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एक पिता अपने बच्चों को आसानी / कठिनाई से पाल-पोस कर काबिल बना देता है। और वही बच्चे अपने बूढ़े पिता की अर्थी को कंधा देने में हिचकिचाते है। जिस पिता ने अपने जीवन का सर्वोत्तम समय अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए न्यौछावर कर दिया, वही बच्चें उसकी आत्मा की शांति के लिए सिर्फ कुछ दिन शांति से नहीं रहते। अगर कही पिता ने अच्छी जमा-पूंजी छोड दी, तो समझो फिर शुरू कभी खत्म न होने वाला बखेडा। कभी पिता ने अपनी वृद्धावस्था में इस बात का प्रतिरोध भी किया, तो बच्चों की यह बात कि ‘तुमने हमको पाल कर कोई अहसान नहीं किया बल्कि अपना फर्ज ही निभाया’ सुनकर पिता निष्प्राण हो जाता है। अब सवाल यहां उठता है कि जब पिता ने अपना फर्ज निभाया तो क्या बच्चों का अपने पिता के प्रति कोई फर्ज नहीं है। यह कडुवा सत्य उस समाज में चरितार्थ हो रहा है, जिस समाज के आराध्य श्रीराम और श्रीकृष्ण है और जिस धरती पर श्रवण कुमार ने अपने बूढे पिता की प्यास बुझाने के लिए अपने प्राण दे दिए हो। वहां पर वृद्धा आश्रम की जरुरत ही क्यों पडी? क्या उस मकान में जगह कम हो गई, जिसको पिता ने अपनी खून-पसीने की गाढी कमाई से अपने बच्चों के लिए बनवाया था। जबकि वह जानता था, वह अपनी जीवन-यात्रा के अंतिम पडाव पर है। अचानक ऐसा क्या हो गया, कि अपने ही मकान का बरामदा उसके लिए नरक बन गया। मेरी समझ में यह नहीं आता, आज हमारे पास अपने बच्चों को संस्कारवान बनाने के हर साधन उपलब्ध है, जैसे महानतम संतो और लेखकों की उपयोगी पुस्तकें, हर घर में मौजूद टेलीविजन, रोज सुबह घर पहुंचता अखबार। हम सत्ता पलटने और दुश्मन को धूल चटाने में माहिर है, तो फिर भी बच्चों को संस्कारवान बनाने में क्यों नाकाम साबित हो रहे है?
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