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जिए तो जीने न दिया, मरे तो रहने ना दिया

Harish Bhatt
Harish Bhatt
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ये जो दुनिया है न जीने देती है और न ही चैन से मरने देती है. एक युवा ने सामाजिक जीवन की जद्दोजहद से दूर होते हुए संन्यास ले लिया. संत निगमानंद ने संन्यासी बनकर व्यक्तिगत हितों से ऊपर उठकर मां गंगा के किनारों पर हो रहे अवैध खनन के खिलाफ बिगुल बजा दिया. बहुत ही खामोशी से वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे कि इंसानियत भूल चुके इंसानों ने उनको उस चक्रव्यूह में फंसा लिया, जहां पर वह मर कर भी चैन नहीं ले पा रहे है. अब क्योंकि वह संन्यासी बनकर जीवन-यापन कर रहे थे. तब ऐसे में उनके पार्थिव-शरीर को संन्यासी रीति-रिवाजों के अनुसार समाधि ही दी जानी जरूरी हो जाती है. तब ऐसे में एक सवाल उठता है अब क्यों उनके माता-पिता उनके पार्थिव शरीर को हासिल करने की जुगत थे. फिर मीडिया भी सब कुछ जानते-समझते हुए क्यों इस बात को तूल दे रहा है कि संत निगमानंद के गुरु शिवानंद गलत है. क्यों उनके शरीर को परिवार को सौंप दिया जाना चाहिए था. माना दिल्ली में रसायन शास्त्र के अध्यापक रहे स्वामी शिवानंद निगमानंद को बहला-फुसलाकर दिल्ली से अपने साथ हरिद्वार ले आए. पर यह बात लगभग 16 साल पुरानी हो चुकी है. अगर निगमानंद के घर-परिवार को इस बात का विरोध करना था, तो वह आज तक कहां थे, क्यों नहीं उस समय मीडिया के सामने आए जब संत जौलीग्रांट स्थित हिमालयन हॉस्पिटल में जिंदगी-मौत की लड़ाई लड़ रहे थे. आज जब संत अनंत की यात्रा पर चले गए, तब क्यों उनके नाम और पार्थिव शरीर के साथ नाइंसाफी हो रही है. यहां पर उनके पिता का गलत हो सकते है और उनका साथ देने वाले नेता और मीडिया भी दोषी है. हां अगर उनके पिता संत के जिंदा रहते हुए यह कदम उठाते तो वह सही हो सकते थे. जब संत जिंदा थे तब समाज के ही लोगों ने उनको चैन से जीने नहीं दिया. अगर संत की कोई राजनीतिक इच्छा थी तो यह निश्चित मानिए, वह आज भी जिंदा होते, उनके पास भी रुपए-पैसों का ढ़ेर होता. तब ऐसे में संत की लड़ाई भी जायज थी, वह तो सिस्टम का ही साथ दे रहे थे, पर अफसोसजनक बात यह है न जाने क्यों सिस्टम ही उनके खिलाफ हो गया. चलिए इस लड़ाई में संत शहीद हो गए, तब कम से कम उनके पार्थिव शरीर को चैन से समाधिस्थ हो जाने दिया जाता, ताकि जिंदा न सही पर मरने के बाद तो उनकी आत्मा को शांति मिल सके. पर ऐसा होता नहीं दिख रहा है, कई वर्षों तक उनकी सुध न लेने वाले, आज मीडिया के सामने अपना दुख जाहिर करके यह जताने की कोशिश कर रहे है कि उनके शरीर के असली हकदार वह है. यह सही है कि उनके शरीर के वारिस वही है. जबकि होना यह चाहिए कि उनके माता-पिता को स्वामी शिवानंद जी का समर्थन करते हुए उनकी समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित करनी चाहिए. संत निगमानंद के माता-पिता को तो अपने सुपुत्र पर गर्व होना चाहिए कि उनके पुत्र ने मां गंगा को बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा दी. वह भी उस माहौल में जहां पर सिर्फ मां गंगा को बचाने के लिए राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ही हावी है. इस संत की जिंदगी का अफसोसजनक पहलू यह है कि जिए तो जीने न दिया और मरे तो रहने न दिया. उनकी शहादत आने वाले दिनों में मां गंगा को कितना बचा पाएगी, इस सवाल का जवाब आने वाला वक्त ही देगा.

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