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इन दिनों पूरी दुनिया की सबसे बड़ी चिंता है, कोरोना वायरस का लगातार बढ़ रहा संक्रमण और 200 से अधिक देशों की सरकारों की सबसे पहली प्राथमिकता है, कोरोना की रोकथाम । सभी कह तो रहे हैं कि इस चुनौतीपूर्ण काल में थोड़ी सी भी लापरवाही बहुत महंगी और आत्मघाती होगी, लेकिन एक बहुत बड़ी लापरवाही विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित सभी जिम्मेदारों द्वारा जाने-अनजाने में की गई है और कोरोना-संक्रमण को फैलाने वाले एक प्रमाणित और बहुत बड़े संभावित मार्ग से आँखें मूंद ली गई है और उसे वायरस के लिए बाधा रहित छोड़ा गया है । उस पर तुर्रा यह है कि इस महा-गलती का एक अतार्किक व हास्यास्पद कारण बताया जा रहा है कि, अभी यह निर्धारित नहीं हुआ है, कि “इस जरिये से कितने प्रतिशत लोगों तक संक्रमण फैलता है” ।
कोरोना की महामारी के खिलाफ मानव-जाति के संघर्ष का यह बड़ा अलार्मिंग मुद्दा है कि: “कोरोना का संक्रमण आँखों के जरिये भी फैलता है”। कई विशेषज्ञों या डॉक्टर्स के व्यक्तिगत अनुभवों और सीमित स्तर पर कई संस्थानों के शोध-कार्यों के आधार पर अब यह तो पूरी तरह से प्रमाणित और संदेह से परे है कि कोरोना आँखों के रास्ते से भी शरीर में प्रवेश कर रहा है । WHO और अमेरिका में स्वास्थ्य विषय की शीर्षस्थ संस्था CDC (सेंटर फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन) ने भी कई दस्तावेजों में इसे स्वीकार किया है, लेकिन खेदजनक है कि इस अति-महत्वपूर्ण तथ्य को किसी भी जिम्मेदार संस्था ने पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया है ।
सुरक्षा का भ्रम पाले, असुरक्षित मास्क वाले
कोरोना से सुरक्षित तभी, जब आँखें भी हो ढंकी
इस महामारी की शुरुआत में यानि जनवरी में ही, जब बीमारी के उद्गम चीन, के वुहान शहर में भी केवल 26 मौतें ही हुई थी, तभी चीन के श्वसन रोग विशेषज्ञ डॉ. वांग गुन्ग्फा ने स्वयं अनुभव किया था कि उन्हें इस रोग का संक्रमण आँखों के जरिये ही हुआ है, क्योंकि उन्होंने अन्य सभी सुरक्षा उपाय तो किये थे, लेकिन आँखों की सुरक्षा के लिए चश्मा या गोगल्स नहीं पहने थे । इसके बाद और भी कई डॉक्टर्स ने आखों के जरिये संक्रमण फैलने के अनुभवों को व्यक्त किया ।
प्रतिष्ठित रिसर्च जर्नल JAMA (द जर्नल ऑफ़ अमेरिकन मेडिकल असोसिएशन) में प्रकशित एक शोध के अनुसार कोरोना के 38 मरीजों में से 12 (31.6%) में इस रोग के प्रभाव से आँखों में संक्रमण के गंभीर लक्षण दिखाई दिए । इसके बाद जॉन होपकिन्स यूनिवर्सिटी ने इस शोध की पुष्टि करते हुए स्पष्ट घोषित किया कि कोरोना आँखों से भी शरीर में प्रवेश कर सकता है । इस सन्दर्भ में यदि हम इन्टरनेट पर इस विषय से सम्बंधित किसी भी प्रतिष्ठित वेबसाइट का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कहीं भी आँखों से कोरोना का संक्रमण फैलने की बात से इनकार नहीं किया गया है।
इसलिए अब तक विश्व-स्तर पर स्वाभाविक रूप से मान लिया जाना चाहिए था कि कोरोना को फैलने से रोकने के लिए आँखों के मार्ग की सुरक्षा भी उतनी ही आवश्यक है, जितनी कि नाक और मुंह के मार्ग की । लेकिन यह निराशाजनक व दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तथ्य को WHO एवं अन्य शीर्ष स्वास्थ्य संस्थाओं ने तथा सरकारों ने अपनी हिदायतों में आज तक समुचित स्थान नहीं दिया है । फ़िलहाल लगभग सभी प्रभावित देशों में नाक व मुंह को ढंकने वाली पट्टी या सर्जिकल मास्क को पहनना तो अनिवार्य कर दिया गया है, लेकिन इससे आँखों की सुरक्षा नहीं होती है। इसलिए कोरोना वायरस को शरीर में प्रवेश के लिए आँखों का मार्ग बिलकुल बाधा रहित मिल रहा है । जबकि वैज्ञानिक तथ्य यह है कि आँखों में ACE-2 और TMPRSS2 (प्रोटीन व एंजाइम) मौजूद रहते है, वे इस वायरस के लिए गेटवे बनते हैं और इसकी प्रारंभिक वृद्धि के लिए बहुत अनुकूल माध्यम होते हैं । फिर आँखों से वायरस नासोलेक्रिमल नली से होकर नाक और हमारे श्वसन तंत्र में पहुँच जाते हैं । इसलिए यदि वायरस किसी व्यक्ति की आँखों तक पहुँच गया है, तो यह अवश्यम्भावी है कि वह कोविड-19 का शिकार होगा ।
यदि आप इन्टरनेट पर “आँखों के जरिये संक्रमण को नजर-अंदाज करने का कोई वाजिब कारण” ढूंढने की कोशिश करें तो कहीं नहीं मिलेगा । कई वेबसाइट्स पर विशेषज्ञों द्वारा बस यही कारण बताया गया है कि “अभी तक ऐसा कोई अध्ययन/ शोध नहीं हुआ है, कि जिससे कुल संक्रमण में से आँखों के जरिये होने वाले संक्रमण की हिस्सेदारी का आंकड़ा (%) तय हो सके ।“ यह कारण तो अत्यधिक तर्कहीन है और इन तथाकथित विशेषज्ञों की संजीदगी के स्तर को दर्शाता है। जरा इस कुतर्क की अप्रासंगिकता के बारे में सोचिए । जब विभिन्न मास्क का उपयोग करने के लिए दिशानिर्देश जारी करने से पहले नाक और मुंह के माध्यम से होने वाले संक्रमण के प्रतिशत का पता लगाने के लिए कोई अध्ययन या अनुसंधान नहीं किया गया और इस तरह के अध्ययन की कोई आवश्यकता भी नहीं मानी गई, तो फिर आंखों के माध्यम से संक्रमण को रोकने के आवश्यक उपाय करने के लिए इस तरह के अध्ययन की आवश्यकता क्यों बताई जा रही है ?
जब सभी यह मान रहे हैं कि आँखों के जरिये भी इस रोग का संक्रमण फ़ैल रहा है तो केवल “वह इससे कितना फ़ैल रहा है?” यह बताने वाले प्रतिशत के आंकड़े के इन्तजार में, मानवता के खिलाफ आये, इस खतरे को बढ़ने का एक मार्ग पूरा खुला क्यों छोड़ना चाहिए ? मान लीजिये कि वह आंकड़ा केवल 5% ही है, तो भी यदि हम भविष्य को छोड़कर केवल वर्तमान का ही आंकड़ा देखें तो करीब 80 लाख लोग संक्रमित हो चुके हैं और केवल उन्हीं के 5% की संख्या को देखें, तो करीब 4 लाख लोगों को आँखों के जरिये संक्रमण हुआ हो सकता है । यानि यदि अन्य सावधानियों के साथ ही आँखों का भी बचाव किया गया होता तो इतनी बड़ी संख्या में लोग कोरोना से बच सकते थे ।
जोखिम-प्रबंधन (Risk Management) का मान्य सिद्धांत यह है कि “जोखिम से बचाव के लिए हमारी तैयारी सबसे बुरे संभावित परिणाम से भी निपट सकने के लिए होनी चाहिए”। अब यदि हम JAMA में प्रकाशित शोध को ध्यान में रखें और इस सिद्धांत को हमारी नीतियों का आधार बनाये, तो हमें कोरोना की रोकथाम सम्बन्धी नीति व निर्देश बहुत बदलना होंगे । विश्व स्तर पर भी नीति बनाते समय इस संभावना को आधार बनाना होगा कि 30% से भी अधिक व्यक्तियों को आंखों के जरिये संक्रमण हो सकता है। यदि हम अभी भी इस संबंध में उचित कार्यवाही नहीं करना चाहते हैं; तो मानना होगा कि प्रबंधन और प्रशासन के हमारे संस्थानों में अच्छे-अच्छे सिद्धांत सिखाये तो जा रहे है, लेकिन हमारी वर्तमान नीति पूरी तरह से उन सिद्धांतों की अवहेलना करती है । इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस गलती की मानवता को बहुत बड़ी कीमत चूकाना पड़ रही है ।
कुछ विशेषज्ञों ने एक और बहाना बताया है, कि हमारी आँखों में जब भी कोई बाह्य कण टकराता है या उसके तल को छूता है, तो हमारी आँखे झपक कर उसे अन्दर आने से रोक देती है और अश्रु-ग्रंथियों से आंसू निकलकर भी उसे बाहर बहा देते हैं; इसलिए कोरोना संक्रमण आँखों से होने की सम्भावना बहुत कम है । पहली बात तो यह है कि वे सम्भावना को कम बता रहे हैं, यानि स्वीकार कर रहे हैं कि संभावना शून्य तो नहीं है, संक्रमण हो तो सकता है । दूसरी बात यह कि आखों के झपकने और आंसुओं से प्रायः कई सूक्ष्म व कोमल कण तुरंत रुक नहीं पाते हैं, तो कोरोना तो अति-सूक्ष्म और अति-कोमल है, वह हमारी उँगलियों पर या हवा में तैरते एरोसोल पर सवार होकर अन्दर जा ही सकता है । फिर अन्दर (कन्जक्टिवा तक) जाने के बाद तो उसे ACE-2 रिसेप्टर मिल जाएगा, जिससे चिपक जाने पर वह अपनी आगे फेफड़ों तक की यात्रा आसानी से पूरी कर लेगा ।
पाठकों के मन में यह सवाल भी उठ रहा होगा कि असल में “आँखों के जरिये होने वाले संक्रमण से बचने के लिए क्या अलग करने की जरुरत है ?” तो इस सवाल का जवाब भी आसन है और उसका अमल भी । मास्क के साथ ही चश्मा या गोगल्स पह्नने से बहुत हद तक आँखों का वायरस से बचाव हो सकता है, तो उन आम लोगों के लिए, जो कोरोना योद्धा नहीं है, वे यदि चश्मा पहनते हैं, तो उनके लिए तो सर्जिकल-मास्क लगाना या गमछे आदि से नाक, मुंह को ढँक लेना ही काफी होगा । लेकिन जो चश्मा या गोगल्स नहीं लगाते हैं या लगाना नहीं चाहते, उनके लिए बेहतर उपाय है: फेसशील्ड लगाना । चूँकि फेसशील्ड आँख, नाक और मुंह तीनों प्रवेश द्वारों को एक साथ ढंकती है । वह पारदर्शी फाइबर या प्लास्टिक की होती है, इसलिए जब चाहे तब साधारण पानी से भी धोई जा सकती है और बहुत लम्बे समय तक उपयोग की जा सकती है । इसलिए ये कपड़े के मास्क, क्लिनिकल मास्क या N-95 मास्क, आदि सभी से अधिक किफायती है । यदि फेसशील्ड में यह ध्यान रखा जाए कि उसकी उपरी पट्टी (हेड-पीस) और ललाट के बीच कोई गैप न हो और वह नीचे से हमारी ठोड़ी को भी ढँक रही हो, तो वह कोरोना से बचाने में मास्क की तुलना में कई गुना अधिक सार्थक उपाय होगी । वह आपको श्वास लेने में भी अधिक आसानी देती है और लोग उसमें से एक-दुसरे के चेहरे के हाव-भाव भी देख सकते हैं ।
कुछ विशेषज्ञ फेसशील्ड और मास्क दोनों लगाने की सलाह देते हैं, वह और भी बेहतर है । किन्तु थोड़ी कठिनाई यह है कि जिन लोगों को घंटों तक लगातार मास्क लगाना पड़ रहा है, उन्हें श्वांस लेने में असुविधा होने लगती है जबकि अकेली फेसशील्ड को घंटों तक आराम से पहना जा सकता है । हाँ, हेलमेट पहनकर गाड़ी चलाते समय भी यदि हेलमेट की पारदर्शी लिड को बंद कर रखेंगे, तब भी केवल सर्जिकल मास्क लगाये, चल सकता है । गरज यह है कि चश्मा, फेसशील्ड, हेलमेट सभी आँखों को बाहरी हवा में घूम रहे ‘वायरस कैरिंग एरोसोल’ के सीधे संपर्क में आने से बचाते हैं और हमें भी हाथों से सीधे आँखों को छूने से रोकते हैं ।
इन तथ्यों की रोशनी में यह स्पष्ट है, कि हमारे असंख्य विशेषज्ञों और विश्व नेताओं ने अब तक जो “केवल नाक और मुंह को ढंकने और आँखों को असुरक्षित छोड़ने” की अनुशंसा की, वह कोरोना के खिलाफ युद्ध में मानवजाति की बहुत बड़ी गलती है, और बहुत दुखद है कि इस पर अब तक भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है ।
डिस्क्लेमर : उपरोक्त विचारों के लिए लेखक स्वयं उत्तरदायी हैं। जागरण जंक्शन किसी भी दावे या आंकड़े का समर्थन नही करता है।
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