Menu
blogid : 2899 postid : 441

पढ़कर कोई कलेक्टर तो बनना नहीं

Harish Bhatt
Harish Bhatt
  • 329 Posts
  • 1555 Comments

कम्प्यूटर के दौर में हम जितनी तेजी से आगे बढ़ते जा रहे है, उतनी ही तेजी से हमारी शिक्षा के पारंपरिक तौर-तरीके व साधन हमसे दूर होते जा रहे है. बचपन में सरकंडे या बांस की एक पोर के लिए दिन भर भटकने या लाला की दुकान से 10 पैसे की एक पोर और 5 पैसे में स्याही की टिकिया खरीद लाने के बाद पहले कलम बनाने और स्याही की टिकिया को घोल कर कुछ नया करने की लालसा मन में जागती थी, वह आजकल कम्प्यूटर के कीबोर्ड पर कहां. पहले पेंसिल-कॉपी, स्लेट-बत्ती पर लिखते-लिखते जरूरी हो जाता था कि तख्ती पर लिखना, ताकि लेखन में सुधार हो, क्योंकि आपके लेखन से आपका व्यक्तित्व झलकता है. तख्ती पर लिखना और फिर उसको मिटाने के लिए चिकनी मिट्टी की जरूरत से अहसास होता था कि जिंदगी में कुछ कर गुजरने के लिए मेहनत बहुत जरूरी हो जाती है. लेकिन आजकल ऐसी चीजों की आवश्यकता ही नहीं होती, फिर लिखने के लिए आपके पास पेन के अलावा कम्प्यूटर जो उपलब्ध होता है और जब अपनी इच्छा पलक झपकते ही पूरी हो, तो मेहनत की क्या जरूरत. स्कूल के समय की एक और बात याद आती है, पहाड़े याद करना, जो आजकल शायद ही किसी बच्चे को सिखाए जाते हो. पहले गुणा-भाग करना हो, जोड़-घटाव, बगैर पहाड़े याद किए बिना गणित का कोई सवाल हल करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा था. जिसने पहाड़े याद किए मान लीजिए, वह खुद कम्प्यूटर हो गया. लेकिन आजकल बच्चों के दिमाग पर पहाड़ों की जगह कैलकुलेटर ने अपना कब्जा जमा लिया है, जरा भी गणितीय सवालों को हल करना हो, तो कैलकुलैटर हाजिर है, जो कम्प्यूटर के साथ-साथ मोबाइल में भी मौजूद रहता है. अब खुद ही सोचिए हमने क्या किया, सभी कामों को करने के लिए जब हमारे सामने हर संसाधन उपलब्ध है, तो हम आलसी क्यों नहीं होंगे. अब न किसी को सरकंडे की पोर की जरूरत है और न ही स्याही टिकिया घोलने में समय लगाना पड़ता है. इसके साथ ही पहाड़ों को याद करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. इन सबके परिणामस्वरूप दिमागी कसरत की तो बात ही भूल जाइए. जब दिमाग के पास कुछ करने के लिए बचा ही नहीं तो वह कही तो अपना समय लगाएगा ही, फिर चाहे खुराफत ही सही. और अब तो शिक्षा प्रणाली को इतना आसान बनाया जा रहा है कि फेल होने की गुजांइश ही नहीं बचती. पहले कम से कम फेल होने के डर से बच्चों में थोड़ा बहुत पढऩे की मजबूरी तो होती ही थी, लेकिन अब जब फेल ही नहीं होना तो क्या करना अपना दिमाग खराब करके. वैसे भी पढ़कर कोई कलेक्टर तो बनना नहीं है. अब तो सब कुछ पता है, इस देश में कैसे बहुत कम पढ़े-लिखे ज्यादा पढ़े-लिखों पर राज करते है. फिर हमको तो राज करना है, ना की किसी की चाकरी. कुल बात यह है कि हम अपनी पुरानी शिक्षा प्रणाली को दरकिनार करते हुए कैसे दावा करते है कि हम सबसे बेहतर होने की दिशा में प्रयास कर रहे है. नए अविष्कारों को महत्व मिलना चाहिए, लेकिन इतना भी नहीं कि उसको अपनाने की धुन में अपनी परम्पराएं और अपना अस्तित्व ही गुम हो जाएं.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh