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स्मार्ट सिटीजः कन्सेप्ट पेपर की खामियां –– भाग–4

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7. स्मार्ट सिटीज में क्या क्या होगा ? इस हेतु जो बेंच-माकर््स बताये गये है, वे तो बहुत आकर्षक और प्रषंसनीय हैं। उन पर शायद ही किसी को आपत्ति हो किंतु मैं एक मुददे पर पुनर्विचार का आग्रह करता हँ। वह है ‘शहर में 24×7  पानी की सार्वजनिक आपूर्ति ‘यदि हम विभिन्न शहरों में इस लक्ष्य को पूरा करने की लागत को देखेंगे तो पायेंगे कि यह लक्ष्य लागत-लाभ मूल्यांकन की दृष्टि से कतई उचित नहीं है और उससे भी बढ़कर बात यह है कि इस तरह शहरवासियों को नलों से लगातार पानी उपलब्ध कराने की कोई उपयोगिता व आवष्यकता भी नहीं है। इसके पक्ष में जो तर्क दिये गये हैं वे ‘पानी की हर समय उपलब्धता‘ और ‘पानी की नलों द्वारा हर समय आपूर्ति‘ इन दो अलग-अलग बातेां को एक ही मान लेने से पैदा हुए हैं।
मैं अपने इन्दौर शहर के अनुभव से यह बात कह रहा हँू। इन्दौर में नर्मदा नदि से बहुत बड़ा खर्च करके 3 चरणों की योजना के बाद पानी की आपूर्ति संभव हुई है। फिर भी शहर के अधिकांष हिस्सो में 1 दिन छोड़कर 1 से 3 घंटेां के लिये पानी सप्लाय किया जाता है। इससे शहरवासी अपनी दो दिन की जरूरत का पानी भर लेते है और अपना काम चला लेने के आदी हो चुके है। इस प्रकार से सीमित समय के लिये पानी सप्लाय होने पर भी आमतौर पर शहर भर में हमेषा आवष्यक मात्रा में पानी उपलब्ध रहता है। कभी-कभी कहीं-कहीं कठिनाई भी आती होगी। मगर इस उदाहरण से मेरा आषय यह है कि यदि हम शहरों में पानी सीमित समय के लिये ही मगर पर्याप्त मात्रा में सप्लाय करें तो भी हमेषा लगातार पानी की उपलब्धता रह सकती है और पानी की उपलब्धता न रहने से कार्य क्षमता घटने, बीमारीयाॅ बढ़ने या मृत्यु दर बढ़ने जैसे जो तर्क दिये गये है उनका कोई औचित्य 24×7 पानी सप्लाय करने के पक्ष में नहीं है। महत्व इस बात का है कि सप्लाय किये गये पानी की कुल मात्रा पर्याप्त हो और उसकी गुणवता या शुद्धता अच्छी हो। अतः लगातार पानी सप्लाय का लक्ष्य तो व्यर्थ में बजट बढ़ाने वाला तथा शहरवासियों को पानी के समुचित उपयोग के प्रति लापरवाह बनाने वाला सोच है, जो हमारे देष की जमीनी हकीकत के कतई अनुकूल नहीं हैं।
8. पानी के संदर्भ में जो दूसरी महत्वाकांक्षा जाहिर की गई है वह तो और भी अधिक अव्यवहारिक एवं अनावष्यक है। सोचा गया है कि दो तरह का पानी सप्लाय किया जायेगा, पीने के लिये अलग और अन्य कार्यो के लिये अलग। सेाचने वाली बात है कि दो तरह के पानी का मतलब है कि उनके अलग अलग स्टोरेज टैंक्स और अलग-अलग सप्लाय पाईप लाईन, जिसका अर्थ है अनाप-शनाप खर्च और उसके बाद इसकी कोई गारंटी नहीं है कि फिल्टर प्लांट पर 100ः शुद्ध किया गया पीने का पानी लम्बी यात्रा करते हुए घर के नल तक उतना ही शुद्ध रूप में पहूँचेगा। इससे तो अच्छा है कि सरकारें या नगर पालिकाएँ एक ही प्रकार का साफ किया हुआ पानी घरों तक सप्लाय कर दें और घरेल्ूा वाटर प्यूरीफायर हर घर में अनिवार्य रूप से उपलब्ध करवा देय जिससे लोग स्वयं की आॅखों के सामने सप्लाय किये गये साफ (नहाने योग्य) पानी को पूरी तरह से रोगाणु मुक्त शुद्ध करके पीयें। आधुनिक व कम लागत की तकनीकों से बनाये गये प्यूरीफायर यदि नगर पालिकाएॅ 50 सब्सिडी के साथ उपलब्ध करवायें तो लोग सहर्ष उनका उपयेाग करने लगेंगे। गरीबों या वंचित वर्ग को ये निःषुल्क भी दिये जा सकते हैं, तब भी इनका खर्च दोहरी जल आपूर्ति की तुलना में तो कम ही आयेगा। फिलहाल तो समस्या यह है कि बहुत से शहरों में पूरी तरह से नल-जल प्रदाय की व्यवस्था भी नहीं हुई है, ऐसे में लगातार और वह भी दोहरी जल आपूति की बात करना दिवा-स्वप्न दिखना ही है।
9. कन्सेप्ट पेपर में वैसे तो शहरो को स्मार्ट बनाने के लिये एक बहुआयामी व समग्र सोच कोे पेष किया गया हैय परन्तु समग्रता की दृष्टि से एक विचारणीय मुद्दा और भी हैं। कोई भी शहर तब तक सही अर्थो में स्मार्ट नही बन सकता जब तक कि उसकी भावी पीढ़ी अर्थात सभी बच्चों को स्मार्ट बनने के साथ साथ संवेदनषीलता तथा परस्पर सहयोग की, सह-विकास की षिक्षा भी समान रूप से नहीं मिले। आज तो जिस प्रकार से तरह तरह के सरकारी और निजी स्कूलों में अलग-अलग स्तर की असमानताएॅ व वर्ग भेद बढ़ाने वाली षिक्षा दी जा रही है उससे तो कोई भी शहर कभी भी सही अर्थो में पूरा-पूरा स्मार्ट बन ही नहीं सकता है। षिक्षा व्यवस्था का उद्धार तो तभी हो सकता है जबकि हम सभी बच्चों को समान स्तर की, समान गुणवत्ता वाली षिक्षा अनिवार्य, निःषुल्क और पड़ोसी स्कूल की अवधारणा के अनुसार उपलब्ध करवायें। स्कूली षिक्षा का सम्पूर्ण राष्ट्रीयकरण हो जाये और मंत्री, संतरी, उद्योगपति, मजदूर, किसान, सभी के बच्चें साथ-साथ एक समान षिक्षा प्राप्त करें। षिक्षा व्यापार वृत्ति से पूर्ण मुक्त हो जाये और हम ‘समाजवादी राष्ट्र‘ बनाने के अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी की ओर भी आगे बढ़ सकें। ‘पड़ोसी स्कूल‘ की अवधारणा का एक लाभ यह भी है कि इससे ढेर सारी स्कूल बसों और ओवर-लोडेड रिक्षाओं की आवष्यकता ही नहीं रहेगी तथा शहर की ट्रेफिक व्यवस्था भी अधिक स्मार्ट बन जायेगी।
10. सरकार की आर्थिक नीतियों से और कंसेप्ट पेपर से भी यह लगता है कि हम विदेषी व बड़े कार्पोरेट्स के पूॅजी निवेष को आकर्षित करने के लिये कुछ अधिक ही लालायित है। किसी बड़ी सैद्धांतिक बहस को छेड़े बिना मैं यहाॅ बस सावधान करना चाहता हूॅ कि कहीं इस होड़ में हमारे स्थानीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग भी दब न जायें। स्मार्ट सिटीज में बाहर से पूँजी को आकर्षित करने से पहले स्थानिय उद्यमियेां के विकास को प्राथमिकता मिलना चाहिये। स्वदेषी बड़े उद्योगपतियों व कम्पनीयों को भी चाहिये कि वे स्थानीय छेाटे उद्यमियों या इकाईयेां को साथ लेकर या उन्हें अपनी सहयोगी इकाई बनाकर अपने व्यापार का विस्तार करें। सहकारिता की सोच एवं सहकारी इकाईयो को सर्वाधिक बढ़ावा एवं प्राथमिकता मिलना चाहिये। जिस प्रकार से विषमता और सुपर रिच लोगांे की संख्या बढ़ रही है वह देष व समाज में तनाव, गला काट स्पर्धा और अन्याय को बढ़ा रही है। जहाँ- जहाँ भी हमारे स्वदेषी उद्यमी या उनका समूह आगे आ सकता हो वहाँ विदेषी कम्पनीयों को मौका नही मिलना चाहिये। हमें ऐसी नीतियाॅ अपनाना चाहिये जिनसे स्वदेषी उ़द्यमी व कम्पनीयाँ विदेषों से तकनीक व पूँजी निवेष अधिक प्राप्त कर सकें।
11. कन्सेप्ट-पेपर में पर्यावरण की दृष्टि से भी बहुत सी अच्छी बातें लिखी गई है। परन्तु सामान्य अनुभव यह है कि भौतिक विकास की अंधी दौड़ में हम अधिक से अधिक व शीघ्र कमाई वाले संसाधनो व उपक्रमों को ही प्राथमिकता देने लगते है और हमारे पर्यावरण संबंधी सभी आग्रह अक्सर पीछे धकेल दिये जाते हैं। इस संदर्भ में सुझाव यह है कि सभी लघु, मध्यम व वृहत उद्योगों के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वे जितने क्षेत्रफल में उद्योग लगाये उतने ही क्षेत्र में हरियाली भी विकसित करें। दूसरी बात यह होना चाहिये कि जिला स्तर पर एक सतत् मानीटरिंग करने वाला प्रकोष्ठ बनें जो पर्यावरण प्रेमियों और प्रबुद्ध नागरिकों के मार्गदर्षन एवं नियंत्रण में काम करें और स्मार्ट सिटीज के हवा-पानी की शुद्धता व हरियाली के वांछित स्तर को लगातार बनाये रखने के लिये सीधा जिम्मेदार रहे।
इन सुझावों के अलावा कुछ और भी विचार है, जिनका उल्लेख अधिक विस्तार से बचने के लिये फिलहाल छोड देना ही उचित होगा। सरकार व उसकी ढर्रे से बंधी हुई व्यवस्था में तो इन सुझावों पर ही समुचित गौर कर लिया जाये तो यह सहभागी लोकतंत्र की बहुत बडी उपलब्धि होगी।

7. स्मार्ट सिटीज में क्या क्या होगा ? इस हेतु जो बेंच-माकस बताये गये है, वे तो बहुत आकर्षक और प्रषंसनीय हैं। उन पर शायद ही किसी को आपत्ति हो किंतु मैं एक मुददे पर पुनर्विचार का आग्रह करता हँ। वह है ‘शहर में 24×7  पानी की सार्वजनिक आपूर्ति ‘यदि हम विभिन्न शहरों में इस लक्ष्य को पूरा करने की लागत को देखेंगे तो पायेंगे कि यह लक्ष्य लागत-लाभ मूल्यांकन की दृष्टि से कतई उचित नहीं है और उससे भी बढ़कर बात यह है कि इस तरह शहरवासियों को नलों से लगातार पानी उपलब्ध कराने की कोई उपयोगिता व आवष्यकता भी नहीं है। इसके पक्ष में जो तर्क दिये गये हैं वे ‘पानी की हर समय उपलब्धता‘ और ‘पानी की नलों द्वारा हर समय आपूर्ति‘ इन दो अलग-अलग बातेां को एक ही मान लेने से पैदा हुए हैं।

मैं अपने इन्दौर शहर के अनुभव से यह बात कह रहा हँू। इन्दौर में नर्मदा नदि से बहुत बड़ा खर्च करके 3 चरणों की योजना के बाद पानी की आपूर्ति संभव हुई है। फिर भी शहर के अधिकांष हिस्सो में 1 दिन छोड़कर 1 से 3 घंटेां के लिये पानी सप्लाय किया जाता है। इससे शहरवासी अपनी दो दिन की जरूरत का पानी भर लेते है और अपना काम चला लेने के आदी हो चुके है। इस प्रकार से सीमित समय के लिये पानी सप्लाय होने पर भी आमतौर पर शहर भर में हमेषा आवष्यक मात्रा में पानी उपलब्ध रहता है। कभी-कभी कहीं-कहीं कठिनाई भी आती होगी। मगर इस उदाहरण से मेरा आषय यह है कि यदि हम शहरों में पानी सीमित समय के लिये ही मगर पर्याप्त मात्रा में सप्लाय करें तो भी हमेषा लगातार पानी की उपलब्धता रह सकती है और पानी की उपलब्धता न रहने से कार्य क्षमता घटने, बीमारीयाॅ बढ़ने या मृत्यु दर बढ़ने जैसे जो तर्क दिये गये है उनका कोई औचित्य 24×7 पानी सप्लाय करने के पक्ष में नहीं है। महत्व इस बात का है कि सप्लाय किये गये पानी की कुल मात्रा पर्याप्त हो और उसकी गुणवता या शुद्धता अच्छी हो। अतः लगातार पानी सप्लाय का लक्ष्य तो व्यर्थ में बजट बढ़ाने वाला तथा शहरवासियों को पानी के समुचित उपयोग के प्रति लापरवाह बनाने वाला सोच है, जो हमारे देष की जमीनी हकीकत के कतई अनुकूल नहीं हैं।

8. पानी के संदर्भ में जो दूसरी महत्वाकांक्षा जाहिर की गई है वह तो और भी अधिक अव्यवहारिक एवं अनावष्यक है। सोचा गया है कि दो तरह का पानी सप्लाय किया जायेगा, पीने के लिये अलग और अन्य कार्यो के लिये अलग। सेाचने वाली बात है कि दो तरह के पानी का मतलब है कि उनके अलग अलग स्टोरेज टैंक्स और अलग-अलग सप्लाय पाईप लाईन, जिसका अर्थ है अनाप-शनाप खर्च और उसके बाद इसकी कोई गारंटी नहीं है कि फिल्टर प्लांट पर 100ः शुद्ध किया गया पीने का पानी लम्बी यात्रा करते हुए घर के नल तक उतना ही शुद्ध रूप में पहूँचेगा। इससे तो अच्छा है कि सरकारें या नगर पालिकाएँ एक ही प्रकार का साफ किया हुआ पानी घरों तक सप्लाय कर दें और घरेल्ूा वाटर प्यूरीफायर हर घर में अनिवार्य रूप से उपलब्ध करवा देय जिससे लोग स्वयं की आॅखों के सामने सप्लाय किये गये साफ (नहाने योग्य) पानी को पूरी तरह से रोगाणु मुक्त शुद्ध करके पीयें। आधुनिक व कम लागत की तकनीकों से बनाये गये प्यूरीफायर यदि नगर पालिकाएॅ 50 सब्सिडी के साथ उपलब्ध करवायें तो लोग सहर्ष उनका उपयेाग करने लगेंगे। गरीबों या वंचित वर्ग को ये निःषुल्क भी दिये जा सकते हैं, तब भी इनका खर्च दोहरी जल आपूर्ति की तुलना में तो कम ही आयेगा। फिलहाल तो समस्या यह है कि बहुत से शहरों में पूरी तरह से नल-जल प्रदाय की व्यवस्था भी नहीं हुई है, ऐसे में लगातार और वह भी दोहरी जल आपूति की बात करना दिवा-स्वप्न दिखना ही है।

9. कन्सेप्ट पेपर में वैसे तो शहरो को स्मार्ट बनाने के लिये एक बहुआयामी व समग्र सोच कोे पेष किया गया हैय परन्तु समग्रता की दृष्टि से एक विचारणीय मुद्दा और भी हैं। कोई भी शहर तब तक सही अर्थो में स्मार्ट नही बन सकता जब तक कि उसकी भावी पीढ़ी अर्थात सभी बच्चों को स्मार्ट बनने के साथ साथ संवेदनषीलता तथा परस्पर सहयोग की, सह-विकास की षिक्षा भी समान रूप से नहीं मिले। आज तो जिस प्रकार से तरह तरह के सरकारी और निजी स्कूलों में अलग-अलग स्तर की असमानताएॅ व वर्ग भेद बढ़ाने वाली षिक्षा दी जा रही है उससे तो कोई भी शहर कभी भी सही अर्थो में पूरा-पूरा स्मार्ट बन ही नहीं सकता है। षिक्षा व्यवस्था का उद्धार तो तभी हो सकता है जबकि हम सभी बच्चों को समान स्तर की, समान गुणवत्ता वाली षिक्षा अनिवार्य, निःषुल्क और पड़ोसी स्कूल की अवधारणा के अनुसार उपलब्ध करवायें। स्कूली षिक्षा का सम्पूर्ण राष्ट्रीयकरण हो जाये और मंत्री, संतरी, उद्योगपति, मजदूर, किसान, सभी के बच्चें साथ-साथ एक समान षिक्षा प्राप्त करें। षिक्षा व्यापार वृत्ति से पूर्ण मुक्त हो जाये और हम ‘समाजवादी राष्ट्र‘ बनाने के अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी की ओर भी आगे बढ़ सकें। ‘पड़ोसी स्कूल‘ की अवधारणा का एक लाभ यह भी है कि इससे ढेर सारी स्कूल बसों और ओवर-लोडेड रिक्षाओं की आवष्यकता ही नहीं रहेगी तथा शहर की ट्रेफिक व्यवस्था भी अधिक स्मार्ट बन जायेगी।

10. सरकार की आर्थिक नीतियों से और कंसेप्ट पेपर से भी यह लगता है कि हम विदेषी व बड़े कार्पोरेट्स के पूॅजी निवेष को आकर्षित करने के लिये कुछ अधिक ही लालायित है। किसी बड़ी सैद्धांतिक बहस को छेड़े बिना मैं यहाॅ बस सावधान करना चाहता हूॅ कि कहीं इस होड़ में हमारे स्थानीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग भी दब न जायें। स्मार्ट सिटीज में बाहर से पूँजी को आकर्षित करने से पहले स्थानिय उद्यमियेां के विकास को प्राथमिकता मिलना चाहिये। स्वदेषी बड़े उद्योगपतियों व कम्पनीयों को भी चाहिये कि वे स्थानीय छेाटे उद्यमियों या इकाईयेां को साथ लेकर या उन्हें अपनी सहयोगी इकाई बनाकर अपने व्यापार का विस्तार करें। सहकारिता की सोच एवं सहकारी इकाईयो को सर्वाधिक बढ़ावा एवं प्राथमिकता मिलना चाहिये। जिस प्रकार से विषमता और सुपर रिच लोगांे की संख्या बढ़ रही है वह देष व समाज में तनाव, गला काट स्पर्धा और अन्याय को बढ़ा रही है। जहाँ- जहाँ भी हमारे स्वदेषी उद्यमी या उनका समूह आगे आ सकता हो वहाँ विदेषी कम्पनीयों को मौका नही मिलना चाहिये। हमें ऐसी नीतियाॅ अपनाना चाहिये जिनसे स्वदेषी उ़द्यमी व कम्पनीयाँ विदेषों से तकनीक व पूँजी निवेष अधिक प्राप्त कर सकें।

11. कन्सेप्ट-पेपर में पर्यावरण की दृष्टि से भी बहुत सी अच्छी बातें लिखी गई है। परन्तु सामान्य अनुभव यह है कि भौतिक विकास की अंधी दौड़ में हम अधिक से अधिक व शीघ्र कमाई वाले संसाधनो व उपक्रमों को ही प्राथमिकता देने लगते है और हमारे पर्यावरण संबंधी सभी आग्रह अक्सर पीछे धकेल दिये जाते हैं। इस संदर्भ में सुझाव यह है कि सभी लघु, मध्यम व वृहत उद्योगों के लिये यह अनिवार्य होना चाहिये कि वे जितने क्षेत्रफल में उद्योग लगाये उतने ही क्षेत्र में हरियाली भी विकसित करें। दूसरी बात यह होना चाहिये कि जिला स्तर पर एक सतत् मानीटरिंग करने वाला प्रकोष्ठ बनें जो पर्यावरण प्रेमियों और प्रबुद्ध नागरिकों के मार्गदर्षन एवं नियंत्रण में काम करें और स्मार्ट सिटीज के हवा-पानी की शुद्धता व हरियाली के वांछित स्तर को लगातार बनाये रखने के लिये सीधा जिम्मेदार रहे।

इन सुझावों के अलावा कुछ और भी विचार है, जिनका उल्लेख अधिक विस्तार से बचने के लिये फिलहाल छोड देना ही उचित होगा। सरकार व उसकी ढर्रे से बंधी हुई व्यवस्था में तो इन सुझावों पर ही समुचित गौर कर लिया जाये तो यह सहभागी लोकतंत्र की बहुत बडी उपलब्धि होगी।

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