और सबसे बड़ी बात वो बुद्धिजीवी भी कहलाता है. अब एक वर्ग भारतीयों का है जो नौकरी पेशा लोग है देहाड़ी मजदूर है, किसी तरह सर पर छत का इंतज़ाम करते है सारी ज़िन्दगी पोश इलाके में रहने का सपना पाले हुए ही फौद हो जाते है. इनमे से बहुतों को दो वक़्त की रोटी भी भारी पड़ती है. गाँव से भागकर शहर में आ जाते है तो यहाँ और बदहाल हो जाते है फिर सोचते है ऐसे इंडिया से तो भारत में ही भले थे. अब जमीन भी बेच दी गाँव वापस नहीं जा सकते सो मजदूरी करते है.

इनका आपस में संघर्ष होना तय है. अक्सर हिन्दुस्तानी इंडियन पर आक्रमण कर देते है उन्हें लूट भी लेते है. वो उनकी नज़र में आज भी अंग्रेजी शासन के अंग्रेजों से कम नहीं. उनकी कारों और मोटर साइकिलों या साइकिलों में टक्कर आम बात है. जिसका जहाँ दाव लगा वही काम हो गया. इंडियन भी हिन्दुस्तानियों को कुचलने में बिलकुल पीछे नहीं रहते मौका मिलते ही दुश्मन की तरह खलास. आप सड़क दुर्घटनाओं पर नज़र डालिए एक भी हिन्दुस्तानी इंडियन को नहीं कुचलता ये विशेषाधिकार इंडियन को ही है. एक बार मैं एक अच्छे स्टोर में खरीदारी करने गया वहां एक लड़का जो इंडियन था, अपने दोस्त के साथ आया. हर बात में “ओह शिट” “ओह शिट” कर रहा था. मन में तो आया की इसके कान के नीचे एक इतना जोरदार कंटाप लगाऊं कि ये बाकई में शिट कर दे. अबे जब तुझे यहाँ सब शिट ही शिट नज़र आ रहा है तो दफा क्यों नहीं हो जाता यहाँ से. ये एक लड़के कि बात नहीं है ऐसे लाखों लोग है जो हिन्दुस्तानियों कि जगह पर जाकर “ओह शिट” कहने से बाज़ नहीं आते. ऐसे लोंगों को सबक सिखाना जरूरी है. अफ़सोस ऐसे ही लोगों पर देश कि प्रगति का दारोमदार है जिन्हें अपनी चीज़ें सिर्फ “शिट” नज़र आती है.

क्या हिन्दुस्तानी समाज का कोई वर्ग ऐसे इंडियन से लोहा लेने को तैयार है? हम केवल अनुत्पादक विषयों पर अपनी ऊर्जा खर्च कर सकते है लेकिन अर्थपूर्ण बातों के लिए हमारे पास समय नहीं है. मेरा निवेदन है जो भी इस आलेख को पढ़ें थोडा जरूर सोचें.

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