Menu
blogid : 2899 postid : 718187

पलों में खता, सदियों की सजा

Harish Bhatt
Harish Bhatt
  • 329 Posts
  • 1555 Comments

कुछ पुरानी यादें जो मन को कचोटती रहती है. यह बातें और बेहतर करने को प्रेरित करती है़. बात बहुत ही पुरानी है, हाईस्कूल के बाद इंटरमीडिएट में एडमिशन लेना था. हाईस्कूल तक अन्य विषयों की अपेक्षा गणित में ज्यादा रूचि थी. मन भी बहुत था कि पढ़ाई गणित को आधार बनाकर ही करनी है. इंटरमीडिएट के लिए ग्यारहवी में प्रवेश लेते समय भेड़चाल के चक्कर में फंस गया. वजह साफ थी, उस समय अधिकांश साथियों ने गणित को लेकर मेरे मन में डर बैठा दिया. इस डर से मैंने भी गणित को छोड़ जीव विज्ञान वर्ग में प्रवेश ले लिया. उस एक दिन का फैसला मेरी सबसे बड़ी गलती बन गया. यूं ही नहीं कहा जाता कि पलों ने की खता, सदियों ने सजा पाई.
इस एक गलती से मैंने एक बात जरूर सीख लिया, जहां तक संभव हो वहां तक भीड़ के पीछे नहीं चलना चाहिए, बल्कि अपने को उस लायक बनाओ कि भीड़ आपके पीछे चले. वरना यूं ही चलते रहो अपनी मंजिल की ओर. मन पसंद विषय गणित के छूटने का गम और जीवविज्ञान पढऩे में मन न लगने के बीच किसी तरह इंटर पास लिया. लेकिन परिजनों के दबाव के चलते बीएससी के बायो वर्ग में एडमिशन करवाया दिया गया. करवाया गया इसलिए कि होना नहीं था. यह भी सच है कि जिस बात को नहीं होना होता, वह होती ही नहीं है, परिणामस्वरूप मैं बीएससी प्रथम वर्ष ही नहीं करवाया.
मैंने एक बार फिर बीए में प्रवेश लिया. इसी बीच ऋषिकेश में दैनिक जागरण ने गढ़वाल स्तरीय कार्यालय खोला. इस कार्यालय में मुझे कम्प्यूटर ऑपरेटर की जॉब मिल गई. इस जॉब को मैंने ज्यादा दिनों तक नहीं किया, फिर भी एमए करने तक पढ़ाई अव्यस्थित सी ही रही. मीडिया के वरिष्ठजनों की बातों को दरकिनार करते हुए पत्रकारिता भी नहीं सीखी. इसकी वजह भी साफ है पहली यह कि मुझे टूटी-फूटी हिन्दी ही आ पाती है. मसलन व्याकरण की अशुद्घियां आम बात है, मेरे लिए, बोलना तो एक अलग बात होती है. दूसरी यह कि अंग्रेजी भाषा का ज्ञान न होना. सीधी सी बात है कि जिस विषय में जानकारी न हो, उसके बारे में मैं क्या कर सकूंगा. हमारे यहां पर अंग्रेजी का ही बोलबाला है. हिंदी सीखी नहीं, अंग्रेजी आती नहीं, तब पत्रकारिता कैसे होती. यह सोच कर पत्रकारिता भी नहीं सीखी. हां मीडिया में जॉब करना है, तो कम्प्यूटर पर कंपोजिंग का अनपढ़ों जैसा काम शुरू कर दिया. ठीक वैसे ही जैसे एक अनपढ़ आदमी वॉल पेटिंग या बैनर बनाने का काम आसानी से कर लेता है. बस फर्क इतना है कि वह बेचारा दीवारों या बोर्ड पर कूची व रंग लेकर लिखता है. मैं कम्प्यूटर कीबोर्ड की सहायता से लिख लेता हूं. मन को तसल्ली है कि मैं भी मीडिया सेक्टर में काम करता हूं. लेकिन मजेदार बात यह है कि मुझे न तो अंग्रेजी से कोई मतलब है और न ही हिंदी से. बस नकल करता रहता हूं, जैसा करने को कहा जाता है. इसमें मेरी सोच की कोई अहमियत नहीं है.
अब बात आती है कि जब अनपढ़ों जैसा ही काम करना है तो अपनी सोच का क्या करा जाएं. तो इसके लिए भला हो इंटरनेट या सोशल नेटवर्किंग साइट्स का. जहां पर मैं अपनी सोच को शब्दों का आकार आसानी से लेता हूं.
जब इरादों मजबूत हो कि कोई भी आपको अपनी मंजिल पर पहुंचने से नहीं रोक सकता. एक बात ओर जिस घर जाना नहीं, उसका रास्ता भी नहीं पूछना चाहिए और जहां पहुंचना हो, उसका कोई रास्ता छोडऩा नहीं चाहिए. अब हाल यह है कि जिस काम को करना है, उसको पूरा किए बगैर छोड़ता नहीं और जिसको नहीं करना, उसके बारे में सोचता नहीं. मुझे लिखना अच्छा लगता है, तो लिखता हूं. यही एक रास्ता एक दिन मुझे भीड़ से आगे ले जाएगा. यह अलग बात है कि आज मैं भीड़ में सबसे पीछे खड़ा हूं, लेकिन अगर भीड़ तो पलट कर देखने पर मजबूर कर दिया तो मैं ही सबसे आगे दिखूंगा.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh