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कभी कभी मन में एक प्रश्न उठता है

jagate raho
jagate raho
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कभी कभी मन में प्रश्न उठता है,
प्रजातंत्र में आदमी क्यों भ्रष्टाचारी बन जाता है,
वोट लेता है मित्र बनकर फिर
मित्र का ही रक्त पीने लगता है !
गरीबों का मसिया बनता है,
उनके हिस्से की दवाइयां बेचकर ऐस उड़ाता है,
जिनके बल पर मंत्री बना,
मुख्य मंत्री बना, उन्हें अकाल मृत्यु का जहर पिलाता है,
पकड़ा जाता है, जेल जाता है,
अनपढ़ पत्नी को कुर्सी पर बिठा जाता है,
गाय बैलों का चारा तक खा जाता है !
पाप की कमाई पूरे परिवार को खिलाता है !
पुत्र पुत्रियों की लम्बी लाइन लग जाती है,
इस काली कमाई में सबकी हिस्सेदारी बन जाती है !
बच्चों को भी भ्रष्टाचार के गुर सिखाता है,
प्रजातंत्र में आदमी क्यों भ्रष्टाचारी बन जाता है !
यमदूत दरवाजे पर हैं,
अलार्म की घंटी बजाते हैं,
चित्रगुप्त उसके दुष्कर्मों का सन्देश भिजवाते हैं,
पर ये कुकर्मी अपने को धर्मराज और
ईमानदार देश भक्तों को चोर बताते हैं !
सरकारी खजाने का रक्षक खुद चोर बन जाता है,
प्रजातंत्र में क्यों आदमी पापी भ्रष्टाचारी बन जाता है ?
नौ हजार करोड़ का गमन करता है,
पांच लाख जमा करके,
सिर्फ साढ़े तीन साल की मामूली सजा सस्ते में छूट जाता है,
बाकी के साढ़े आठ करोड़ उसका अपना हो जाता है,
यहां भी आम और ख़ास में भेद किया जाता है,
मजदूर सौ रूपये की चोरी में जेल में ही मर खप जाता है,
ख़ास अरबों पर हाथ साफ़ करने पर भी जमानत पर बाहर घूमता है !
प्रजातंत्र में क्यों आदमी पापी भ्रष्टाचारी बन जाता है ! हरेंद्र

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