Menu
blogid : 7000 postid : 78

गोरी तेरा “पाँव” बड़ा प्यारा

make your critical life easier
make your critical life easier
  • 29 Posts
  • 47 Comments

आपको ये लाइन एक गाने के मुखड़े की तरह लग रही होगी. है भी. फिल्म चितचोर के “गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा”. फिल्म में गोरी भी प्यारी थी और उसका गाँव भी पर किसी ने भी उस गोरी के पाँव की तरफ ध्यान नहीं दिया. बेचारी कैसे पूरी फिल्म में नंगे पैरों पूरे गाँव में भागती फिरती थी. उसके पैरों को छोड़ कर हर पहलू को ध्यान में रखा गया. ये तो फिल्म थी पर हकीकत में भी हालत ऐसे ही तो होते है. पुरुषों को तो छोडिये, महिलाओं को भी पैरों पर ध्यान देने की जरूरत महसूस नहीं होती. सबके लिए मुखड़ा ही चमकता चाहिए. मुझे नहीं लगता किसी ब्यूटी पार्लर में पैरो को ट्रीटमेंट दिया जाता हो. आखिर ये पैर इतने उपेक्षित कैसे हो गए? प्राचीन काल में “नख शिख” सौंदर्य का वर्णन मिलता है जहाँ शरीर के हर अंग पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता था. अब तो केवल “शिख” ही रह गया है.

अभी करवा चौथ का त्यौहार था. सभी महिलाओं के लिए ये सजने सँवारने का सबसे सुनेहरा मौका होता है. मेरी पत्नी ने भी चेहरे को झाडा पोंछा, हाथों में मेहदी भी लगाईं जब पूछा के पैरों में कुछ क्यों नहीं लगाया तो बोली उसकी क्या जरूरत है. हमारे यहाँ पहले पैरों में महावर लगाने की प्रथा थी जो पूर्वांचल में आज भी है. इसके बहाने ये तो पता चल ही जाता था कि पैरों के नाखून कटे है या नहीं, एडियों में कितनी दरारें आ चुकी है, मैल कबसे साफ़ नहीं हुआ बगैरह बगैरह. अब वो प्रथा लुप्त हो गयी है और जब तक एडियों में दरारें न पद जाए, उनमे दर्द न हो, कोई उनका ध्यान नहीं रखता. ये भी याद नहीं रहता कि यही पैर हमारी सम्पूर्ण काय का बोझा उठाते है. इन्हें भी उतनी ही देखभाल चाहिए जितनी हमारे मुखड़े को. पैरों का यूं उपेक्षित होना मेरे लिए बेचैनी का सबब है. ये उनके प्रति हमारी निष्ठुरता का प्रतीक है. शरीर के सबसे महत्वपूर्ण अंग का ये हाल नाकाबिले बर्दाश्त है. एक जमाना था जब घूंघट प्रथा थी. तब लोग पैरों को देखकर सम्पूर्ण शरीर कि सुन्दरता का अंदाज़ा लगा लेते थे क्योंकि चेहरा देखना या दिखाना प्रथा विरुद्ध था.

बहुत साल पहले एक फिल्म आई थी नाम था “पाकीज़ा”. उसके एक डायलोग ने बहुत धूम मचाई थी “आपके पैर देखे, बहुत हसीं है, इन्हें ज़मीन पर मत रखियेगा, मैले हो जायेंगे.” राजकुमार का ये डायलोग इतना चर्चित हुआ कि पूरी फिल्म मानो पैरो पर ही सिमट गयी. ये पैरों को इज्ज़त देने कि कोशिश थी. अनजाने में ही सही पर नायक ने उन पैरों को पूरी इज्ज़त बक्शी जिन के बल पर नायिका लोगों के दिलों कि मलिका बन बैठी थी. लेकिन साहेब अब ये सब गए जमाने की बातें हो गयी है. अब कौन पैरों को देखता है. पैरों की बात करना या उन्हें देखना किसी बदगुमानी से कम नहीं. इसे आपकी मानसिक कमजोरी भी समझा जा सकता है. आप वैचारिक रूप से बीमार भी बताये जा सकते है पर ये सच है कि पैर हमारी पूरी शारीरिक रचना का महत्वपूर्ण अंग है जिनके बिना हमारा अस्तित्व कायम नहीं रह सकता.

आप सोच रहे होंगे कि पैरों के महिमा मंडन में मुझे इतना मज़ा क्यों आ रहा है. आपका सोचना सही है. पैर केवल शरीर का ही प्रतिनिधित्व नहीं करते ये हमारे समाज के दर्पण की तरह है. जिस प्रकार शरीर के कुछ अंग अतिरिक्त देखभाल पाते है और कुछ निम्नतम उसी प्रकार समाज के कुछ वर्ग शारीरिक अंगो की तरह ही है. पैरों की जगह समझे जाने वाले समाज के निचले तबके की तरफ ध्यान बहुत कम जाता है. हालांकि ये बात आज भी उतनी ही खरी साबित होती है की पैरों को देखकर पूरे शरीर की सुन्दरता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है उसी प्रकार समाज के निचले वर्ग को देखकर उस समाज के बारे में भी पूरा  अंदाज़ा लगाया जा सकता है. निम्न वर्ग उन्ही पैरों की तरह है जिन्हें देखभाल उनके पीड़ित होने पर ही मिलती है. सामाजिक संरचना में उनका स्थान महत्वपूर्ण होते हुए भी गौण है. वे जल्दी किसी की सहानुभूति के पात्र नहीं बनते. उनके जीने मरने का समाज पर ज्यादा प्रभाव भी नहीं पड़ता. वो सिर्फ पैरों की भांति चलने के लिए प्रयोग किये जाते है उन पर साबुन नहीं मला जाता.

यही हमारी बिडम्बना है कि हम कभी भी न अपने साथ न समाज के साथ न्याय नहीं कर पाते. हर चीज़ सरकार पर निर्भर है जो खुद दूसरों कि दया पर निर्भर है. आइए कम से कम हम अपने स्तर पर तो न्याय करें. अपने शरीर के साथ अपने समाज के साथ ताकि उन्हें उनके कार्यानुरूप महत्वपूर्ण स्थान दिया जा सके. विकास के लिए सदैव ऊपर की और देखना जरूरी है लेकिन विकास की उस सीढ़ी तक पहुँचने के लिए अपने पैरो को देखना भी उतना ही जरूरी है वरना कही ऐसा न हो की विकास की मंजिल चढ़ते चढ़ते हमारे पैर ही इस लायक न बचें की हम विकास का जश्न मन सकें.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply