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स्मार्ट सिटीज चयन का तुग़लकी तरीका: मोदी सरकार की बड़ी भूल

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स्मार्ट सिटी चुनने का स्पर्धा आधारित तुगलकी तरीका
(क्या विपक्ष व प्रबुद्धांे की नजरें मोदी आभा-पुँज से चैंधिया गई हैं ?)
प्रधानमंत्री की जिन योजनाओं को नई विकास-दृष्टि (विजन) माना जा रहा है, उनमें 100 स्मार्ट सिटीज बनाना सर्वप्रमुख है । इस संदर्भ में शहरी विकास मंत्रालय ने करीब 2 माह पूर्व एक कंसेप्ट पेपर जारी किया और उसमें दो बार मामूली संशोधन भी किये । लेकिन अचरज भरा अफसोस होता है कि उस महत्वपूर्ण दस्तावेज पर विपक्ष, प्रबुद्ध वर्ग और मीडिया ने पर्याप्त गौर ही नहीं किया । मैंने इस कंसेप्ट पेपर की 8 बड़ी गड़बड़ियों को उद्घटित करते हुए सुधार हेतु 11 सुझावों का एक पत्र प्रधानमंत्री को भेजा था, जिस पर अब तक तो कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली । वह पत्र यहाँ सबसे पहले ब्लाग में संलग्न है । इस बीच अचानक सरकार की ओर से एक चैंकाने वाला बयान आया कि स्मार्ट सिटीज का चयन शहरों के बीच प्रतियोगिता के जरिये किया जायेगा । शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने इसके लिये 130 शहरों के कमिश्नरों के बीच बंद कमरे में एक बैठक ली । अधिक जानकारी खोजने पर मालूम हुआ कि मंत्रालय जो प्रतियोगिता करवा रहा है, वह असल में शहरों की विशेषताओं व स्थिति पर आधारित नहीं है, बल्कि वह तो शहरों के प्रशासकों, इंजीनियरों, लेखा-विशेषज्ञों व योजना लेखकों के बीच है ।
यह तो बहुत ही विचित्र बात है कि किसी शहर को स्मार्ट बनाया जाये या नहीं, यह फैसला उस शहर में पदस्थ चंद ब्युरोक्रेट्स, टेक्नोक्रेट्स व प्रजेन्टेशन स्किल्स विशेषज्ञों पर छोड़ दिया जाये। इस कथित प्रतिस्पर्धा के लिये मंत्रीजी ने जो 10 कमांडमेंट्स (आज्ञायंे या दिशा-निर्देश) घोषित किये हैं, उन सबका वस्तुतः यही अभिप्राय है । यह तो अनेक दृष्टि से न केवल अव्यवहारिक बल्कि बेहद बेतुका व तुगलकी विचार है । स्मार्ट सिटीज चुने जाने की इस प्रतिस्पर्धा के तरीके द्वारा तो इस योजना के मूल उद्देश्यों को ही भूला दिया गया है । लेकिन बहुत ही अफसोस की बात है कि इस पूरी प्रक्रया पर मिडिया, प्रबुद्ध वर्ग और विपक्ष तक हर तरफ चुप्पी ही दिखाई दे रही है ऐसा लग रहा है कि अब प्रधानमंत्री का आभा-पुंज इतना तेज प्रभाव वाला हो गया है कि सभी की नजरें चैंधिया गई है ।
100 स्मार्ट सिटीज बनाने के उद्देश्यों में से सबसे सार्थक दो बातें थी । एक तो यह कि ये 100 शहर स्मार्ट बनकर देश के विकास की गति को बढ़ाने और हमें वैश्विक-प्रतिस्पर्धा में आगे रखने के लिये ग्रोथ-इंजिन्स की तरह कार्य करेंगे । दूसरी बात यह कि ये सौ शहर देश के विभिन्न भागों में गुणवत्ता-पूर्ण जीवन (क्वालिटी लाईफ) शैली के माॅडल्स की भूमिका निभायेगें। इन दृष्टियों से ही स्मार्ट सिटीज की अवधारणा को वाह-वाही मिली थी । पूर्व में जो कन्सेप्ट पेपर जारी किया गया था, उसके बाद अब सरकार ने राह बदल ली है । हालांकि वह पेपर अभी भी मंत्रालय की वेबसाईट पर उसी तरह कायम है । उसमें तो उक्त  सार्थक सोच को ही रखा गया है । उसमें जो गडबड़ियंाॅ है, वे अलग तरह की हैं। लेकिन अब जो अचानक ‘स्पर्धा’ का शिगूफा छोड़ा गया है उसके द्वारा तो योजना की मूल भावना को ही दरकिनार कर दिया गया है।
किन शहरों को देश के ग्रोथ-इंजिन्स बनाना चाहिये ? इस बात का निर्णय तो शुद्धतः शहरों की वर्तमान व भावी विकास संभावनाओं तथा उनके द्वारा देश के विकास में संभावित योगदान के तटस्थ आंकड़ो पर आधारित आकलन द्वारा होना चाहिये । इस निर्णय पर तो उस बात का कोई असर पड़ना ही नहीं चाहिये कि उस शहर में फिलहाल कैसे ब्युरोक्रेट्स एवं टेक्नोक्रेट्स पदस्थ है । स्मार्ट सिटी को मात्र एक तमगा मानकर, इन बदलते रहने वाले साहबों की काबिलीयत की प्रतियोगिता करवाकर इनाम की तरह बांटने का खेल नहीं बनाना चाहिये । यह प्रश्न केवल शहरों को बजट बांटने या उनमें सुविधाएॅ बढ़ाने का भी नहीं है । यह तो उनके जरिये देश के विकास की गति को बढ़ाने का विचार है । साथ ही वहाॅ के लोगों को गुणवत्ता पूर्ण जीवन देने की भावना है । उसके लिये इस तरह की बेतुकी प्रतियोगिता कराना तो इन मूल उद्देश्यों से पूरी तरह भटक जाने की तरह है । छोटे लेकिन भरपूर संभावना वाले शहर स्पर्धा में कहाँ ठहरेंगे ? क्षेत्रीय असंतुलन और भी अधिक बढ़ेगा ।
स्मार्ट सिटी बनने का हक पहले किसे है ? इस बारे में मंत्रालय का पुराना कंसेप्ट पेपर अधिक सही नजरिया दर्शाता है । किन शहरों में रोजगार, व्यापार, उद्योग, पर्यटन, यातायात, शिक्षा आदि आधारों पर सबसे अच्छी संभावनाए है और किन शहरों के चयन से उनके आस-पास के क्षेत्र व प्रदेश के विकास को अच्छी गति मिलेगी ? इन प्रश्नों के उत्तर तो उपलब्ध आंकड़ों या सांख्यिकीय अध्ययनों द्वारा आसानी से मिल सकते है खासकर शहरों की ओर माइग्रेशन की दर के आंकड़ांे से । इसके लिये किसी भी स्पर्धा को आधार बनाने का औचित्य ही क्या है ?
प्रतियोगिता का यह विचार कितना बेतुका है, इसे इस उदाहरण द्वारा समझंे । सोचिये कि एक बड़े स्कूल में सभी क्लास के बच्चों के लिये एक बहुत आकर्षक कोर्स शुरू किया जा रहा है । उस कोर्स में प्रवेश के लिये एक प्रतियोगी परीक्षा घोषित की जाती है । लेकिन यह परीक्षा बच्चों को नहीं उनके माता पिता को देने के लिये कहा जाता है । अर्थात् जिस काम के लिये बच्चों का अप्टीट्यूड टेस्ट होना चाहिये था, उसे उनके माता पिता की विद्वत्ता या काबिलियत पर छोड़ दिया जाता है । स्कूल के इस तौर-तरीके को आप बेतुका या तुगलकी नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे ?
इस सटीक उदाहरण को समझने के बाद कई लोगों को यह संदेह पैदा हो रहा होगा कि क्या यह अविवेकपूर्ण विचार हमारी इस लोकप्रिय एवं बहु-प्रशंसित मोदी सरकार का ही है ? तो वे इन्टरनेट के जरिये खोज कर वेंकैयाजी द्वारा दिये गये 10 कमांडमेंट्स (आज्ञाएं) पढ़कर अपने संदेह को दूर कर सकते हंै । उन्होंने शहरो के पालकों अर्थात् नौकरशाहों को इन कमांडमेन्ट्स के रूप में प्रतियोगी परीक्षा के जो 10 प्रश्नपत्र बताये है, वे संक्षेप में इस प्रकार है:- (1) शहर का मास्टर प्लान एवं सेनीटेशन प्लान, जो कि जियो-स्पेशियल प्लान व जी.आय.एस. मेपिंग पर आधारित हो (2) दिर्घावधि की शहरी विकास योजना (3) दिर्घावधि की शहरी मोबिलिटी योजना (4) स्वच्छ उर्जा स्त्रोतों को बढ़ावा देने की रणनीतियाँ (5) बिजली, पानी जैसे लोकपयोगी सेवाओं की दरें निर्धारित करने वाली नियामक संस्थाओं की व्यवस्था (6) उपयुक्त जरियों से संसाधन जुटाने के लिये साख के मूल्यांकन हेतु की गई पहलकदमी (7) भवन निर्माण संबंधी नियमावली में जल-पुनर्भरण व पुनर्चक्रण हेतु किये गये सुधार (8) शहरी योजनाएं बनाने व प्रबंधन में जन भागीदारी को बढ़ाने हेतु किये गये उपाय (9) महत्वपूर्ण विषयों में क्षमता वृद्धि हेतु किये गये उपाय (10) शहरी गवर्नेंस को आधुनिक तकनीकों व साधनों द्वारा सुधारना तथा सेवाओं की आन लाईन डिलेवरी ।
इस सूची से यह तो जाहिर होता है कि मंत्रालय शहरी निगमों से क्या-क्या और कितनी उच्च अपेक्षाएं कर रहा है । इन कठिन अपेक्षाओं पर खरे उतरने वाले ब्युरोक्रेट्स व टेक्नोक्रेट्स को व्यक्तिगत क्षमता प्रदर्शन का व्यक्तिगत पुरस्कार मिले और अन्य साहब लोग भी उनसे सीखे ये तो बिल्कुल वाजिब बात है । लेकिन ऐसे विलक्षण साहब लोग एक साथ किसी भी शहर को उपलब्ध है ही नहीं । प्रतिभा तो बहुतों में है, किन्तु प्रशासनिक व्यस्तताओं में उनके पास अपनी क्षमता वृद्धि और सृजनात्मकता के लिये समय ही कहाँ है ? ऐसे में उनके प्रदर्शन पर किसी शहर का स्मार्ट बनना या न बनना तय होने लगेगा तो क्या वह व्यवहारिक व न्याय पूर्ण होगा ?
फिलहाल यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि स्मार्ट सिटी चयन को स्पर्धा-आधारित कर देने के बाद पूर्व में जारी किये कंसेप्ट पेपर का कुछ महत्व रहेगा भी या वह रद्दी हो गया है। हालांकि उसमें भी कई गलतियाँ थी मगर इस तरह की बेमेल कवायद तो नहीं थी। इस उच्च मानदण्डों वाली स्पर्धा की घोषणा के बाद अब तक एकमात्र सार्थक टिप्पणी यतीश राजावत की ‘फस्र्ट पोस्ट’ पर प्रकाशित हुई है, परन्तु उसमें भी उन्होंने प्रतियोगिता के औचित्य को नहीं बल्कि उसे व्यवहार लाने की कठिनाईयों का प्रश्न उठाया है । उनकी जानकारी के अनुसार निगम प्रशासकों को इस स्पर्धा में भाग लेने के लिये न तो पर्याप्त संसाधन दिये गये है, न जरिये या तरीके बतायें गये है। इस प्रतियोगिता में सफल होने के लिये पर्याप्त विशेषज्ञ सेवाएॅ निगमों के पास नहीं है और निजी या अशासकीय संस्थानों से वे उन्हें बिना बजट के कैसे जुटा सकते है ? क्या मंत्रालय ऐसी कठिन व लंगड़ी दौड़ आयोजित करके इस योजना को विलम्बित करना चाहता है और इसका दोष नौकरशाहों की अक्षमता पर मढना चाहता है ?
कई जगह खबरों में कहा गया है कि, बेतुकी स्पर्धा का यह विचार मूलतः प्रधानमंत्री का ही है । हो सकता है उनकी कही बात को मंत्रालय ने कुछ गलत समझ लिया हो । या हो सकता है कि उनके आभा-पंुज से आतंकित होकर उन्होंने बिना प्रश्न किये, बिना विचारे उसे कागजी जामा पहना दिया हो । फिलहाल तो यही लगता है कि यह अव्यवहारिक स्पर्धा एक शिगूफा ही साबित होगी और देर-सबेर मंत्रालय को तुगलक की तरह दौलताबाद से पुनः दिल्ली लौटना पड़ेगा अर्थात् अपने पहले के कंसेप्ट पेपर की वाजिब दिशा को पुनः अपनाना होगा ।
हरिप्रकाश विसन्त
(नीति संबंधी मुद्दों के विचारक-लेखक)

स्मार्ट सिटी चुनने का स्पर्धा आधारित तुगलकी तरीका

प्रधानमंत्री की जिन योजनाओं को नई विकास-दृष्टि (विजन) माना जा रहा है, उनमें 100 स्मार्ट सिटीज बनाना सर्वप्रमुख है । इस संदर्भ में शहरी विकास मंत्रालय ने करीब 4 माह पूर्व एक कंसेप्ट पेपर जारी किया और उसमें दो बार मामूली संशोधन भी किये । लेकिन अचरज भरा अफसोस होता है कि उस महत्वपूर्ण दस्तावेज पर विपक्ष, प्रबुद्ध वर्ग और मीडिया ने पर्याप्त गौर ही नहीं किया । मैंने इस कंसेप्ट पेपर की 8 बड़ी गड़बड़ियों को उद्घटित करते हुए सुधार हेतु 11 सुझावों का एक पत्र 3 माह पूर्व प्रधानमंत्री को भेजा था, जिस पर अब तक तो कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली । वह पत्र यहाँ इससे पहले के 5 ब्लाग में संलग्न है । इस बीच अचानक सरकार की ओर से एक चैंकाने वाला बयान आया कि स्मार्ट सिटीज का चयन शहरों के बीच प्रतियोगिता के जरिये किया जायेगा । शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने इसके लिये 130 शहरों के कमिश्नरों के बीच बंद कमरे में एक बैठक ली । अधिक जानकारी खोजने पर मालूम हुआ कि मंत्रालय जो प्रतियोगिता करवा रहा है, वह असल में शहरों की विशेषताओं व स्थिति पर आधारित नहीं है, बल्कि वह तो शहरों के प्रशासकों, इंजीनियरों, लेखा-विशेषज्ञों व योजना लेखकों के बीच है ।

यह तो बहुत ही विचित्र बात है कि किसी शहर को स्मार्ट बनाया जाये या नहीं, यह फैसला उस शहर में पदस्थ चंद ब्युरोक्रेट्स, टेक्नोक्रेट्स व प्रजेन्टेशन स्किल्स विशेषज्ञों पर छोड़ दिया जाये। इस कथित प्रतिस्पर्धा के लिये मंत्रीजी ने जो 10 कमांडमेंट्स (आज्ञायंे या दिशा-निर्देश) घोषित किये हैं, उन सबका वस्तुतः यही अभिप्राय है । यह तो अनेक दृष्टि से न केवल अव्यवहारिक बल्कि बेहद बेतुका व तुगलकी विचार है । स्मार्ट सिटीज चुने जाने की इस प्रतिस्पर्धा के तरीके द्वारा तो इस योजना के मूल उद्देश्यों को ही भूला दिया गया है । लेकिन बहुत ही अफसोस की बात है कि इस पूरी प्रक्रया पर मिडिया, प्रबुद्ध वर्ग और विपक्ष तक हर तरफ चुप्पी ही दिखाई दे रही है ऐसा लग रहा है कि अब प्रधानमंत्री का आभा-पुंज इतना तेज प्रभाव वाला हो गया है कि सभी की नजरें चैंधिया गई है ।

100 स्मार्ट सिटीज बनाने के उद्देश्यों में से सबसे सार्थक दो बातें थी । एक तो यह कि ये 100 शहर स्मार्ट बनकर देश के विकास की गति को बढ़ाने और हमें वैश्विक-प्रतिस्पर्धा में आगे रखने के लिये ग्रोथ-इंजिन्स की तरह कार्य करेंगे । दूसरी बात यह कि ये सौ शहर देश के विभिन्न भागों में गुणवत्ता-पूर्ण जीवन (क्वालिटी लाईफ) शैली के माॅडल्स की भूमिका निभायेगें। इन दृष्टियों से ही स्मार्ट सिटीज की अवधारणा को वाह-वाही मिली थी । पूर्व में जो कन्सेप्ट पेपर जारी किया गया था, उसके बाद अब सरकार ने राह बदल ली है । हालांकि वह पेपर अभी भी मंत्रालय की वेबसाईट पर उसी तरह कायम है । उसमें तो उक्त  सार्थक सोच को ही रखा गया है । उसमें जो गडबड़ियंाॅ है, वे अलग तरह की हैं। लेकिन अब जो अचानक ‘स्पर्धा’ का शिगूफा छोड़ा गया है उसके द्वारा तो योजना की मूल भावना को ही दरकिनार कर दिया गया है।

किन शहरों को देश के ग्रोथ-इंजिन्स बनाना चाहिये ? इस बात का निर्णय तो शुद्धतः शहरों की वर्तमान व भावी विकास संभावनाओं तथा उनके द्वारा देश के विकास में संभावित योगदान के तटस्थ आंकड़ो पर आधारित आकलन द्वारा होना चाहिये । इस निर्णय पर तो उस बात का कोई असर पड़ना ही नहीं चाहिये कि उस शहर में फिलहाल कैसे ब्युरोक्रेट्स एवं टेक्नोक्रेट्स पदस्थ है । स्मार्ट सिटी को मात्र एक तमगा मानकर, इन बदलते रहने वाले साहबों की काबिलीयत की प्रतियोगिता करवाकर इनाम की तरह बांटने का खेल नहीं बनाना चाहिये । यह प्रश्न केवल शहरों को बजट बांटने या उनमें सुविधाएॅ बढ़ाने का भी नहीं है । यह तो उनके जरिये देश के विकास की गति को बढ़ाने का विचार है । साथ ही वहाॅ के लोगों को गुणवत्ता पूर्ण जीवन देने की भावना है । उसके लिये इस तरह की बेतुकी प्रतियोगिता कराना तो इन मूल उद्देश्यों से पूरी तरह भटक जाने की तरह है । छोटे लेकिन भरपूर संभावना वाले शहर स्पर्धा में कहाँ ठहरेंगे ? क्षेत्रीय असंतुलन और भी अधिक बढ़ेगा ।

स्मार्ट सिटी बनने का हक पहले किसे है ? इस बारे में मंत्रालय का पुराना कंसेप्ट पेपर अधिक सही नजरिया दर्शाता है । किन शहरों में रोजगार, व्यापार, उद्योग, पर्यटन, यातायात, शिक्षा आदि आधारों पर सबसे अच्छी संभावनाए है और किन शहरों के चयन से उनके आस-पास के क्षेत्र व प्रदेश के विकास को अच्छी गति मिलेगी ? इन प्रश्नों के उत्तर तो उपलब्ध आंकड़ों या सांख्यिकीय अध्ययनों द्वारा आसानी से मिल सकते है खासकर शहरों की ओर माइग्रेशन की दर के आंकड़ांे से । इसके लिये किसी भी स्पर्धा को आधार बनाने का औचित्य ही क्या है ?

प्रतियोगिता का यह विचार कितना बेतुका है, इसे इस उदाहरण द्वारा समझंे । सोचिये कि एक बड़े स्कूल में सभी क्लास के बच्चों के लिये एक बहुत आकर्षक कोर्स शुरू किया जा रहा है । उस कोर्स में प्रवेश के लिये एक प्रतियोगी परीक्षा घोषित की जाती है । लेकिन यह परीक्षा बच्चों को नहीं उनके माता पिता को देने के लिये कहा जाता है । अर्थात् जिस काम के लिये बच्चों का अप्टीट्यूड टेस्ट होना चाहिये था, उसे उनके माता पिता की विद्वत्ता या काबिलियत पर छोड़ दिया जाता है । स्कूल के इस तौर-तरीके को आप बेतुका या तुगलकी नहीं कहेंगे, तो क्या कहेंगे ?

इस सटीक उदाहरण को समझने के बाद कई लोगों को यह संदेह पैदा हो रहा होगा कि क्या यह अविवेकपूर्ण विचार हमारी इस लोकप्रिय एवं बहु-प्रशंसित मोदी सरकार का ही है ? तो वे इन्टरनेट के जरिये खोज कर वेंकैयाजी द्वारा दिये गये 10 कमांडमेंट्स (आज्ञाएं) पढ़कर अपने संदेह को दूर कर सकते है । उन्होंने शहरो के पालकों अर्थात् नौकरशाहों को इन कमांडमेन्ट्स के रूप में प्रतियोगी परीक्षा के जो 10 प्रश्नपत्र बताये है, वे संक्षेप में इस प्रकार है:- (1) शहर का मास्टर प्लान एवं सेनीटेशन प्लान, जो कि जियो-स्पेशियल प्लान व जी.आय.एस. मेपिंग पर आधारित हो (2) दिर्घावधि की शहरी विकास योजना (3) दिर्घावधि की शहरी मोबिलिटी योजना (4) स्वच्छ उर्जा स्त्रोतों को बढ़ावा देने की रणनीतियाँ (5) बिजली, पानी जैसे लोकपयोगी सेवाओं की दरें निर्धारित करने वाली नियामक संस्थाओं की व्यवस्था (6) उपयुक्त जरियों से संसाधन जुटाने के लिये साख के मूल्यांकन हेतु की गई पहलकदमी (7) भवन निर्माण संबंधी नियमावली में जल-पुनर्भरण व पुनर्चक्रण हेतु किये गये सुधार (8) शहरी योजनाएं बनाने व प्रबंधन में जन भागीदारी को बढ़ाने हेतु किये गये उपाय (9) महत्वपूर्ण विषयों में क्षमता वृद्धि हेतु किये गये उपाय (10) शहरी गवर्नेंस को आधुनिक तकनीकों व साधनों द्वारा सुधारना तथा सेवाओं की आन लाईन डिलेवरी ।

इस सूची से यह तो जाहिर होता है कि मंत्रालय शहरी निगमों से क्या-क्या और कितनी उच्च अपेक्षाएं कर रहा है । इन कठिन अपेक्षाओं पर खरे उतरने वाले ब्युरोक्रेट्स व टेक्नोक्रेट्स को व्यक्तिगत क्षमता प्रदर्शन का व्यक्तिगत पुरस्कार मिले और अन्य साहब लोग भी उनसे सीखे ये तो बिल्कुल वाजिब बात है । लेकिन ऐसे विलक्षण साहब लोग एक साथ किसी भी शहर को उपलब्ध है ही नहीं । प्रतिभा तो बहुतों में है, किन्तु प्रशासनिक व्यस्तताओं में उनके पास अपनी क्षमता वृद्धि और सृजनात्मकता के लिये समय ही कहाँ है ? ऐसे में उनके प्रदर्शन पर किसी शहर का स्मार्ट बनना या न बनना तय होने लगेगा तो क्या वह व्यवहारिक व न्याय पूर्ण होगा ?

फिलहाल यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि स्मार्ट सिटी चयन को स्पर्धा-आधारित कर देने के बाद पूर्व में जारी किये कंसेप्ट पेपर का कुछ महत्व रहेगा भी या वह रद्दी हो गया है। हालांकि उसमें भी कई गलतियाँ थी मगर इस तरह की बेमेल कवायद तो नहीं थी। इस उच्च मानदण्डों वाली स्पर्धा की घोषणा के बाद अब तक एकमात्र सार्थक टिप्पणी यतीश राजावत की ‘फस्र्ट पोस्ट’ पर प्रकाशित हुई है, परन्तु उसमें भी उन्होंने प्रतियोगिता के औचित्य को नहीं बल्कि उसे व्यवहार लाने की कठिनाईयों का प्रश्न उठाया है । उनकी जानकारी के अनुसार निगम प्रशासकों को इस स्पर्धा में भाग लेने के लिये न तो पर्याप्त संसाधन दिये गये है, न जरिये या तरीके बतायें गये है। इस प्रतियोगिता में सफल होने के लिये पर्याप्त विशेषज्ञ सेवाएॅ निगमों के पास नहीं है और निजी या अशासकीय संस्थानों से वे उन्हें बिना बजट के कैसे जुटा सकते है ? क्या मंत्रालय ऐसी कठिन व लंगड़ी दौड़ आयोजित करके इस योजना को विलम्बित करना चाहता है और इसका दोष नौकरशाहों की अक्षमता पर मढना चाहता है ?

कई जगह खबरों में कहा गया है कि, बेतुकी स्पर्धा का यह विचार मूलतः प्रधानमंत्री का ही है । हो सकता है उनकी कही बात को मंत्रालय ने कुछ गलत समझ लिया हो । या हो सकता है कि उनके आभा-पंुज से आतंकित होकर उन्होंने बिना प्रश्न किये, बिना विचारे उसे कागजी जामा पहना दिया हो । फिलहाल तो यही लगता है कि यह अव्यवहारिक स्पर्धा एक शिगूफा ही साबित होगी और देर-सबेर मंत्रालय को तुगलक की तरह दौलताबाद से पुनः दिल्ली लौटना पड़ेगा अर्थात् अपने पहले के कंसेप्ट पेपर की वाजिब दिशा को पुनः अपनाना होगा ।

हरिप्रकाश विसन्त (नीति संबंधी मुद्दों के विचारक-लेखक)

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