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सुख राम को दुःख दान

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खबर पढ़ कर बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ. आख़िरकार सुख राम को भी इस देश के कानून ने सजा सुना दी भले ही वो सांकेतिक हो. सन 1996 से अब जाकर जांच पूरी हो पाई और 86 साल की उम्र में अदालत ने सुखराम के सुखों में पलीता लगा दिया. वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में लगातार विवादों में घिरे शख्स के साथ होना तो कुछ ऐसा ही था पर कुछ सवाल पैदा हो ही जाते है. क्या महज़ तीन लाख की रिश्वत के लिए 15 साल बाद बस 5 साल की जेल की सजा और थोडा सा जुरमाना जो रिश्वत लेने से थोडा ही ज्यादा है? क्या ये प्रतीकात्मक सजा नहीं है? अब उन लोंगों को कितने समय के बाद और कितनी सजा मिलेगी जिन्होंने सुखराम से भी ज्यादा मोती रिश्वत खाई है?

इस तरह की जांच में इतना लम्बा समय क्यों लगता है? अब जबकि आरोपी इतना वृद्ध हो चुका है वो सश्रम सजा कैसे काटेगा? हमारी अदालतों और जांच एजेंसियों की कार्यवाही देखकर तो यही लगता है की सजाएं भी खानापूरी के लिए दी जा रही है. ऐसे और कितने भ्रष्ट नेता गण अभी शायद लाइन में लगे है अपनी सजा सुनने के लिए. हो सकता है उनमें से बहुत से अपनी सजा सुनने से पहले ही परलोक का रास्ता ले लें. अब आगे का अध्याय स्पष्ट है. सुखराम जिस दिन जेल जायेंगे उसके दो या तीन दिन बाद ही बीमार हो जायेंगे फिर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया जाएगा. उन्हें सजा में रियायत देने की बात कही जायेगी. किसी भी तरह उन्हें जेल से बाहर रखने की जुगत भिडाई जायेगी और अंततः उन्हें एन केन प्रकारेण सजा से मुक्ति मिल ही जायेगी.

इसी के साथ सारी अदालती कार्यवाही की हवा भी निकल जायेगी. क्या हमारी अदालतें समय रहते फैसला नहीं सुना सकती? क्या उन्हें केस के व्यवहारिक पहलुयों को ध्यान में नहीं रखना चाहिए? हमारे देश वासी अदालतों का बहुत सम्मान करते है इसे कार्यपालिका से भी ऊपर का दर्जा प्राप्त है पर फिर भी उसके खिलाफ शिकायतें कम नही. अदालतों में किसी भी फैसले में जरूरत से ज्यादा समय लगना कारण चाहे जो भी हो, उस फैसले के अस्तित्व के ही खिलाफ हो जाता है. अच्छा तो ये हो कि अदालतें खुद ही इसकी भी समय सीमा तय करें कि किस श्रेणी के फैसले कितने दिन में होने चाहिए. सुखराम जैसे लोगों को सजा मिलना या न मिलना एक ही जैसा है. ये व्यावहारिकता से ज्यादा प्रतीकात्मक फैसला है. जब आदमी सजा भुगतने के लायक ही न बचे तब उसे सजा देने का क्या मतलब रह जाता है.

न्याय में देरी होना भी अन्याय ही है. उस देश कि जनता के साथ जिसके खून पसीने कि कमाई नेतागण अपने स्वार्थों की खातिर अक्सर दाव पर लगते रहे है. क्यों न इस देश के बुद्धिजीवी इस पर एक सार्थक बहस की शुरुआत करें और ऐसे क़ानून बनाएं जो व्यावहारिक ज्यादा हों.

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