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जिंदगी क्या है, बचपन से बुढ़ापे तक भाग–भागम, पहले अपने पैरों पर चलने की जल्दी में घुटने छिलवाए. चलना शुरू किया तो घर की चौखट लांघने की जल्दी. स्कूल में एडमिशन की भाग–दौड शुरू. मम्मी डैडी ने एडमिशन करा दिया तो क्लास में आगे निकलने की होड़. जिंदगी की मारमारी छुटपन से ही शुरू. आगे निकलो, आगे निकलो, कहां से आगे निकलो, हर तरफ तो जाम है. क्लास में जाम. घर पर जाम, सड़क पर जाम. खेल के मैदान में जाम. कोई आगे ही नहीं बढ़ रहा है तो हम कैसे आगे बढ़े. बस भाग रहे चक्कर घिन्नी बने. जिनसे आगे निकलना है, उनका तो पता ही नहीं वह कहां तक पहुंच चुके है. स्कूल से बाहर निकले तो पता चला, अभी तो वही पर है, जहां से चले थे. एक बार फिर दौड़ शुरू हुई कॉलेज, इंस्टीट्यूट में एडमिशन की, शायद यहां पर जिंदगी में ठहराव आ जाए, शायद यहां से सबसे आगे निकलने का रास्ता मिल जाए. पर किस्मत यहां भी दगा दे गई. मां–बाप के पैसों की पॉवर से चार–पांच साल और मिल गए, अपनी जिंदगी की फिनिशिंग के लिए. लगा ऐश के दिन ही आ गए समझो. कुछ समय बाद पता चला कि बेटा अभी आराम कहां है. असली भाग–दौड़ के दिन शुरू भी नहीं हुए. जब एक अदद नौकरी के लिए एक ऑफिस से दूसरे ऑफिस, एक शहर से दूसरे शहर, इस स्टेट से उस स्टेट. इतनी भाग दौड़ में अपने कब कहां छूट गए, पता ही नहीं चला. नौकरी की लाइन में खड़े होने की जगह भी नहीं मिल पाई. अपने तो कब के पराए हो गए पता ही नहीं चला. फिर बेहताशा, कभी इधर, कभी उधर बस भागे चले जा रहे है. जाना कहां है, यह तो अभी तक तय नहीं हो पाया है. किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हुआ तो वह भी सुकून से नहीं खा पाते. सुबह घर से निकल कर काम पर जाने की जल्दी, शाम को घर पहुंचने की जल्दी के बीच पता ही नहीं चलता, हम किससे पीछे है और किससे आगे. ऐसे में अपडेट क्या खाक होगे. वक्त मिले तो कुछ करें भी. पैसा कमाने की होड़ में सब कुछ भूल सा गए है. अपना बचपन, अपना घर, अपना मौहल्ला, अपना शहर, चाय की दुकान, अपनी रोज शाम की दोस्तों के साथ महफिले (भले ही लोकल लेबल की थी). आने वाले कुछ समय में हमे भागदौड़ से मुक्ति मिल जाएगी, क्योंकि जिस स्पीड से दुनिया आगे बढ़ रही है और हर काम टच करते ही हो जाता है. तो भला फिर क्यों भागना. चलो अब लिखना खत्म करता हूं, अभी बहुत काम बचा है और फिर मुझे भी घर भागना है.
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