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युवाओं में घर छोडऩे का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है. घर छोड़ते ही उनको दोषी ठहराने वालों ने कभी भी इसके मूल कारणों को जानने की कोशिश नहीं की और सीधे अपने उचित-अनुचित प्रभाव का प्रयोग करते हुए अपने बच्चे को अपराधी घोषित कर दिया. जबकि किसी भी बच्चे के घर छोडऩे का बीज तो सालों पहले ही बो दिया गया था, जब वह छोटा बच्चा था, तब उसके मम्मी-पापा के पास उसके लिए समय नहीं था, क्योंकि उनको पड़ोसी का स्टेटस मारे जा रहा था, और उन्होंने उस स्टेटस को हासिल करने के लिए अपने बच्चों को आया या क्रैच के भरोसे छोड़ दिनरात पैसा कमाना ही अपना मकसद बना लिया था. आया या क्रैच को अपनी आय से मतलब था. उस बच्चे को उनकी छत्रछाया में आधा-अधूरा ज्ञान, बाकी बचा घर-घर में घुसे बेतुके टीवी सीरियल्स, मोबाइल, इंटरनेट ने पूरा कर दिया. इसी का परिणाम निकला, जहां किसी हमउम्र ने प्यार से दिल पर हाथ रखा, बस पिघल गए मोम की तरह और बह गए, उन अंधेरे रास्तों पर जहां सिर्फ और सिर्फ बदनाम होता है उनका, उनके परिवार का नाम. फिर याद आती है मॉम-डैड को यह क्या हो गया, पर तब तक तो ‘चिडिय़ा चुग गई खेत, अब पछताना क्या’ वाली कहावत आकार ले चुकी होती है. हम जानते है ‘जैसे बोएगे, वैसा ही काटेगे’. यह बात हमारे जीवन में भी लागू होती है. तेजी से बदलते जीवन मूल्यों के बीच जरूरी है बच्चों की प्राथमिक पाठशाला को मजबूत करना, जहां उसके टीचर होते है मम्मी-पापा. कहते है जब अपने पर भी भरोसा न हो तो दूसरे का क्या विश्वास की वह हमारे बच्चों को संस्कारवान बना देगा, क्योंकि हम उसको मनमानी फीस जो दे रहे है. पर सच यह है कि बच्चों के बहकते कदमों को रोकने के लिए उनका बचपन अपार खुशियों से भरना होगा. जो हुआ उसको भुलाते हुए आने वाले बच्चों पर तो ध्यान दिया ही जा सकता है.
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