Menu
blogid : 12455 postid : 1366307

रामायण के गुप्त रहस्य

jagate raho
jagate raho
  • 456 Posts
  • 1013 Comments

आज के दुराचारी, अत्याचारी, बलात्कारी, भ्र्ष्टाचारी नेताओं की तुलना , त्रेता और
द्वापर के राक्षसों से नहीं की जा सकती, रावण, खर दूषण,
कंस, वृतासुर, भस्मासुर, शंभू- निशम्भु, वे क्रूर दुष्ट, हिंसक थे पर दोस्ती
करके पीछे से खंजर नहीं भोंकते थे, नन्नी नन्नी बच्चियों के साथ
बलात्कार करके उन्हें गला दबा कर नहीं मारते थे ! महिलाओं का चीर हरण
नहीं होता था, वे जंगलों में ही सन्यासियों के हवन और तपस्या भंग जरूर करते थे,
नर भक्षी थे, वे राक्षस हैं, लोग डर के रहते थे, लेकिन आज के नेता सामने चेहरे पर मुस्कान
लाकर, मतदाताओं से वोट पाते ही आँखें बदल देते हैं, मौक़ा पाकर रास्ते से हटा भी देते हैं !
रावण ने सीता हरण किया था अपने मोक्ष के लिए ! जिस सीता का हरण किया गया था
वह असली सीता नहीं थी, बल्कि सीता जैसे ही सुन्दर सुशील, विनर्म सीता जी की छाया*
मात्र थी,इस रहस्य को भगवान् और सीता जी ही जानते थे, लक्ष्मण जी भी इस रहस्य से अनविज्ञ थे !
लोक दिखावे के लिए भगवान् रामचन्द्र जी ने और माँ जानकी जी ने जिंदगी भर
इस रहस्य से पर्दा नहीं उठने दिया ! रामायण के सारे पात्र अपनी अपनी क्षमता
के मुताबिक़ सीता जी की खोज में हर तरह की विपरीत परस्थितियों में भी लगे रहे,
(सुग्रीव – भेज रखे हैं जासूस चारों तरफ लौट कर उनमें से कोइ आया नहीं ),
लेकिन श्रेय के भागी बने पवन पुत्र हनुमान जी ! अंगद के नेतृत्व में जामवन्तजी,
हनुमान जी को बानरों के साथ बानर राज सुग्रीव ने दक्षिण दिशा में भेजा था ! जटायु ने
तो सीता जी को रावण के चंगुल से बचाने के लिए अपने प्राण ही न्योछावर कर दिए थे
रास्ते में उनके भाई सम्पाती ने अंगद की टीम को सीता के बारे में बताया की कुछ दिनों पहले
मैंने एक अबला नारी को आसमान में उड़ने वाले पुष्पक विमान में रोते -विलाप करते हुए
देखा था, विमान लंका की दिशा में जा रहा था ! सीता जी के इस रहस्य का प्रमाण तुलसीदास द्वारा रचित
रामचरित्र मानस के अरण्यकाण्ड में पृष्ट संख्या ५५९-560 के दोहा और चौपाइयों में अंकित है !

दोहा -लछिमन गए बनहि जब लें मूल, फल कंद,
जनकसुता सन बोले, विहँसि कृपा सुख बृंद ! २३
अर्थ = लक्ष्मण जी जब कंद, मूल, फल लेने के लिए वन में गए, तब अकेले में
श्रीरामचन्द्र जी हंसकर जानकी जी से बोले.
चौपाय – “सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला,
मैं कुछ करबि ललित नरलीला !
तुम्ह पावक मंहु करहु निवासा,
जौं लगी करों निसाचर नासा” !
अर्थ = सीते मैं अब कुछ मनोहर नरलीला करूंगा, इसलिए
जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि
में निवास करो !
चौपाय – “जभी राम सब कहा बखानी ! प्रभु पद धरी हियँ अनल समाई !
निज प्रतिबिम्ब राखी तहँ सीता ! तैसई सील रूप सुबीनीता” !!
अर्थ = श्री रामचंद्र जी ने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यूं ही सीता जी
प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा गयी ! सीताजी ने
अपनी छाया मूर्ति वहां रखदी, जो उनके जैसे ही शील स्वभाव
और रूपवाली और विनम्र थी !
“लछिमन यह मरम न जाना, जो कुछ चरित्र रचा भगवाना” !
भगवान ने जो लीला रची, इस रहस्य को शेषनाग के अवतार लक्ष्मण जी भी नहीं जान
पाए !
जब भगवान् श्रीराम चंद्रजी ने लंका में जाकर रावण सहित सारे पापी राक्षसों का संहार करके
छाया रूपी सीताजी को बंधन मुक्त करके लाये तो सारे समाज के सामने सीताजी की पवित्रता
की परीक्षा हेतु उनको अग्नि प्रवेश करवा कर उनकी परीक्षा ली गयी थी, छाया मूर्ति सीता जी
अग्नि में समाहित होगई और असली सीता अग्नि से बाहर आगयी थी !
उधर लंका में नाक कटी सुर्पणखां ने जब रावण के पास जाकर अपनी कटी नाक दिखाई और राम-लछमन
के हाथों खर दूषण के मरने की खबर सुनाई,
दोहा=”सभा माझ परि व्याकुल बहु प्रकार कह रोइ,
तोहि जियत दसकंधर मोरि कि ऐसी गति होय” !
चौपाय-सुनत सभासद उठे अकुलाई, समुझाई गहि बांह उठाई,
कह लंकेस कहसि निज बाता, केइन तब नासा कान निपाता !
सुर्पणखां-अवध नृपति दसरथ के जाए, पुरुष सिंघ बन खेलन आए,
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी, रहित निसाचर करिहहिं धरनी !!
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता, खल बद्ध रत सुर मुनि सुखदाता !
सोभाधाम राम अस नामा, तिन्ह के संग नारी एक स्यामा ! !
रूप रासि बिधि नारि सँवारी, रति सत कोटि तासु बलिहारी,
तासु अनुज काटे श्रुति नासा, सुनी तव भगिनी करहिं परिहासा !!
खर दूषण सुनी लगे पुकारा, छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा,
खर दूषण तिसिरा कर घाटा, सुनी दससीस जारी सब जाता !”

तो पहले तो रावण को यकीन ही नहीं हुआ की खर-दूषण मारे गए हैं, लेकिन
जब सुर्पणखां ने साड़ी कहानी बयान की तो उसे पका यकीन होगया है की हम
जैसे पापियों का संहार करने के लिए साक्षात भगवान का जन्म होचुका है
राम-लक्ष्मण के रूप में !
रावण मन ही मन = सुर नर असुर नाग खग माहीं, मोरे अनुचर कह को नाहीं
खर दूषण मोहि सम बलवंता, तिन्ही को मारइ बिनु भगवंता !!
सुर रंजन भंजन मही भारा, जौं भगवंत लीन्ह अवतारा !
तो मैं जाइ बैर हठी कर ऊँ, प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ !!
होइहि भजनु न तामस देहा, मन क्रम बचन मंत्र दृढ एहा !
जौं नररूप भूपसुत कोऊ, हरिहउँ नारी जीती रन दोऊ !!

अर्थ = रावण सोचता है की तीनों लोकों में,देवता, राक्षसों, मनुष्यों, नागों,पक्षियों में, आज तीनों लोकों में कोइ भी बल, बुध्दि, ऐश्वर्य
और तेजस्वी मेरे जोड़ का नहीं है,
खर-दूषण मेरे सामान बलवान थे, उन्हें बिना भगवान् के कोई दूसरा नहीं मार सकता था, लगता है, धरती से पापिओं का नाश करने के लिए,
भगवान का अवतार हो चुका है, इस तामस देह से मैं उनका भजन नहीं कर सकता, हाँ उनसे वैर बढ़ाऊं और उनके वाणों से मुक्ति
पाकर भव सागर पार उतर जाऊं ! अगर ये केवल राजा के बेटे हैं तो मैं इन दोनों को रण में जीत कर इनकी नारी को हरण करके
ले आऊंगा ! इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए रावण ने मारीच को सोने का मृग बनाकर पंचवटी में भेजा, सोने के मृग को देखकर सीता जी
ने भगवान राम से उस सोने के मृग को मारकर उसकी सुन्दर चर्म लाने को कहा ! राम मृग के पीछे पीछे भागे, कुछ दूर भाग कर मारीच
कभी छिप जाता, कभी प्रकट होकर दूर निकल जाता ! भगवान् राम ने आखिर बाण मार ही दिया, वाण लगते ही उसने पहले लक्ष्मण को
में लक्षमण को पुकारा, फिर राम का स्मरण करते हुए प्राण त्याग दिए ! सीता जी ने लक्ष्मणजी को राम की सहायता के लिए जाने को
मजबूर कर दिया ! लक्ष्मण जी ने पंचवटी की कुटिया छोड़ते समय एक रेखा खींची और सीता जी से विनीत भाव से उस रेखा को न लांघने को
कहा ! वह रेखा आज भी लक्ष्मण रेखा के नाम से जानी जाती है और याद दिलाती है ‘कि नारी को सीमा से बाहर लक्ष्मण रेखा लांघ कर नहीं जाना चाहिए’ !
बाकी अगले अंक में

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply