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“दीपावली” इसी का नाम है?

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चारो तरफ पटाखों का शोर, उनसे उठता हुआ असहनीय धुआं, तेज बिजली की रौशनी जो आँखों को चका चौंध कर दे. तरह तरह के दीप मालाएं, विदेशी बल्बों की झालरें. करों की डिक्की में समाये गिफ्ट पैक जिनमे भरे हुए है सूखे मेवे यानि ड्राई फ्रूट. सड़कों पर गाड़ियों की लम्बी कतारें, सड़कों और बाज़ारों में लम्बा ट्राफिक जाम, एक दूसरे के घर पहुँचने को परेशान लोग, दीपावली की बधाई देने की जल्दी और होड़ दोनों. मुझे तो यही सब दिखाई देता है. क्या यही दीपावली है? कुछ भी कहने से पहले तो मैं ये बता दूं की अब “दीपावली” नहीं बल्कि “दिवाली” होती है. जहाँ तक मुझे याद है ये “दीपावली” पर्व हुआ करता था जिसमे दीप जलाने को प्रमुखता दी जाती थी. अब चूंकि ये दिवाली हो गयी है तो इसमें क्या प्रमुख है ये समझ में नहीं आता.

श्री राम के अयोध्या वापस आने की ख़ुशी में अयोध्या वासियों द्वारा दीप मालिकाओं के आयोजन से शुरू हुई ये प्रथा कालांतर में किसानों की फसल से जोड़ दी गयी. धान की फसल के बाद प्रकृति को भेंट स्वरुप दी जाने वाली “खील” दीपावली का अहम् हिस्सा हो गया. आज भी ये प्रथा चल रही है पर मुख्य तो प्रकृति को भेंट चढ़ाना नहीं बल्कि आपस में ही एक दूसरे को भेंट देना रह गया. किसी की चापलूसी के लिए, किसी को प्रोमोशन पाने के लिए, दुकानदारों को ग्राहक बनाये रखने के लिए भेंट अहम् है. इसके बिना आप दीपावली की कल्पना नहीं कर सकते. मिटटी के दीयों की बात तो अब गुजरे जमाने और पिछड़ेपन की निशानी बन चुकी है क्योंकि दीपावली पर उपभोक्तावाद हावी हो गया है. साल में एक दिन की “दिवाली” कितनों का दिवाला निकलती है ये इन पूँजी पतियों को नहीं पता. कितनी बिजली की बर्बादी और वातावरण में व्याप्त प्रदूषण कितनों की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करता है ये सोचने की किसी को जरूरत नहीं.

दीपावली अब दीपों का नहीं बिजली का त्यौहार है. ये लोगों को प्रभावित करने का समय है. अपनी संपत्ति को प्रदर्शित करने का अवसर है की मैं कितना समृद्ध हूँ और देखो मेरी दिवाली सबसे टॉप है. मेरे बच्चे ने दस हज़ार के पटाखे फोड़े थे पिछले साल, इस साल बीस हज़ार के फोड़ेगा. मलेशिया से मैंने खास बिजली की झालर मंगवाई है और गिफ्ट भी सब अमेरिकन है. यहाँ तक की चोकलेट भी पेरिस की है. ये दिवाली है. यहाँ दीपक नहीं आँखों की रोशनी तक कम कर देने वाली झालरें है जो अपने लिए नहीं दूसरों को दिखने के लिए है. मैं अक्सर सोचता हूँ की कोई भी त्यौहार अपनी मौलिक सोच के साथ आज जिंदा है या नहीं? त्योहारों का चलन, आत्मोन्नति, सामाजिक सहभागिता, कुरीतियों का शमन और भी कुछ अच्छे उद्देश्यों के लिए किया गया पर आज वो सब गायब है. त्योहारों की मूल भावना लुप्त हो चुकी है. अब अगर कुछ है तो बस दिखावा, दिखावा और दिखावा.

किसी कवि ने क्या खूब कहा था के “जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अँधेरा धरा पर कही रह न जाए.” हमारा दुर्भाग्य है के कवि की कविता उस रूप में कभी सार्थक नहीं हो सकी. और हो भी कैसे जब हमारे अपने ही ह्रदय में दीयों के लिए स्थान नहीं है तो हम दूसरों के घरों और दिलों में दिए जलने की बात कैसे सोच सकते है. दीपावली का अब केवल भौतिक महत्त्व है जबकि कभी इसका आध्यात्मिक महत्त्व भी था. अब भी लोग कुछ तंत्र मंत्र की क्रियाएं करने के लिए ही कार्तिक अमावस्या की प्रतीक्षा करते है. अब लक्ष्मी पूजा ही मुख्य पूजा है और साथ में गणेश जी भी रख दिए जाते है. मुझे याद है काफी पहले इन दोनों के साथ सरस्वती पूजा भी होती थी पर आज सरस्वती जी तो गायब है. लोगों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया है. शायद पहले लोंगों को लगता था की अगर लक्ष्मी जी आएँगी तो उनके समुचित उपयोग के लिए हमें बुद्धिमत्ता की जरूरत होगी जो सरस्वती ही दे सकती है. समय के साथ सोच बदल गयी. अब लोगों को लगता है की उनमें पर्याप्त बुद्धिमत्ता है और वो बिना सरस्वती के ही लक्ष्मी का उपयोग और उपभोग कर लेंगे.

अब चूंकि सरस्वती उपेक्षित है और लक्ष्मी अपेक्षित है सो उसका परिणाम साफ़ नज़र आ रहा है. धन यानी लक्ष्मी के साथ बुद्धिमत्ता नहीं है इसीलिए त्योहारों की मूल भावना के साथ खिलवाड़ हो रहा है. मन मर्ज़ी से प्रथाएं बदली जा रही है. लोग ऐसी अंधी दौड़ में शामिल है जो सिर्फ दौड़ने के लिए है उसका गंतव्य नहीं है. लोग परंपरागत खील बताशे खाने के लिए नहीं दूसरों को बांटने के लिए लाते है. खुद खाना गवारा नहीं क्योंकि ये उनका हाजमा बिगाड़ देगा. जिनको बांटा जाता है वो निम्न वर्ग के लोग होते है. उन्हें लोग कीमती चोकलेट नहीं देते. सन्देश साफ़ है. तुम्हारी यही औकात है तुम्हे यही मिलेगा और कुछ नहीं. महँगी चीज़ें क्या गरीबों में बांटने के लिए होती है? वो तो खुद या अपने जैसो को खिलने के लिए होती है. मैंने आज तक कभी किसी को महँगी चीज़ें बांटते नहीं देखा.

मैंने इस साल दीपावली न मनाने का निर्णय किया है. मेरा ह्रदय बहुत आहत है. मेरे मन में बाढ़, भूकंप से बर्बाद हुए लोगों की चीखें गूँज रही है. भूखे पेट सोते लोगों की आहें पीछा कर रही है. मेरी मजबूरी ये है की मैं कुछ कर नहीं सकता पर कम से कम अपना एक शगल तो रोक सकता हूँ ऐसे लोगों के लिए जिन्हें भी ये अधिकार है की वो इन त्योहारों का आनंद उठाएं. मेरी येही शुभ कामना है की हर घर में एक दिया रौशनी का ऐसा जले जो उस घर के लोंगों की ज़िन्दगी में सचमुच उजाला भर दे. तभी मेरा त्यौहार मनाना सार्थक होगा. आइये अपनी शुभ कामनाएं ऐसे लोगों तक पहुंचाए जो इसके सचमुच हक़दार है. एक इंसान होने के नाते अपना नैतिक दायित्व निभाए और अपनी ही नस्ल की उन्नति की प्रार्थना करें. मेरे हर देशवासी के घर में उजाला हो, ज्ञान का, धन का, सम्मान का, स्वास्थ्य का, इसी शुभ कामना के साथ.

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